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'वन नेशन वन इलेक्शन' BJP की पुरानी डिमांड, आडवाणी ने भी की थी पैरवी, लेकिन हैं कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियां

सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र आहूत किया है. इसके साथ ही 'एक देश, एक चुनाव' के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय कमिटी भी बना दी गयी है. कयास लगाए जा रहे हैं कि विशेष सत्र में वन नेशन, वन इलेक्शन से संबंधित बिल भी पेश किया जा सकता है. हालांकि, देश में इस पर भी बहस शुरू हो गयी है कि क्या यह संभव है? इसके पीछे की चुनौतियों और संभावनाओं पर भी लोग पक्ष-विपक्ष में लामबंद हो गए हैं. तमाम तरह के तर्क इसके पक्ष-विपक्ष में पेश किए जा रहे हैं.  

चुनाव एक साथ होने के फायदे

वन नेशन-वन इलेक्शन के लिए सात सदस्यों की एक कमिटी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जी की अध्यक्षता में बना दी गयी है. 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र भी आहूत है. संभावना है कि इस सत्र में ऐसा कुछ बिल आ सकता है. ये जो मांग है, बीजेपी की बहुत पुरानी मांग है. वे कई साल से इसको अपने मेनिफेस्टो में भी कहते आए हैं और शुरू में तो आडवाणी जी ने इसे प्रोपेगेट किया था. लॉ कमीशन ने भी इसकी सिफारिश की है. स्टैंडिंग कमिटी और नीति आयोग ने भी इससे सहमति जतायी है. बीजेपी इसके कई फायदे भी बताती है. सबसे बड़ा फायदा वह बताते हैं कि भारतीय लोकतंत्र तकरीबन हमेशा ही इलेक्शन मोड में रहता है. इससे गवर्नेंस का काम प्रभावित होता है. स्थायित्व नहीं रहता, निरंतरता नहीं रहती, चुनावों का खर्चा बहुत अधिक होता है. इकट्ठे चुनाव कराने से खर्च भी कम होगा. सेक्योरिटी डेपोजिट भी कम लगेगा. बीआरएस, अकाली दल, सपा जैसे दल भी इसके सपोर्ट में है. बीजेपी गवर्नमेंट चाहती है कि जो इलेक्शन 2024 में होनेवाले हैं तो इसके साथ जो 10-12 चुनाव होने हैं, वह कम से कम साथ हो जाएं. दूसरे देशों जैसे दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, फिलीपींस, ब्राजील, कोलंबिया, ग्वाटेमाला, होंडुरास इत्यादि में हालांकि प्रेसिडेंशिय फॉर्म है गवर्नेंस का, लेकिन असेंबली के और लोकल इलेक्शन भी इकट्ठे ही होते हैं, ताकि खर्चा बच जाए. भारत में भी शुरू में चार जो चुनाव हुए थे, -1952, 1957, 1962, 1967 तक- वे इकट्ठे ही हुए थे. बीजेपी के मेनिफेस्टों में भी यह है. शुरू में जैसे ये होते थे, उसी तरह यह सरकार वापस यही करना चाह रही है. 

बहुत बड़ी है चुनौतियां

नुकसान से पहले यह समझना होगा कि यह किस तरह का 'हरकुलियन टास्क' है. कम से कम पांच संविधान संशोधन की तो जरूरत पड़ेगी. आर्टिकल 83, 172, 174, 85 और 356 है, जिसे संशोधित करना होगा. अब वे सरकारें जिनका टेन्योर बाकी है, उनको अगर समय से पहले डिजॉल्व करना है, तो आर्टिकल 356 में जो प्रेसिडेंट रूल लगता है, या एंटी-डिफेक्शन लॉ है, या जब कॉलिशन गवर्नमेंट हैं, जो दो-तीन साल में खत्म हो जाएगा, या मान लीजिए अभी जैसे कर्नाटक या हिमाचल में चुनाव हुए हैं, तो उसे डिजॉल्व कैसे करेंगे, ये सारी बातें सोचनी पड़ेंगी. ये दिक्कतें हैं. फेडरल स्ट्रक्चर में तो दिक्कत नहीं आ रही है, बेसिक जो स्ट्रक्चर है संविधान का, वह तो बदल नहीं सकता और उसमें तो कांस्टीट्यूशन सुप्रीम है.

मौलिक अधिकारों पर तो बात हो सकती है, लेकिन संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर में तो संशोधन नहीं हो सकता है, ये भी एक बात है. अब इसमें जो लोकतांत्रिक सरकार है, संघीय ढांचा है, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा है, वह सब कैसे करेंगे, इन चीजों पर विचार करना होगा. इसके अलावा ये तो पहला संविधान-संशोधन है. लोकसभा में तो दो-तिहाई बहुमत है इनके पास, लेकिन राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत जुटाने में इनको दिक्कत होगी. इसके साथ ही मौजूदा सरकार को मौजूदा 28 राज्यों में से कम से कम 14 राज्यों से इसको पारित करवाना होगा. जो इसके खिलाफ हैं, वे कहते हैं कि वन-पार्टी रूल है, तब तो ये ठीक है, क्योंकि शुरू के चार चुनावों में कोई दिक्कत नहीं आएगी. अब मान लीजिए कि बीजेपी पार्टी है. उनको लगता है कि यह सही समय है. वह सोचते हैं कि इस वक्त अगर ये बात हो जाए, तो ठीक है, गठबंधन सरकार का चांस कम रहेगा. अगर गठबंधन है तो भी दलबदल कानून को कैसे लागू किया जाएगा? क्योंकि, कानून के बावजूद तो पार्टियां टूट रही हैं. महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना दोनों टूटी. इस माहौल में गवर्नेंस कैसे होगा

सहमति बनानी होगी मुश्किल

दस पार्टियां तो इसके बिल्कुल खिलाफ हैं. वे तो कहते हैं कि यह मूव ही लोकतंत्र के खिलाफ है. जितनी भी विधानसभाएं हैं, उन सभी 28 को भंग करना पड़ेगा. स्टेट और सेंटर को अगर एक करना है, तो दूसरी पार्टियां जिनकी सरकार अभी बनी हैं, वे भंग करने को राजी नहीं होंगे और यही तनाव है. एनडीए की कुल मिलाकर 15 राज्यों में अगर सरकार है, तो वो अगर करना चाहें तो राज्यों से भी करवा लें, लेकिन इसके बावजूद दिक्कतें कम नहीं होंगी. उतने सारे ईवीएम भी चाहिए, जो इनके पास अभी हैं नहीं. वीपैट मशीन नहीं है, स्टाफ नहीं है. अलग-अलग चुनाव में तो स्टाफ भी बंट जाता है, संसाधन भी, लेकिन एक दफे सुरक्षा, मशीनों का इंतजाम वगैरह ऐसे कारण हैं, जो खासी चुनौती वाले हैं. अब इतना खर्च करने का पहले सरकार को काम करना होगा. बीजेपी को 2024 में फिर से जीतने की भी उम्मीद है, तो यह पारित तो हो सकता है. राज्यसभा में हो सकता है, दिक्कत हो, लेकिन वहां भी 'मोदी है, तो मुमकिन है' की तर्ज पर उसका भी कुछ को अनुपस्थित कराकर सरकार जीत सकती है. नयी पार्लियामेंट के अंदर जो नया सेशन हो रहा है, मोदी कोशिश करेंगे कि जितनी भी दिक्कतें हैं, उन पर काबू पा लें और एमेंडमेंट हो जाए. कमिटी में संसदीय मामलों के माहिर लोग हैं औऱ वे उस पर कुछ अपनी सिफारिशें भी देंगे, ताकि आगे का काम हो सके. 

संभव तो है एक देश, एक चुनाव

मैं मानता हूं कि वन नेशन, वन इलेक्शन संभव है. कारण यह है कि कोलिशन गवर्नमेंट को अगर दलबदल से बचा लिया जाए, बस दो लाइन का कानून बने कि कोई भी जीता हुआ व्यक्ति अगर अपनी पार्टी छोड़ता है तो उसकी सदस्यता चली जाएगी, एक बार सरकार बनने के बाद दलबदल कानून सख्त हो जाए, बाकी गतिरोधों को कमिटी अगर निपटा ले जाती है, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि स्थिरता और परमानेंट इलेक्शन मोड से बचने के लिए यही उपाय कारगर है. तो, पहले दो साल में सरकारें भूमिका बनाए औऱ आखिरी दो साल बताएं कि उन्होंने क्या काम किया है? सैद्धांतिक तौर पर तो मैं मानता हूं कि इससे बहुत सारी बीमारियां मिट जाएंगी. अच्छी तरह अगर इसे लागू किया जाए, तो इसके फायदे तो बहुत हैं. चुनाव बहुत खर्चीले हो गए हैं और इसीलिए सरकार को विशेष सावधानी से काम करना है. अभी एक दोस्त ने बताया कि वह चाहे पटना हो या मोकामा, सब जगह एक ही हाल है. फायदे तो बहुतेरे हैं, चाहे वह धन कम खर्च होने या प्रशासनिक मशीनरी की संलग्नता का हिसाब करेंगे. सरकार की तो पोजिशन है, वह तो है ही, बाकी चुनाव पर लगातार पैसा खर्च करने से बचा जाए, बस यही वक्त का तकाजा है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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