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"हिन्द की चादर" वाले गुरु की याद के बहाने आज क्या संदेश देंगे पीएम मोदी?

देश के राजनीतिक और धार्मिक इतिहास में आज की तारीख़ इसलिये भी दर्ज होगी कि दस साल तक देश के प्रधानमंत्री पद पर रहे एक सिख को जो प्रेरणा नहीं मिल पाई,उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज अंजाम दे रहे हैं. वे उस ऐतिहासिक लाल किला से आज 'हिन्द की चादर' को याद करते हुए देश को ये बताने वाले हैं कि 400 साल पहले सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेगबहादुर ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए जो कुर्बानी दी थी, उसका मुकाबला करना तो छोड़िये, उसकी कल्पना करके ही हर इन्सान की रूह कांप जाएगी.

आधुनिक इतिहास में ये इकलौती ऐसी मिसाल है,जहां हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम न कबूलने के एवज़ में मुगल बादशाह औरंगजेब ने एक धर्मगुरु का सिर ही कलम कर दिया हो.इसलिये पीएम मोदी आज देर शाम जिस लाल किला से हिन्दू धर्म को बचाने के लिए देश को ऐसी अनोखी कुर्बानी का मतलब समझा रहे होंगे,तब उससे महज़ चार सौ मीटर की दूरी पर चांदनी चौक के उसी ऐतिहासिक शीशगंज गुरुद्वारे में कीर्तन-रागी गुरबाणी का ये शबद गा रहे होंगे--

"जे तउ प्रेम खेलण का चाउ।

सिर धर तली गली मेरी आउ।।

इत मारग पैर धरो जै।

सिर दीजै कणि न कीजै।।"

लेकिन जो लोग करोड़ों रुपये कमाने वाली फ़िल्म 'कश्मीरी फाइल्स' देखकर फूले नहीं समा रहे, तो उन्हें ये बताना भी जरुरी है कि वे इतिहास के असली सच से वाकिफ़ नहीं हैं.वे गुरु तेगबहादुर ही थे,जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के गले से जनेयु न उतरे,उसके लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया.उसके बाद जो कुछ भी हुआ,उसे मज़हबी जुनून और सियासत का हिस्सा ही माना जायेगा लेकिन कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के उस दौर में भी उनके मुकाबले की शहादत देने वाला कोई और दूसरा नाम हो ,तो बताइये.

कम लोग जानते होंगे कि एक अप्रैल 1621 को माता नानकी की कोख से पैदा हुए गुरु तेग बहादुर का बचपन का नाम त्यागमल था.सिख इतिहास के मुताबिक महज़ 14 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में ऐसी बहादुरी दिखाई कि उससे प्रभावित होकर उनके पिता ने ही उनका नाम ‘तेग बहादुर’ यानी ‘तलवार का धनी’ रखा था. सिखों के 8वें गुरु श्री हरिकृष्ण राय  बेहद कम उम्र में ही ज्योति जोत समा गए थे लेकिन उससे पहले वे उस जमाने में दिल्ली में फैले हैजे को खत्म करने के लिए उस सरोवर के जल से ऐसा अचूक कर गए,जो आज भी बंगला साहिब गुरुद्वारे में मौजूद है.हजारों लोगों की आस्था आज भी उस सरोवर के जल से जुड़ी है,जो मानते हैं कि उनकी छोटी/मोटी बीमारी का उपचार उसी जल से ही होता है.

गुरुनानक देव जी की नौंवी गद्दी को जब तेग बहादुर जी ने संभाला, तो उन्होंने नानक के ही उस एकमात्र दर्शन को अपनाया कि जीवन का प्रथम मार्ग सिर्फ़ धर्म  सत्य और विजय का मार्ग है.इसे भी संयोग हो समझा जायेगा कि गुरु नानक के बाद गुरु तेग बहादुर ही ऐसे गुरु थे, जिन्होंने पंजाब से बाहर सर्वाधिक उदासियाँ यानी लोगों को पाखंड के जंजाल से मुक्त करने और जागरुक बनाने के लिए यात्राएं कीं.

इतिहास के मुताबिक औरंगजेब के राज के दौरान धार्मिक कट्टरता और निर्ममता के साथ ही हर तरफ जुल्म का साम्राज्य था और खून की नदियां बहाकर लोगों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया जा रहा था.औरंगजेब ने ये भी फरमान दिया था कि राजकीय कार्यों में किसी भी उच्च पद पर किसी हिंदू की नियुक्ति न की जाए और हिंदुओं पर‘जजिया’ (कर) लगा दिया जाए.उसके बाद हिंदुओं पर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला हो गया.अनेक मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिदें बनवा दी गईं और मंदिरों के पुजारियों, साधु-संतों की हत्या की गईं.हालांकि पिछले चार सौ साल में देश के नामी मुस्लिम स्कालरों ने भी इसे नहीं झुठलाया है,लिहाज़ा इसे उस दौर की एक कड़वी हकीकत के रुप में ही देखा जाता है.

औरंगजेब के अत्याचारों के उसी दौर में कश्मीर के कुछ पंडित मदद की आस लेकर गुरु तेग बहादुर जी के पास पहुंचे और उन्हें अपने ऊपर हो रहे जुल्मों की दास्तान सुनाते हुए कहा कि उनके पास अब दो ही रास्ते बचे हैं कि या तो वे मुस्लिम बन जाएं या अपना सिर कटाएं.उनकी पीड़ा सुन गुरु जी ने ससरल भाषा इन समझाने की कोशिश बाकी थी कि " सदा हमारे साथ रहने वाला परमात्मा ही हमें वह शक्ति देगा कि हम निर्भय होकर अन्याय का सामना कर सकें.

एक जीवन की आहुति अनेक जीवनों को इस रास्ते पर लाएगी. लोगों को ज्यादा समझ नहीं आया तो उन्होंने पूछा कि उन्हें इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए ? तब गुरु जी ने मुस्कराते हुए कहा था, ‘‘तुम लोग बादशाह से जाकर कहो कि हमारा पीर तेग बहादुर है, अगर वह मुसलमान हो जाए तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे’

22 नवंबर, 1675 की तारीख़ गवाह है,जब औरंगजेब के आदेश पर काजी ने गुरु तेग बहादुर से कहा, ‘‘हिंदुओं के पीर! तुम्हारे सामने तीन ही रास्ते हैं, पहला, इस्लाम कबूल कर लो, दूसरा, करामात दिखाओ और तीसरा, मरने के लिए तैयार हो जाओ. इन तीनों में से तुम्हें कोई एक रास्ता चुनना है.’ वे न जुल्म के आगे झुके और न ही किसी बादशाहियत के तलवे चाटे लेकिन तीसरा और आखिरी रास्ता चुना. आक्रांता औरंगज़ेब के आदेश पर जहां उनका सिर कलम किया गया था, उसी स्थान पर आज गुरुद्वारा शीशगंज है,जहां से अगर नीयत साफ हो ,तो लोंग नौ निधियां पाने के खुशनसीब भी बन जाते हैं.

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ओपिनियन

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