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दलित ईसाइयों का सवाल सामाजिक न्याय का बड़ा मसला, धर्म भी बदला पर हालात वही

सर्वोच्च न्यायालय ने 21 फरवरी को तमिलनाडु के त्रिची जिले के दलित ईसाइयों की याचिका पर विचार करने पर सहमति जताई है, जिसमें कोट्टापलायम पैरिश में रोमन कैथोलिक चर्च प्रशासन के भीतर जाति-आधारित भेदभाव को चुनौती दी गई है. कोट्टापलायम गांव के निवासी याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि रोमन कैथोलिक चर्च प्रशासन दलितों को वार्षिक चर्च उत्सवों में भाग लेने से रोककर और कब्रिस्तानों को अलग करके जाति-आधारित भेदभाव करता है.  न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और मनोज मिश्रा की पीठ ने तमिलनाडु सरकार और चर्च अधिकारियों को नोटिस जारी किए और 15 अप्रैल तक उनसे जवाब मांगा. यह स्थिति है तमिलनाडु जैसे एक प्रगतिशील राज्य की, जिसके बार में आम धारणा है कि यह उत्तर भारत जैसे राज्यों में मौजूद भेदभाव से काफी अलग है. सच्चाई हालांकि कुछ और ही है.  

भयंकर भेदभाव! 

त्रिची के कोट्टापलायम और अय्यमपट्टी गांवों की जमीनी रिपोर्ट में पाया गया था कि इन गांवों में दलित ईसाइयों को प्रमुख जाति के ईसाइयों और हिंदुओं से गंभीर जाति-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है. ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद, इन दलितों को गांव और चर्च में सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. भेदभाव को दूर करने के प्रयासों का विरोध किया गया लेकिन सफल नहीं रहा. एक घटना में, जाति समानता की वकालत करने वाले एक पुजारी को तथाकथित ऊंची जाति के ईसाइयों और हिंदुओं द्वारा गांव से निकाल दिया गया था. याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वकील फ्रैंकलिन सीजर थॉमस ने कहा कि दलित ईसाइयों को दिन-प्रतिदिन के मामलों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. याचिका में कहा गया है कि आज की तारीख में, याचिकाकर्ताओं के साथ-साथ अन्य दलित कैथोलिक ईसाई समुदाय के ग्रामीण निवासी अस्पृश्यता की पारंपरिक प्रथा और उसके बाद अमानवीय, जाति-आधारित भेदभाव का सामना कर रहे हैं.


दलित ईसाइयों का सवाल सामाजिक न्याय का बड़ा मसला, धर्म भी बदला पर हालात वही

याचिकाकर्ताओं ने अदालत को यह भी बताया कि उन्होंने जिला और राज्य अधिकारियों को कई बार आवेदन किया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. इससे पहले, अप्रैल 2024 में, मद्रास उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया, और उन्हें सिविल कोर्ट और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से सहारा लेने का निर्देश दिया था. हालांकि, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय ने मामले को एनसीएम को संदर्भित करके गलती की, क्योंकि आयोग के पास संवैधानिक अधिकारों को लागू करने का अधिकार नहीं है. 

चर्च का सच!
 
याचिकार्ताओं के अनुसार चर्च प्रशासन के भीतर जातिगत भेदभाव निजी विवाद नहीं बल्कि एक संवैधानिक मुद्दा है, जिसके लिए न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है. यह तर्क है कि दलित ईसाइयों को चर्च प्रशासन से बहिष्कार का सामना करना पड़ता है और उन्हें वार्षिक चर्च उत्सवों में समान भागीदारी से वंचित किया जाता है. उनका आरोप है कि कब्रिस्तान अलग-अलग हैं और गैर-दलित कैथोलिकों के विपरीत, उन्हें अपने मृतकों को अंतिम संस्कार की प्रार्थना के लिए चर्च में लाने की अनुमति नहीं है. याचिका में दावा किया गया है कि ये भेदभावपूर्ण प्रथाएं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता), 21 (जीवन और सम्मान का अधिकार) और 25 (धर्म की स्वतंत्रता) के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं. याचिकाकर्ता इस बात पर जोर देते हैं कि चर्च प्रशासन के भीतर जातिगत भेदभाव एक निजी मामला नहीं है, बल्कि एक संवैधानिक मुद्दा है, जिसमें न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है.  

आदर्श बनाम सत्य 

तमिलनाडु के एक सामाजिक कार्यकर्ता और वकील थॉमस फ्रान्कलिन (इसाई दलितों को एस सी स्टेट्स दिए जाने के समर्थक) ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बार बात करते हुए (2009 में) यह बताया था कि दक्षिण के कई राज्यों में आज भी ईसाईयों के दो कब्रिस्तान होते हैं, जहां एक कब्रिस्तान में बड़ी जाति के ईसाइयों तो दूसरे कब्रिस्तान में धर्मांतरण करने वाली छोटी और पिछड़ी जातियों के क्रिशिचियन को दफनाया जाता है. यानी, उनका मानना था कि भले ही धार्मिक स्तर पर क्रिश्चियन धर्म में जातिगत भेदभाव की परिकल्पना नहीं है, लेकिन प्रायोगिक स्तर पर भारत में यह भेद जबरदस्त रूप से है. इस्लाम में भी, हिन्दुस्तान के भीतर ऐसा ही है. सतीश देशपांडे और गीतिका बापना ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए एक रिपोर्ट बनाई थी, जिसमें कहा गया था कि शहरी क्षेत्रों में 47 फ़ीसद दलित मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे हैं, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में 40 फ़ीसद दलित मुस्लिम और 30 फ़ीसद दलित ईसाई ग़रीबी रेखा से नीचे हैं. और इस बात की ताकीद रंगनाथ मिश्र कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर की है. 

संवैधानिक स्थिति! 

राष्ट्रपति अध्यादेश, 1950 का उल्लेख भारतीय संविधान में है. यह अध्यादेश कहता है कि सिर्फ हिन्दू धर्म के दलितों को ही एससी स्टेट्स दिया जा सकता है. लेकिन जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने इस सूची में बौद्ध दलितों को भी शामिल किया जिन्हें नव बौद्ध कहा गया. इससे पहले सिख दलितों को भी इस सूची में शामिल कर लिया गया था. इसके बाद इस लिस्ट से बाहर रह गए थे मुस्लिम, ईसाई, जैन और पारसी. मनमोहन सिंह सरकार ने जब सच्चर कमेटी बनाई थी तब इस कमेटी ने जो रिपोर्ट दी, वह मुस्लिम समुदाय की बदतर सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति को बताती थी. इसके बाद, मनमोहन सिंह सरकार ने ही रंगनाथ मिश्रा कमीशन का गठन किया, जिसने 2007 में अपनी रिपोर्ट दी. इस रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि मुसलमानों के बीच भारी जातिगत भेदभाव है और मुस्लिम समुदाय के भीतर जो अतिपिछड़ी जातियां हैं, उनकी हालत हिन्दू दलितों से भी बदतर है और इसी आलोक में इस कमीशन ने उनके लिए 10 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की.
साथ ही, इस कमीशन ने 1950 प्रेशिडेशियल आर्डर को हटाने की भी सिफारिश की क्योंकि कमीशन का मानना था कि यह अध्यादेश धार्मिक आधार पर लोगों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक स्थिति की सच्चाई को देखे बिना भेदभाव करता है. इस रिपोर्ट को लोकसभा के पटल पर रखे हुए 16 साल बीत चुके हैं. लेकिन इस पर अब तक कोई एक्शन टेकेन रिपोर्ट नहीं आई है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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