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धार्मिक उग्रता से बचने के लिए देश और समाज को 'धर्म' के सकारात्मक पहलुओं को देखना होगा

वर्तमान समय में समाज में आस्था के नाम पर उग्रता बढ़ी है. रामनवमी हो या नवरात्री, रमजान हो या ईद समाज में, देश में धार्मिक उन्माद बढ़ा है. इसके पीछे कहीं न कहीं राजनीति भी शामिल है. देश में सामाजिक सौहार्द और उग्रता बढ़ी है. ऐसे में सवाल है कि इसे कैसे रोका जाए या फिर लोग इससे बचने के लिए क्या कर सकते हैं. इसके दो महत्वपूर्ण कारक काम करते हैं. एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और दूसरा यह कि लोगों में धर्म की समझ नहीं होना. जब हम भारतीय धर्म दर्शन की बात करते हैं, उसमें हम एकीकृत की बात करते हैं. यानी किसी चीज को पूर्णता में देखने की बात करते हैं. लेकिन जो बाकी धर्म हैं वो अपने आप को मानते हैं कि मेरा ही धर्म, धर्म है. लेकिन जो भारतीय दृष्टिकोण है, उसमें सभी धर्मों को समान माना गया है. लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि में जब आप पिछले 400-500 सालों को देखेंगे वहां हम पाते हैं कि जो व्यक्ति की भावना बढ़ी है, वो धर्म के प्रति नहीं है. वो उसे अपनी सुरक्षा को लेकर के है.

उसे लगता है कि उसका धर्म असुरक्षित है. आपका ये भी कहना ठीक है कि कुछ लोग उसे राजनीतिक परिदृश्य में लेते हैं. उसका इस्तेमाल कर रहे है. लेकिन अगर आप उसे मूल रूप से देखेंगे तो एक डर की भावना है. हर व्यक्ति डरा हुआ है और वह उससे बचाव करने के लिए उग्र हो जा रहा है. उसे लगता है कि मेरे धर्म पर हमला हो गया है. भारतीय दृष्टिकोण में अगर आप देखेंगे तो लोग प्रकृति को, न्याय को भी धर्म मानते हैं. जैसे चाकू का अपना धर्म है, पानी का अपना धर्म है, अग्नि का अपना धर्म है. लेकिन जब आप बौद्ध से लेकर इस्लाम तक के 1000 वर्ष के इस कालखंड को देखते हैं तो लोगों ने धर्म की परिभाषा को बदल दिया. भारतीय दृष्टि धर्म प्रकृति है. जैसे मेरी अपनी प्रकृति है मूल स्वभाव, पानी का स्वभाव है कि वह अपने तापमान को ग्रहण कर ले. लेकिन अभी हम लोग धर्म को समझ नहीं पाते है. जब समझ नहीं पाते हैं तो जो धार्मिक प्रयोग है वो हम कर नहीं पाते हैं.  

दूसरी बात यह है कि हम जिस धर्म की बात करते हैं, वो नकारात्मकता की तरफ चली जाती है. वे लोग सोचते हैं कि यही धर्म है. जैसे पूजा-पाठ और कर्मकांड को लोग धर्म समझते हैं. योग को लोग धर्म समझते हैं, जबकि योग का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन कुछ लोग ये मानते हैं कि योग एक धार्मिक क्रिया है. आपको याद होगा कि पिछले 4-5 सालों में योग को जब अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली और राष्ट्रीय स्तर पर इसे अपने दिनचर्या में शामिल करने की बात कही जाने लगी. लोगों से कहा गया कि वे सूर्य नमस्कार करें, प्राणायाम करें. लोगों ने कहा कि इसके जरिए धर्म को बढ़ावा दिया जा रहा है. लेकिन ऐसा नहीं है. उदाहरण के तौर पर जैसे आज इंग्लिश मिडियम में लोग बात करते हैं और इसी तरह से एक समय में भारतवर्ष की भाषा विशुद्ध थी. योग हो, ज्योतिष हो या फिर विज्ञान सभी को साहित्यिक भाषा में लिखा गया. ये एक पक्ष है. अब जब लोगों के अंदर धर्म के प्रति विश्वास नहीं है, उन्हें डर लगता है.

अभी जब हम भारत में पिछले 8-10 चुनावों को देखते हैं या कहे कि 1950 के दशक के बाद से धर्म का प्रयोग राजनीति करने में हुआ है. लोगों को धर्म की भावनाएं तभी समझ में आती हैं जब चुनाव आता है. ऐसा क्यों होता है, इसे जानने और समझने की भी जरूरत है. अंग्रेजी में एक कहावत है 'बर्निंग एंड चर्निंग प्रॉब्लम', यानी धर्म एक ऐसा पहलू है जिसे आप भुना सकते हैं. एक विचारधारा ने उसको अपने लिए इस्तेमाल किया. उसने यह डर दिखाया कि अगर ये सत्ता में आ गये तो तुम्हारा नुकसान होगा. दूसरे ने भी यही काम किया, उसने कहा कि अगर तुम खड़े नहीं होगे तो हम तुमको कुचल देंगे. अभी के परिप्रेक्ष्य में यह हुआ कि लोगों में भय है और वे उग्र हो जा रहे हैं और दूसरा पक्ष ये है कि वे धर्म को अच्छे से जान नहीं रहे हैं.

धर्म के बहुत सारे सकारात्मक पक्ष हैं. समाज की रक्षा करना, परिवार की रक्षा करना, प्रकृति की रक्षा करना ये सारे धार्मिक कार्य है. मंदिर में सिर्फ शंकर भगवान पर जल चढ़ाना ही काम नहीं है. अगर आप पौराणिक समय में गुरुकुल के सिस्टम को देखेंगे तो पाएंगे कि मंदिरों से बहुत तरह के सामाजिक कार्य होते रहे हैं. पूरे भारतवर्ष में कई मंदिर हैं जो चिकित्सालय चला रहे हैं, संस्कार देने का काम कर रहे हैं. हमें उसके सकारात्मक चीजों पर फोकस करना होगा. इससे हमें आत्मिक व मानसिक शांति मिलेगी. आदमी के अंदर विश्वास की भावना प्रबल होगी. राजनीति में धर्म का प्रयोग नहीं होना चाहिए. राजनीति का अपना एक धर्म है ये अलग बात है. लेकिन किसी धर्म में राजनीति हो ये ठीक बात नहीं है. हम किसी चीज को जीरो नहीं कर सकते हैं. धर्मनिरपेक्षता का मतलब जो लोगों ने फैलाया वो ये कि किसी एक धर्म-विशेष को गाली देना. लेकिन ये तो ठीक नहीं है. इसका मतलब ये भी तो हो सकता है कि हम सभी धर्मों को बराबर देखें. सभी धर्मों का आदर करना. अभी राजनीति में क्या हो रही है कि धर्म शब्द की गलत व्याख्या कर दी जा रही है. तात्कालिक घटनाक्रम पर नजर डालें तो क्या हुआ.

रामचरितमानस को जलाने की घटना हुई. लेकिन यह सवाल है कि ये घटनाएं बार-बार हिन्दू धर्म पर ही क्यों होती है. विज्ञान की तुलना वेदों से ही क्यों की जाती है और धर्मों के साथ क्यों नहीं हो रहा. आप किसी भी किताब को धर्म से जोड़ देते हैं. जबकि वेद, उपनिषद, योग इन सब का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन भारत में ऋषियों-आचार्यों और गुरुकुल की एक परंपरा रही है, जिसने कई तरह की शिक्षाएं दी है. धर्म की व्याख्या करते समय राजनीतिज्ञों को इस पर मौन रहना चाहिए और जो लोग इसे नहीं जानते हैं. उन्हें नहीं बोलना चाहिए. 

[ये आर्टिकल निजी विचार पर आधारित है]

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