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पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाली वाली 'हिंदीं' भाषा से क्यों है इतनी नफ़रत?

Hindi Language: जब हमारे यहां अंग्रेजों की हुकूमत थी और उसके बाद जब देश को आज़ादी मिली, तब सरकारी कामकाज से लेकर हर तरफ सिर्फ दो भाषाओं का ही बोलबाला था- पहली अंग्रेजी और दूसरी उर्दू. हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने को लेकर एक बार फिर से विवाद उठा है, जिसे हम 'बॉलीवुड' बनाम 'टॉलीवुड के अहंकार का नाम तो दे सकते हैं लेकिन दरअसल, ये बरसों से चली आ रही उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत की पुरानी लड़ाई का ही एक नया रुप है.
 लेकिन इस बार इसमें राजनीति का नहीं, बल्कि फिल्मों का तड़का लगा है. अजय देवगन को पीछे से सलाह चाहे किसी ने भी दी हो लेकिन अहम बात ये है कि उन्होंने हिंदी की बात छेड़कर इसे फिर से बहस का मुद्दा बना दिया है. वैसे भी हमारी युवा पीढ़ी के लिए फ़िल्मी सितारें ही उनके आइकॉन बनते रहे हैं, लिहाज़ा, वो इन सितारों के मुंह से निकली बात को जरा ज्यादा ग़ौर से सुनती व देखती है. 

लेकिन हैरानी तो हम सबको इस पर होनी चाहिए कि आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे इस देश की आज भी कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है. हिंदी को किसी तरह से राजभाषा तो बना दिया गया लेकिन वह राष्ट्रीय भाषा बनने के लिए इस देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद की तरफ आज भी कातर निगाहों से ही देख रही है. देश की सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई गैर हिंदीभाषी राज्यों की हाइकोर्ट में आज भी अंग्रेजी में ही सारा कामकाज होता है. वह इसलिये कि पिछले 57 बरस में आई किसी भी सरकार ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए कानून बनाने पर कोई जोर ही नहीं दिया. जिस सरकार ने ऐसा सोचा भी तो तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में हुए हिंसक आंदोलनों ने उसे ऐसा प्रस्ताव वापस लेने पर मजबूर कर दिया. उन सरकारों की भी अपनी बड़ी मजबूरी यही थी कि अगर ऐसा हो गया, तो उन्हें समर्थन देने वाली दक्षिण भारतीय पार्टियां उन्हें कुर्सी से उतारने में जरा भी देर नहीं लगाएंगी. लेकिन मोदी सरकार ने अपना दूसरा कार्यकाल शुरु करते ही देश में ये बहस छेड़कर पूरा माहौल तैयार करने की कोशिश की है आखिर हिंदी देश की राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन सकती? 

दक्षिण के राज्यों को छोड़ दें, तो कमोबेश सभी इसके पक्ष में हैं लेकिन सरकार इससे संबंधित विधेयक संसद में लाने से पहले ये नापतौल रही है कि दक्षिणी राज्यों में इसकी कितनी तीखी प्रतिक्रिया हो सकती है. औऱ, कहीं ऐसा न हो कि पांच दशक पहले हुए हिंसक आंदोलनों का वही नज़ारा दोबारा सामने न आ जाये. 
लेकिन सोचने वाली बात ये है कि हिंदी आज सिर्फ सरकारी कामकाज की नहीं, बल्कि देश को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा बन चुकी है. बॉलीवुड की तमाम चर्चित फिल्मों को दक्षिण की भाषाओं में डब करके वहां के निर्माता रातोंरात करोड़पति बने हैं. इसके उलट पिछले तीन दशकों से मुंबई के फिल्म निर्माता भी साउथ की बेहतरीन फिल्मों को हिंदी में डब करके उत्तर भारतीय दर्शकों को मनोरंजन का चटखारे वाला स्वाद दे ही रहे हैं. मजे की बात तो ये है कि बॉलीवुड हो या टॉलीवुड, दोनों के ही दिग्गज़ फिल्मी सितारों ने एक-दूसरे की फिल्मों में काम करके खूब पैसा भी कमाया है और शोहरत भी बटोरी है.

फिर ऐसा क्यों हैं कि दक्षिण भारत में रहने वालों को हिंदीं से इतनी नफ़रत है? नहीं, वहां के आम आदमी को हिंदी से कोई परहेज नहीं है. आप दक्षिणी राज्यों के किसी भी पर्यटक स्थल पर चले जाइये, वहां के टैक्सी, होटल वाले से लेकर रेहड़ी पर सामान बेच रहा शख्स भी समझ जाएगा कि आप उत्तर भारत के किसी राज्य से आये हैं और वे आपसे हिंदी में ही बातचीत करेगा. दरअसल, सारा खेल सियासी है क्योंकि राजधानी दिल्ली में दक्षिण भारतीय प्रांतों के लाखों लोग रहते हैं, जो अपने पड़ोसियों के साथ ही मार्केट में खरीददारी के वक़्त भी बहुत अच्छी तरह से हिंदीं में संवाद करते हैं. ये अलग बात है कि वे हिंदी लिखने-पढ़ने में कमजोर हो सकते हैं लेकिन हिंदी में प्रयोग किये गए किसी भी अभद्र शब्द का जवाब देना उन्हें बखूबी आता है. मतलब ये कि वे कई सालों से दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई, भोपाल, इंदौर, जयपुर आदि 
जैसे उत्तर भारत के शहरों में रहते हुए अच्छी-खासी हिंदी बोलने-समझने में माहिर हो चुके हैं.

इसलिये दिक्कत उन्हें नहीं बल्कि एक ही देश में रहते हुए दक्षिण की पहचान का परचम लहराने की जिद पर अड़े वहां के राजनीतिज्ञों को है. लोकतंत्र का दुर्भाग्य ये है कि उनके इस विरोध में हमारे कुछ प्रमुख विपक्षी दल भी इसलिए साथ दे देते हैं क्योंकि इसमें उन्हें अपना राजनीतिक फ़ायदा नज़र आता है. वैसे बता दें कि संविधान की आठवीं अनुसूची में फिलहाल हिंदी समेत कुल 22 क्षेत्रीय भाषाएं हैं, जिनमें अंग्रेजी नहीं है. हैरत ये है कि सिंधी भाषा इसमें शामिल है लेकिन देश के किसी भी राज्य ने उसे अपनी दूसरी या तीसरी भाषा के रुप में नहीं अपनाया है. दरअसल, हिंदी को हम भले ही देश में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोलने की भाषा होने के नाते इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलने का ख्वाब पाले बैठे हों, लेकिन ये सरकार द्वारा बनाये गए कानून के बगैर कभी पूरा हो ही नहीं सकता.

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए 25 जनवरी, 2010 को गुजरात हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि", भारत की बड़ी जनसंख्या हिंदी को राष्ट्रभाषा मानती है. जबकि ऐसा किसी रिकॉर्ड में नहीं है. न ही ऐसा कोई आदेश पारित हुआ है, जो हिंदी को देश की राष्ट्रीय भाषा होने की घोषणा करता हो. 
मतलब साफ है कि आपके या मेरे कहने-मान लेने भर से हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती. इसके लिए केंद्र सरकार को कानून बनाने के लिए पूरी हिम्मत दिखानी होगी, ये सोचे बगैर कि इससे पार्टी की कर्नाटक की सत्ता में बैठी सरकार में क्या खलबली मचेगी. वैसे भी आग से खेलने वालों को चिंगारी की परवाह भला किसलिये करनी चाहिए?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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