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यूपी चुनाव: विधायकों की भगदड़ रोकने के लिये अहंकार तोड़ेंगे योगी आदित्यनाथ?

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव इस बार दिलचस्प होने के साथ ही दलबदल का एक नया इतिहास बनाता हुआ भी दिख रहा है. टिकटों के बंटवारे से पहले बीजेपी में ऐसी भगदड़ मचना अप्रत्याशित होने के अलावा पार्टी के लिये किसी बड़े झटके से कम नहीं है.

लेकिन सोचने वाली बात ये है कि दलितों व पिछड़ों की राजनीति करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य अपनी उपेक्षा से अगर इतने ही नाराज़ चल रहे थे, तो पार्टी नेतृत्व या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन्हें मनाने की कोशिश क्यों नहीं की और ये नौबत ही क्यों आने दी? क्या इसे अहंकार की राजनीति समझा जाए या फिर सत्ता की हिस्सेदारी में दलित नेताओं की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा को रोकने की सुनियोजित कोशिश माना जाए?

वजह जो भी रही हो, लेकिन ये बीजेपी के लिए खतरे का ऐसा अलार्म है, जो उसके जाति आधारित सियासी गणित को पलटते हुए उसके मंसूबों पर पानी फेर सकता है. मंत्रीपद से इस्तीफा देने वाले मौर्य और उनके समर्थक अन्य विधायकों के समाजवादी पार्टी में शामिल होने की अटकलों के बाद गठबंधन के अन्य क्षेत्रीय दल भी अब बीजेपी को नसीहत देने लगे हैं कि उसे नेताओं के आत्मसम्मान का ख्याल रखना चाहिए.
              
ऐसे क्षत्रपों के दम पर ही पांच साल पहले बीजेपी सत्ता में आई थी. उनमें से एक सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर पहले ही बीजेपी का दामन छोड़कर अखिलेश यादव की साइकिल पर जा बैठे हैं. अब वे अपना दल-एस की संयोजक व केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को भी सपा का साथ देने के लिए पूरी ताकत लगाए हुए हैं.

हालांकि अपना दल (सोनेलाल) अभी तक तो एनडीए के ही हिसा है लेकिन इस बार उसने यूपी में अपने लिए ज्यादा सीटें मांगी हैं. अगर बीजेपी ने उसे पूरा नहीं किया तो अपना दल भी राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य के रास्ते पर चलते हुए सपा का सहयोगी बनने से परहेज़ नहीं करेगा. उस सूरत में बीजेपी के पास दलित व पिछड़ों का ऐसा कोई बड़ा चेहरा नहीं होगा, जो पांच साल पहले की तरह ही उसे इस वर्ग के वोट इफरात में दिला पाए.

वैसे एक सच तो ये भी है कि सियासी दलों में जब कुछ डैमेज होने  लगता है, तब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व उसे बेहद हल्के में लेते हुए नज़रअंदाज़ कर देता है. लेकिन किसी ख़ास वर्ग में ठीकठाक जनाधर रखने वाला नेता अपनी उपेक्षा से नाराज़ होकर जब पार्टी को 'गुड बॉय' कर देता है,तब नेतृत्व होश में आता है और फिर वो 'डैमेज कंट्रोल' की मशक्कत में जुट जाता है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. कुछ ऐसा ही स्वामी प्रसाद मौर्य के मामले में भी हुआ है.

बताया जा रहा है कि BJP के कुछ और विधायक भी मौर्य के संपर्क में हैं जो उन्हें कहने पर सपा में शामिल होने को तैयार बैठे हैं. बताते हैं कि एक साथ इतने विधायकों के इस्तीफे की झड़ी लगते देख हालात संभालने की कमान खुद गृह मंत्री अमित शाह ने अपने हाथ में ली और सबसे पहली ड्यूटी यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य की लगाई कि वे असहमत विधायकों और स्वामी प्रसाद मौर्य को किसी भी तरह से मनाएं कि वे बीजेपी न छोड़ें. इसके अलावा पार्टी के संगठन महासचिव सुनील बंसल और यूपी बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह को भी डैमेज कंट्रोल का जिम्मा सौंपा गया है. चूंकि बंसल बीजेपी में संघ का प्रतिनिधित्व करते हैं, लिहाज़ा नेताओं के बीच उनकी कही बात का वजन ज्यादा होता है.

स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपने इस्तीफे को लेकर किये गए ट्वीट में योगी सरकार पर जो आरोप लगाया है, वह बीजेपी के लिए चुनाव में नई मुसीबत का सबब बन सकता है और जिसके लिए अब सीएम योगी समेत तमाम बड़े नेताओं को अपनी सफाई देनी पड़ेगी. उन्होंने लिखा-" दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों एवं छोटे-लघु एवं मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की घोर उपेक्षात्मक रवैये के कारण उत्तर प्रदेश के योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देता हूं."

हालांकि कैबिनेट से इस्तीफा देने के बाद मौर्य ने दबाव की राजनीति का तीर चलाते हुए यही कहा कि वे अगले दो दिन में ये ऐलान करेंगे कि कितने मंत्री, कितने विधायक और कितने पदाधिकारी उनके साथ आ रहे हैं. मौर्य को जल्दबाजी में कोई फैसला न लेने की समझाइश देते हुए केशव मौर्य ने जो ट्वीट किया था,उसका जवाब भी मौर्य ने अपने अंदाज में देते हुए कहा कि "केशव जी को अपनी दुर्गति पर तरस आना चाहिए और उन्हें अपनी स्थिति का आकलन करना चाहिए."

इसमें भी सियासी संदेश यही छुपा है कि वे डिप्टी सीएम होने के बावजूद सरकार व संगठन में एक तरह से हाशिये पर ही हैं, लिहाज़ा वे उस हैसियत में नहीं हैं कि दलितों-पिछड़ों को टिकट दिलाने में उनकी कोई अहम भूमिका हो. दरअसल, आज ही दिल्ली में पार्टी को स्क्रीनिंग कमेटी की मीटिंग हुई जिसमें से ये खबर निकली कि पार्टी मौजूदा 45 विधायकों के टिकट काटने के मूड में है और उनमें दलित-पिछड़ों की संख्या ज्यादा है. बड़ा सवाल ये है कि इस भगदड़ को रोकने के लिए अपना अहंकार खत्म करने की पहल कौन करेगा? 

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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