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मध्य प्रदेश में कमलनाथ से कमल को खतरा या फिर शिवराज सिंह चौहान बनेंगे पांचवीं बार मुख्यमंत्री, कांटे का रहेगा मुकाबला

इस साल कुल 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होना था. उनमें से त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और कर्नाटक में चुनाव हो चुका है. आने वाले महीनों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव होना है. इन राज्यों में विधानसभा सीटों के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य मध्य प्रदेश है, जहां कुल 230 सीटें हैं. इस लिहाज से मध्य प्रदेश चुनाव का महत्व काफी ज्यादा है. मध्य प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 6 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है. ऐसे में नवंबर-दिसंबर में यहां विधानसभा चुनाव हो सकता है.

फिलहाल मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार है. बीच में 15 महीने छोड़ दें तो दिसंबर 2003 से मध्य प्रदेश में बीजेपी का शासन है. इस बीच में सिर्फ 15 महीने (17 दिसंबर 2018 से 23 मार्च 2020 तक)  कांग्रेस यहां सत्ता में रही है. इसका साफ मतलब है कि कांग्रेस 2003 से मध्य प्रदेश में पूर्ण कार्यकाल के हिसाब से सत्ता के लिए तरस रही है. 

दिसंबर 2003 से बीजेपी और शिवराज का है दबदबा

दिसंबर 2003 से अब तक का जो समय है, उसमें बीजेपी के वरिष्ठ नेता शिवराज सिंह चौहान 16 साल मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं. इस बार का विधानसभा चुनाव जीतकर शिवराज सिंह चौहान की नज़र पांचवीं बार प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने पर है. वहीं कांग्रेस अपने पुराने गढ़ को फिर से हासिल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है.

प्रदेश पार्टी अध्यक्ष कमलनाथ और 10 साल तक प्रदेश का मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह कांग्रेस को फिर से सत्ता में वापसी के लिए रणनीति को अंजाम देने में जुटे हैं. हालांकि शिवराज सिंह चौहान के अनुभव और कद को देखते हुए उन दोनों के लिए ये काम इतना आसान भी नहीं है.

वादों के जरिए चुनाव से पहले ही जंग है जारी

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है, बीजेपी और कांग्रेस...दोनों के लिए पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बांधने रखने की चुनौती है. इसके साथ ही प्रदेश की जनता के बीच अपने-अपने दावों को मजबूत करने के लिए दोनों ही दलों की ओर से अभी से ही वादों और लोकलुभावन योजनाओं की बौछार की जाने लगी है. इस मामले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो भी योजना ला रहे हैं, कांग्रेस एक कदम बढ़कर उन योजनाओं को और विस्तार से लागू करने का वादा कर रही है.

'तू डाल-डाल मैं पात-पात' की तर्ज पर घोषणा

जैसे शिवराज सिंह चौहान ने इस साल जनवरी में मुख्यमंत्री लाड़ली बहना योजना लागू करने की घोषणा की, जिसके तहत महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपये देने का प्रावधान किया गया. इसके जवाब में कांग्रेस ने सरकार बनने पर नारी सम्मान योजना लाने का वाद कर दिया और इस योजना के तहत महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये देने का ऐलान किया है. नारी सम्मान योजना के लिए कांग्रेस घर-घर जाकर फॉर्म भी भरवा रही है.

युवाओं को लुभाने के लिए सीएम शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री युवा कौशल कमाई योजना लागू करने वादा किया है. साथ ही गरीबों को मुफ्त जमीन का टुकड़ा देने का वादा, सरकारी स्कूलों में 12वीं में टॉप करने वाले छात्रों को स्कूटी देने का वादा, सीएम तीर्थ दर्शन योजना से प्रदेश के अलग-अलग वर्गों को लुभाने की कोशिश में बीजेपी सरकार जुटी है.

बीजेपी की तरह ही कांग्रेस ने भी अलग-अलग वर्ग को लुभाने के लिए कई घोषणाएं की है. इनमें 100 यूनिट तक बिजली बिल माफ और 200 यूनिट तक आधा बिजली बिल, 500 रुपये प्रति गैस सिलेंडर, पुरानी पेंशन स्कीम लागू करना और किसानों की कर्जमाफी का वादा कर रही है.

दोनों दलों के बीच वादों और योजनाओं की घोषणा करने की होड़ मची हुई है. शिवराज सिंह चौहान सरकार प्रदेश में नई-नई योजनाओं की घोषणा कर रही है, तो कांग्रेस सत्ता में नहीं रहने के बावजूद इस तरह से वादा करने में जुटी है, जैसे उसकी सरकार बनना तय है. एक तरह से दोनों दलों में 'तू डाल-डाल मैं पात-पात' की तर्ज पर चुनाव से पहले ही एक-दूसरे को पटकनी देने की कोशिश की जा रही है. बीजेपी सरकार घोषणा करती है, उसके फौरन बाद कांग्रेस की ओर से उसी तरह की योजना को ज्यादा फायदे के साथ लागू करने का ऐलान कर दिया जाता है. 

'मुफ्त की रेवड़ियां', किसका है फायदा?

दोनों ही दलों की ओर से मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के प्रयासों की आलोचना भी हो रही है. आर्थिक जानकारों का मानना है कि पहले से ही मध्य प्रदेश पर 3 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है और अब इन वादों से प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर और बोझ बढ़ेगा. हालांकि इसका एक दूसरा भी पहलू है. ऐसे वादों से प्रदेश के लोगों को कम से कम बुनियादी जरूरतों से जुड़ी चीजें या तो सस्ते में मिल जाती हैं या फिर फ्री में मिल जाती हैं. जिस पार्टी की भी सरकार होती है, वो सरकारी खजाने से ही इन वादों को लागू करती है और सरकारी खजाना एक तरह से प्रदेश की जनता का ही होता है. इन वादों से उस खजाने से कम से कम प्रदेश के कमजोर, वंचित और गरीब वर्गों तक सीधे आर्थिक लाभ तो पहुंच जाता है.

आरक्षित सीटों पर कांग्रेस को बढ़त

जहां तक रही बात मध्य प्रदेश की सत्ता की तो दरअसल बीजेपी के लिए राज्य में आरक्षित सीटों पर कांग्रेस से बढ़त बनाना इस बार की सबसे बड़ी चुनौती है. अगर शिवराज सिंह चौहान चाहते हैं कि उनका पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने का सपना साकार हो, तो उन्हें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर पकड़ बढ़ानी होगी. मध्य प्रदेश में कुल 230 में से 82 सीटें आरक्षित हैं. इनमें 35 सीटें एससी और 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. 2018 में बीजेपी को इन 82 में से सिर्फ 27 सीटों पर जीत मिली थी, जबकि 2013 में 53 सीटों पर बीजेपी जीती थी. अगर मध्य प्रदेश में बीजेपी को सत्ता बरकरार रखनी है तो इन आरक्षित सीटों पर 2013 वाला प्रदर्शन दोहराना होगा.

महिला मतदाताओं पर दोनों दलों का फोकस

अभी दोनों ही पार्टियों का पूरा ज़ोर मध्य प्रदेश की महिला मतदाताओं को अपने पाले में करने पर लगा हुआ है. मध्य प्रदेश में कुल 5.40 करोड़ से ज्यादा मतदाता हैं. इनमें महिला मतदाताओं की संख्या 2.60 करोड़ से ज्यादा और पुरुष मतदाताओं की संख्या 2.80 करोड़ से ज्यादा है. ऐसे तो हर सीट पर महिला वोटरों की अहमियत है, लेकिन एमपी में कई ऐसी सीटें हैं, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा है. जिन 15 से ज्यादा सीटों पर महिला वोटरों की संख्या ज्यादा है, उनमें ज्यादातर सीटें आदिवासी बहुल इलाकों में हैं. ये सीटें बैहर, जोबट,कुक्षी, पेटलावद, थांदला, बालाघाट, अलीराजपुर, पानसेमल, परसवाड़ा, वारासिवनी, डिंडोरी, निवास और मंडला हैं.

2018 के मुकाबले परिस्थितियां बदली हुई हैं

शिवराज सिंह चौहान के लिए इस बार 2018 के मुकाबले परिस्थितियां बदली हुई है. एक समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेताओं में गिने जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया अब बीजेपी में हैं. इससे बीजेपी ताकत बढ़ी को जरूर है, लेकिन दूसरे नजरिए से इससे शिवराज सिंह चौहान के लिए मुश्किलें भी बढ़ी है. फिलहाल नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मार्च 2020 में कांग्रेस को छोड़ बीजेपी का दामन थाम लिया. उनके साथ ही  कांग्रेस के मौजूदा 22 विधायकों ने भी इस्तीफा देते हुए पार्टी छोड़ दी थी. इसके बाद मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में फिर से बीजेपी की सरकार बन गई और शिवराज सिंह चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बने.

सिंधिया गुट से टिकट पर हो सकती है तनातनी

अब इस बार ज्योतिरादित्य गुट के विधायकों और नेताओं को टिकट देने को लेकर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व और शिवराज सिंह चौहान के बीच तनातनी देखने को मिल सकती है. शिवराज सिंह चौहान की भरपूर कोशिश होगी कि सिंधिया समर्थक उन नेताओं को टिकट न मिले, जो मार्च 2020 के बाद हुए उपचुनाव में हार गए हों. इसके अलावा भी शिवराज चाहेंगे कि ज्योतिरादित्य उस स्थिति में न पहुंच जाएं , जिससे नतीजों के बाद उनके ऊपर खतरा मंडराने लगे. वहीं ज्योतिरादित्य किसी भी कीमत पर अपने सभी समर्थक विधायकों को टिकट दिलवाने की कोशिश करेंगे. फिलहाल बीजेपी में 18 एमएलए ऐसे हैं, जो कांग्रेस से इस्तीफा देकर बाद में चुनाव जीते थे. इसके अलावा नौ सीटों पर कांग्रेस से आए और चुनाव हारने वाले नेता भी टिकट की दावेदारी करेंगे. मध्य प्रदेश में आने वाले दिनों में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को इन चुनौतियों से निपटना होगा.

शिवराज के खिलाफ पनपता बगावती तेवर

इसके साथ ही बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के सामने ये भी चुनौती होगी कि शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में लंबे वक्त से मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी निभा रहे हैं. ऐसे में प्रदेश में पार्टी का एक धड़ा नए नेतृत्व के लिए भी चुनाव से पहले शीर्ष नेतृत्व पर दबाव डाल सकता है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है, बीजेपी में नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच से बगावती तेवर दिखने लगा है. इनमें रघुनंदन शर्मा, पूर्व विधायक सत्यनारायण सत्तन, पूर्व सांसद अनूप मिश्र, पूर्व विधायक भंवर सिंह शेखावत, मुकेश जैन और उमा भारती जैसे नेता शामिल हैं.

कुछ नेता बीजेपी छोड़कर बाहर भी जा चुके हैं. इनमें पूर्व मुख्यमंत्री और जनसंघ संस्थापकों में से एक कैलाश जोशी के बेटे और तीन बार एमएलए रह चुके दीपक जोशी कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं. दीपक जोशी खुलेआम शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ आग उगल रहे हैं. ऐसे में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को एंटी इनकंबेंसी के साथ ही पार्टी के भीतर शिवराज सिंह चौहान को लेकर पनप बगावती तेवरों से भी निपटना होगा. हालांकि कैडर और विचारधारा आधारित पार्टी होने की वजह से बीजेपी को आंतरिक गुटबाजी और कुछ नेताओं के पार्टी छोड़ने से ज्यादा नुकसान की संभावना नहीं है.

मंझे हुए नेता हैं शिवराज सिंह चौहान

अपने खिलाफ पनपते बगावती तेवर और सिंधिया गुट के समर्थकों को टिकट देने का मुद्दा शिवराज सिंह चौहान के लिए भी चिंता का विषय है. हालांकि शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश के बड़े ही सधे और मंझे हुए राजनीतिक खिलाड़ी हैं. जिस तरह से उन्होंने नवंबर 2005 से प्रदेश की राजनीति और सत्ता पर कब्जा जमाया हुआ है, उसको देखते हुए ये कहा जा सकता है कि शिवराज सिंह चौहान हर तरह के बगावती तेवर और सामने आने वाली परेशानियों से निकलने का हुनर बखूबी जानते हैं.

किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे हैं शिवराज

शिवराज सिंह चौहान की सबसे बड़ी ताकत ये है कि वे प्रदेश के किसानों के बीच काफी लोकप्रिय नेता रहे हैं.  शिवराज सिंह चौहान ने अपने चुनावी जीत का सफर 1990 से शुरू किया था, जब वे सिर्फ 31 साल की उम्र में पहली बार बुधनी विधानसभा सीट से चुनाव जीत विधायक बने थे. फिर मध्य प्रदेश में बीजेपी की ओर से पहली बार मुख्यमंत्री बने सुंदरलाल पटवा के कहने पर वे 1991 में विदिशा से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा और सांसद बने. शिवराज सिंह चौहान यहां से 1996, 1998, 1999 और 2004 में भी लोकसभा चुनाव जीता. अपने पूरे राजनीतिक करियर में शिवराज सिंह चौहान महज़ एक बार 2003 में राघोगढ़ विधानसभा सीट से दिग्विजय सिंह से चुनाव हारे हैं.

किसानों के बीच लोकप्रिय होने का कारण ये भी रहा है कि जब शिवराज सिंह चौहान नवंबर 2005 से लेकर दिसंबर 2018 तक लगातार 13 साल  मुख्यमंत्री रहे थे तो इस बीच उन्होंने मध्य प्रदेश की खेती में सुधार और किसानों के लिए काफी काम किया था. उनके ही प्रयासों का नतीजा था कि देश के कृषि उत्पादन में एमपी का योगदान 5% था, जो 2014 में बढ़कर 8% हो गया. पहले एमपी दलहन के लिए जाना जाता था, अब गेहूं का भी भरपूर उत्पादन होता है. 2018 से पहले शिवराज सिंह चौहान ने कृषि बाजारों के विकास पर भी अच्छा-खासा काम किया था.

हिन्दुत्व के एजेंडे को बढ़ाने वाले नेता

शिवराज सिंह चौहान की पहचान एक विनम्र छवि वाले नेता के तौर पर भी रही है. पहले वे बड़े ही शांत तरीके से हिन्दुत्व के एजेंडे पर काम करने वाले नेता के तौर पर जाने जाते थे. हालांकि पिछले एक-दो साल से अब वे खुलकर इस एजेंडे पर बोलते दिखते हैं. ओबीसी वर्ग के बीच भी शिवराज सिंह चौहान काफी फेमस हैं. वे खु़द ही किरार जाति से आते हैं, जो एमपी में ओबीसी कैटेगरी में आता है.   

शिवराज की तोड़ बन सकते हैं कमलनाथ!

उधर कांग्रेस कमलनाथ की अगुवाई में पिछले कुछ साल से मध्य प्रदेश में खोई जमीन को हासिल करने के लिए जुटी है. कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश में सबसे अच्छी बात ये रही है कि मार्च 2020 में सरकार और मुख्यमंत्री पद खोने के बाद भी कमलनाथ उसी समय से पार्टी को मजबूत करने में दिन-रात एक किए हुए हैं. कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में सत्ता से बाहर होने के बावजूद उत्साह में कमी नहीं आई है.

ऐसे तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर से राज्य में मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के जाने के बाद कांग्रेस के पास इस पद के लिए कमलनाथ से बेहतर कोई और विकल्प नहीं हो सकता है. पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह पहले ही इस रेस से बाहर हैं. कमलनाथ दिसंबर 2018 से मार्च 2020 तक मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और इसके अलावा वे छिंदवाड़ा से 9 बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं.

कमलनाथ को आंतरिक गुटबाजी का कम खतरा

सिंधिया के कांग्रेस से पल्ला झाड़ने के बाद कमलनाथ के लिए आंतरिक गुटबाजी का भी बड़ा खतरा जाता रहा है. कुछ लोग भले ही मान सकते हैं कि दिग्विजय सिंह का खेमा कमलनाथ से अलग है, लेकिन इसके बावजूद कमलनाथ के लिए दिग्विजय सिंह कमजोरी नहीं बल्कि ताकत ही बनकर रहेंगे. इसकी बानगी पिछले विधानसभा चुनाव में  देख भी चुके हैं कि दिग्विजय सिंह ने किस तरह से राज्य में नर्मदा यात्रा के जरिए कांग्रेस का जनाधार बढ़ाया था और उसी वजह से पार्टी बहुमत से महज़ 2 सीट दूर रही थी. इस बार भी दिग्विजय सिंह कांग्रेस के लिए वैसा ही मेहनत करते दिख रहे हैं. हालांकि अपने खेमे के लोगों को टिकट दिलाने के मसले पर उनका कमलनाथ से कुछ टकराव हो सकता है.

हिन्दुत्व का भी तोड़ निकाल रहे हैं कमलनाथ

कमलनाथ, शिवराज सिंह चौहान के वादों और योजनाओं का तो तोड़ निकाल ही रहे हैं, साथ ही हिंदुत्व के मसले पर भी कमलनाथ चाहते हैं कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस पीछे नजर न आए. इसी के तहत कमलनाथ ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी में कई अन्य प्रकोष्ठ के साथ ही पुजारी प्रकोष्ठ, मठ मंदिर प्रकोष्ठ और धार्मिक उत्सव प्रकोष्ठ भी बनाया है.  कर्नाटक में जीत के बाद एम में कई ऐसे पोस्चर दिखे जिसमें कमलनाथ की तस्वीर के साथ लिखा था कि 'हनुमान भक्त कांग्रेस पार्टी को मिला आशीर्वाद कर्नाटक में.' भोपाल में कई ऐसे पोस्टर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय के पास भी लगाए गए हैं. पिछले दो साल में कांग्रेस लगातार सूबे मे धार्मिक आयोजन कर रही है. भगवा रंग को प्रदेश के कांग्रेस दफ्तरों में जगह मिल रही है. खुद कमलनाथ को पोस्टरों और ट्विटर के जरिए हनुमान भक्त के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. 

2003 में बीजेपी को मिली थी ऐतिहासिक जीत

ये बात सच है कि नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद से मध्य प्रदेश में लगातार बीजेपी मजबूत होते गई. यहीं वजह है कि 2003, 2008 और 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बड़ी जीत हासिल होते रही. छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद पहली बार 2003 में विधानसभा चुनाव हुए और इसमें बीजेपी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. बीजेपी ने उमा भारती की अगुवाई में कुल 230 में 173 सीटों पर जीत हासिल कर कांग्रेस को बता दिया कि अब मध्य प्रदेश उसका गढ़ नहीं रह गया है. इस चुनाव में कांग्रेस सिमटकर 38 सीटों पर आ गई.

2008 और 2013 में शिवराज सिंह का चला जादू

2008 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में बीजेपी ने आराम से बहुमत हासिल कर लिया. बीजेपी को 143 और कांग्रेस को 71 सीटों पर जीत मिली. 2013 में लगातार तीसरी बार बीजेपी फतह करने में कामयाब रही है और इस जीत का नेतृत्व फिर से शिवराज सिंह चौहान ने ही किया. इस बार बीजेपी ने पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन करते हुए 165 सीटों पर जीत दर्ज की. वहीं कांग्रेस को 58 सीटों से संतोष करना पड़ा. 

2018 में कांग्रेस बहुमत से रही 2 सीट दूर

हालांकि नवंबर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने आपसी कलह के बावजूद कांग्रेस को बहुमत के करीब पहुंचा दिया और बीजेपी को लगातार तीन कार्यकाल के बाद सत्ता से दूर होना पड़ा. कांग्रेस 114 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. वो बहुमत से केवल दो सीट दूर रही. 56 सीटों के नुकसान के साथ बीजेपी 109 सीटों पर ही जीत सकी.

कम वोट के बावजूद ज्यादा सीटों पर जीती कांग्रेस

मध्य प्रदेश में 2018 के चुनाव में एक दिलचस्प  वाक्या हुआ. बीजेपी को 41.02% वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 40.89% वोट हासिल हुए. कम वोट शेयर के बावजूद कांग्रेस, बीजेपी से 5 सीट ज्यादा लाने में कामयाब हुई. कांग्रेस के वोट शेयर में करीब 5 फीसदी का इजाफा हुआ था. वहीं बीजेपी को करीब 4% वोट का नुकसान उठाना पड़ा था.

इसके बाद कमलनाथ की अगुवाई में मध्य प्रदेश में 15 साल बाद  17 दिसंबर 2018 को कांग्रेस की सरकार बनी. लेकिन मार्च 2020 आते-आते मध्य प्रदेश की सियासत में नया भूचाल आया और ज्योतिरादित्य सिंधिया 22 विधायकों के साथ कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद फिर से मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में बीजेपी की सरकार बन गई.

छत्तीसगढ़ में सरकार होने का कांग्रेस को फायदा

इस बार कांग्रेस मध्य प्रदेश की सत्ता में वापसी के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ राज्य की सभी सीटों पर आंतरिक सर्वे पहले ही करा चुके हैं. वे चाहते हैं कि उन्हीं लोगों को टिकट दिया जाए, जिसके जीतने की संभावना बेहतर हो. कमलनाथ एक-एक सीट पर खुद जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं. निकाय चुनाव में बेहतर प्रदर्शन से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ी हैं. पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार है और इस बार कांग्रेस को कुछ सीटों पर इसका भी फायदा मिल सकता है.    

आम आदमी पार्टी से नुकसान पर रखनी होगी नज़र

कांग्रेस के लिए एक चिंता की बात ये भी है कि इस बार आम आदमी पार्टी राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी. गुजरात की तर्ज पर ही यहां भी अरविंद केजरीवाल की पार्टी से बीजेपी को तो कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला है, लेकिन कांग्रेस को कुछ सीटों पर नुकसान उठाना पड़ सकता है. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के सामने इससे भी निपटने की चुनौती होगी.  

2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से महत्वपूर्ण

बीजेपी की राजनीति के लिए मध्य प्रदेश हमेशा से काफी महत्वपूर्ण रहा है. 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए भी मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव का काफी महत्व है. यहां कुल 29 लोकसभा सीटें हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इनमें से 28 और 2014 के लोकसभा चुनाव में 27 सीटों पर जीत मिली थी. इतना ही नहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी यहां 16 और 2004 के लोकसभा चुनाव में 25 सीट जीत गई थी. अगर 2024 में बीजेपी पिछला प्रदर्शन फिर से दोहराना चाहती है, तो उसके लिए विधानसभा चुनाव में सत्ता बरकरार रखना बेहद अहम हो जाता है.  

बीजेपी की राजनीति के लिए मध्य प्रदेश का महत्व

ऐसे बीजेपी की राजनीति के लिए मध्य प्रदेश हमेशा से काफी महत्वपूर्ण रहा है. ये उन 3 राज्यों में शामिल है जब बीजेपी पार्टी गठन के बाद पहली बार सरकार बनाने में कामयाब हुई थी. मार्च 1990 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनी थी. मध्य प्रदेश में सुंदरलाल पटवा की अगुवाई में बीजेपी की सरकार बनी थी. हालांकि ये सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी. 6 दिसंबर 1992 में विवादित बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने और उसके बाद पैदा हुए राजनीतिक हालात के बाद यहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. उसके बाद फिर 10 साल के कांग्रेस शासन के बाद 2003 में ही मध्य प्रदेश की सत्ता में बीजेपी की वापसी हो पाती है.

इसके विपरीत अगर कांग्रेस इस साल मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य में जीत हासिल कर लेती है, तो फिर कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश की जीत से उसे लोकसभा चुनाव में अपना जनाधार बढ़ाने की संभावना को बल मिलेगा. साथ ही 2024 आम चुनाव से पहले विपक्ष के गठबंधन बनने की स्थिति में कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर स्वीकार्यता भी बढ़ेगी.कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ से कमल को खतरा तो है, लेकिन शिवराज सिंह चौहान पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे. ऐसे में यहां कांटे का मुकाबला देखने को मिल सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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