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संयोजक या पीएम चेहरा नहीं, नीतीश के सामने पार्टी बचाने की है सबसे बड़ी चुनौती, लगातार सिकुड़ रही है जेडीयू

आम चुनाव, 2024 में अब बस चंद महीने या कहें गिने-चुने दिन ही बचे हैं. इस बीच विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में शामिल जेडीयू अध्यक्ष  और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लेकर मीडिया में तमाम तरह की ख़बरें हर दिन नये-नये कलेवर में सामने आ रही हैं.

कभी नीतीश कुमार को  विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का संयोजक बनाने की बात पर बहस होने लगती है, तो कभी आम चुनाव, 2024 में विपक्षी गठबंधन का चेहरा बनाने को लेकर अटकलों का दौर चलने लगता है. हालाँकि वर्तमान में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू की जिस प्रकार की राजनीतिक हैसियत या स्थिति है, उसे देखते हुए ये सारे सवाल और अटकलों के बाज़ार को बेमानी ही कहा जा सकता है.

बिहार में नीतीश की राजनीतिक स्थिति

वास्तविक स्थिति तो यह है कि नीतीश कुमार के सामने दो सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं. इन दोनों सवालों में ही नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के सामने मौजूद चुनौती भी निहित है. पहला सवाल है कि नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य क्या है. दूसरा सवाल है कि क्या जेडीयू अब उस मक़ाम पर है, जहाँ से उसकी राजनीति का अवसान शुरू हो चुका है.

यह दोनों सवाल अचानक पैदा हुए हैं, ऐसा कतई नहीं है. पिछले कई साल से जेडीयू का राजनीतिक आधार लगातार सिकुड़ रहा है. उसके साथ ही बिहार में 2020 से तेजस्वी यादव की अगुवाई में आरजेडी की स्थिति लगातार मज़बूत हुई है. साथ ही साथ बीजेपी का राजनीतिक आधार भी प्रदेश में व्यापक हुआ है. बिहार की राजनीति धीरे-धीरे उस दौर में जा रही है, जिसके तहत भविष्य में आरजेडी और बीजेपी के बीच सीधा मुक़ाबला देखने को मिलेगा.

नीतीश की लोकप्रियता तेज़ी से घटी है

जिस तरह से बिहार में नीतीश की लोकप्रियता घट रही है और जेडीयू का जनाधार सिमट रहा है, यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भविष्य में प्रदेश में जेडीयू की स्थिति कांग्रेस जैसी होने वाली है.

नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का मूल रूप से या कहें पूरा जनाधार बिहार तक ही केंद्रित है. केंद्रीय राजनीति में किसी भी तरह की महत्वाकांक्षा पालने के लिए नीतीश कुमार की बिहार में वर्तमान में राजनीतिक हैसियत एक महत्वपूर्ण पहलू है. इसे समझे बिना आगामी लोक सभा चुनाव में नीतीश कुमार को विपक्षी गठबंधन का चेहरा बनाने से जुड़े किसी विमर्श या चर्चा का कोई सार्थक महत्व नहीं है. यह ऐसा पहलू है, जहाँ नीतीश की मौजूदा स्थिति बेहद कमज़ोर है.

बिहार के अलग-अलग इलाकों में घूमने पर पता चलता है कि अब नीतीश कुमार ग्रामीण इलाकों में उतने लोकप्रिय नहीं रहे, जितनी लोकप्रियता एक दशक पहले थी. भले ही नीतीश कुमार वर्तमान में प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. बीच के 9 महीनों को छोड़ दें, तो नीतीश कुमार नवंबर 2005 से बिहार के मुख्यमंत्री हैं. वे 17 साल से अधिक समय से मुख्यमंत्री हैं. इस पहलू के बावजूद फ़िलहाल बिहार में नीतीश कुमार की राजनीतिक हैसियत पार्टी जनाधार की कसौटी पर उतनी अच्छी नहीं है.

जेडीयू का राजनीतिक भविष्य दाँव पर

बिहार में वर्तमान जनाधार और लोकप्रियता के आधार पर जैसी नीतीश कुमार की राजनीतिक स्थिति है, उसको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू का राजनीतिक भविष्य अब दाँव पर है. लोक सभा चुनाव 2024 और 2025 में बिहार में होने वाले विधान सभा चुनाव नतीजों पर नीतीश के साथ ही उनकी पार्टी का भविष्य या कहें अस्तित्व ही टिका है.

पहले पार्टी का प्रदर्शन बेहतर कर लें!

बीच-बीच में ख़बरें आती हैं कि नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का चेहरा बनना चाहते हैं. यहाँ चेहरा से तात्पर्य है नरेंद्र मोदी के सामने लोक सभा चुनाव 2024 में विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार. अगर इस तरह की महत्वाकांक्षा नीतीश कुमार सचमुच में पाले हुए हैं, तो उनकी वर्तमान राजनीतिक हैसियत और जेडीयू की स्थिति को देखते हुए इसे दिन में तारे देखने जैसा ही कहा जा सकता है.

अकेले दम पर जेडीयू बेहद कमज़ोर

फ़िलहाल नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की स्थिति ऐसी है कि विपक्षी गठबंधन के तहत भी 2024 में दहाई का आँकड़ा पार करना बेहद मुश्किल दिख रहा है. यह हाल तो तब है, जब आरजेडी का साथ नीतीश को मिल रहा है. अकेले दम पर जेडीयू की राजनीतिक हैसियत दो-चार लोक सभा सीट भी जीतने की नहीं दिखती है. आरजेडी के साथ होने के बावजूद ख़ुद नीतीश कुमार के लिए कोई एक ऐसी लोक सभा सीट का नाम नहीं लिया जा सकता है, जहाँ से उनकी जीत सुनिश्चित मानी जाए.

एक समय था जब नालंदा और बाढ़ निर्वाचन क्षेत्र को नीतीश कुमार का गढ़ माना जाता था. नीतीश कुमार 1989 से लेकर 1999 के बीच लगातार पाँच बार बाढ़ लोक सभा सीट पर जीत दर्ज करने में सफल रहे थे. उन्हें 2004 में बाढ़ लोक सभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन वे उस वक़्त नालंदा लोक सभा सीट पर जीतने में कामयाब हुए थे. 2004 के बाद हुए परिसीमन में बाढ़ लोक सभा सीट का अस्तित्व ख़त्म हो गया. इसका कुछ हिस्सा मुंगेर और कुछ हिस्सा पटना साहिब लोक सभा क्षेत्र में चला गया.

ऐसे में जो नेता अकेले दम पर किसी लोक सभा सीट पर जीत दर्ज करने का दमख़म नहीं रखता हो, उसके लिए प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनने की महत्वाकांक्षा पालना हास्यास्पद ही कहा जा सकता है. उसमें भी नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू की स्थिति तो और भी गड़बड़ है. चाहे लोक सभा चुनाव हो या विधान सभा चुनाव, जेडीयू ने बिहार में हमेशा ही बेहतर प्रदर्शन तभी किया है, जब उसके साथ या तो बीजेपी हो या फिर आरजेडी.

तेज़ी से सिकुड़ रही है नीतीश की पार्टी

जेडीयू  2014 का लोक सभा चुनाव अकेले दम पर लड़ी थी. उस वक़्त जेडीयू का क्या हश्र हुआ था, यह किसी से छिपा नहीं है. लोक सभा चुनाव 2014 में जेडीयू को सिर्फ़ दो सीट पर ही जीत मिल सकी थी. उसे 2009 के मुक़ाबले 18 सीटों का नुक़सान हुआ था. साथ ही जेडीयू के वोट शेयर में भी 8 फ़ीसदी से अधिक की कमी देखने को मिली थी. जेडीयू का यह हाल तब हुआ था, जब नीतीश कुमार की लोकप्रियता प्रदेश के लोगों में अच्छी-ख़ासी थी. वहीं अगले लोक सभा चुनाव या'नी 2019 में बीजेपी का साथ मिलते ही जेडीयू बिहार की 40 में से 16 सीट पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी. उसके वोट शेयर में भी 6 फ़ीसदी से ज़ियादा का इज़ाफ़ा देखने को मिला था.

भले ही नीतीश कुमार और उनकी पार्टी बिहार की सत्ता पर 18 साल से क़ाबिज़ हैं, लेकिन पिछले कुछ विधान सभा चुनाव नतीजों के आँकड़ों से समझा जा सकता है कि जेडीयू कैसे तेज़ी से अवसान की ओर बढ़ रही है. जेडीयू का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2010 के विधान सभा चुनाव में रहा था. नीतीश कुमार ने पहला पाँच साल कार्यकाल पूरा कर लिया था, तब  2010 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी जेडीयू को अब तक की सबसे बड़ी जीत मिली थी.

अक्टूबर- नवंबर 2005 में हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी के साथ से जेडीयू को 88 सीट पर जीत मिली और 20.46% वोट हासिल हुआ था. इस चुनाव में जेडीयू सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. इसके अगले चुनाव में यानी 2010 में जेडीयू को कुल 243 में से 115 सीटों पर जीत मिली थी. जेडीयू का वोट शेयर 22.58% रहा था. इस चुनाव में भी बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का लाभ जेडीयू को मिला और बिहार में सबसे बड़ी पार्टी होने की उपलब्धि को बरक़रार रखने में नीतीश कुमार की पार्टी सफल रही थी.

2015 और 2020 में कम हुआ जनाधार

हालाँकि 2015 में हुए विधान सभा चुनाव में जेडीयू सबसे बड़ी पार्टी नहीं रह गयी. इस चुनाव में आरजेडी के साथ के बावजूद जेडीयू 71 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी. 2010 के मुक़ाबले जेडीयू को 44 सीटों के नुक़सान हुआ. जेडीयू के वोट शेयर में भी 5.81% की कमी आई. जेडीयू का वोट शेयर 16.8% रहा. इस प्रदर्शन के साथ 2015 में नीतीश की पार्टी दूसरे नंबर पर पहुंच गई.

जेडीयू का ग्राफ 2020 के विधान सभा चुनाव में और भी तेज़ी गिरा. इस वक़्त नीतीश कुमार लगातार तीन कार्यकाल पूरा करने के बाद चुनाव में उतरे थे. बीजेपी भ उनके साथ थी. हालाँकि नतीजों ने नीतीश कुमार की पार्टी को चौंका दिया. जेडीयू कुल 243 में से सिर्फ़ 43 सीट ही जीत सकी. इस तरह से जेडीयू इस चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी. जेडीयू को 2015 के मक़ाबले 28 सीटों का नुक़सान हुआ. जेडीयू का वोट शेयर भी और गिरकर 15.39% पर जा पहुंचा. जेडीयू के वोट शेयर में 2015 के मक़ाबले 1.44 फ़ीसदी की कमी हो गयी.

2010 से 2020 आते-आते जेडीयू विधान सभा में 115 से 43 सीट पर पहुँच गयी. इस तरह से एक दशक में जेडीयू को 72 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा. जेडीयू का वोट शेयर भी लगातार कम होते गया है. विधान सभा चुनाव, 2010 में जेडीयू का वोट शेयर 22.58% था. यह जेडीयू को विधान सभा चुनाव में हासिल अधिकतम वोट शेयर था. अगले एक दशक या'नी 2020 के विधान सभा चुनाव में जेडीयू का वोट शेयर गिरकर 15.39% पर जा पहुंचा. जेडीयू के वोट शेयर में  इन 10 सालों में सात प्रतिशत से अधिक की कमी हुई. कारण को छोड़ दें, तो,  इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि नीतीश कुमार की पार्टी सीटों की संख्या और वोट शेयर के लिहाज़ से लगातार कमज़ोर होती गयी है.

बिहार के सियासी हालात का फ़ाइदा

इन आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि बिहार में नीतीश की लोकप्रियता 2020 में ही क़ाफी कम हो गयी थी. उसके बाद से प्रदेश की राजनीति में उनका कद और कम ही हुआ है. नीतीश कुमार कभी भी बिहार की राजनीति में अकेले दम पर सत्ता हासिल करने की स्थिति में नहीं रहे हैं. पार्टी की लगातार कमज़ोर होती स्थिति के बावजूद भी मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच के 9 महीने को छोड़ दें, तो, नीतीश कुमार 24 नवंबर, 2005 से लगातार बिहार के मुख्यमंत्री हैं. बीच का जो 9 महीने का हिस्सा है, उस वक्त भी उनकी ही पार्टी सत्ता में थी. इस पहलू से लग सकता है कि नीतीश बिहार की राजनीति के सिरमौर हैं.

हालाँकि इसका एक दूसरा भी पक्ष है. नीतीश इतने लंबे वक़्त तक मुख्यमंत्री प्रदेश के सियासी हालात की वज्ह से रहे हैं. नीतीश कुमार बीजेपी और आरजेडी की सियासी मजबूरी का फ़ाइदा ब-ख़ूबी उठाते आए हैं. पाला बदलने के हुनर में नीतीश कुमार की कोई सानी नहीं है. बिहार में पिछले तीन दशक से बीजेपी-आरजेडी-जेडीयू का राजनीतिक त्रिकोण है. इसके कारण नीतीश का महत्व बढ़ गया. बिहार में बीजेपी और आरजेडी एक साथ आ नहीं सकते. इसके साथ ही 2005 से न तो बीजेपी और न ही आरजेडी अकेले दम पर प्रदेश में सरकार बनाने की स्थिति में कभी आ पायी है. नीतीश कुमार इस स्थिति का हमेशा से ही लाभ उठाते आए हैं. अब तक नीतीश कुमार बीजेपी और आरजेडी दोनों ही दलों के लिए मजबूरी बने रहे हैं.

पाला बदलने से मिलता रहा है लाभ

जब भी नीतीश कुमार को लगता है कि उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी जा सकती है, वो पाला बदल लेते हैं. नीतीश 2005 और 2010 में बीजेपी के साथ मिलकर विधान सभा चुनाव लड़ते हैं. बीजेपी से पल्ला झाड़ चुके नीतीश कुमार विधान सभा चुनाव, 2015 में आरजेडी का दामन थाम लेते हैं. 2017 में आरजेडी से अलग होकर नीतीश फिर से बीजेपी के पाले में चले जाते हैं. नीतीश 2020 का विधान सभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़ते हैं. जेडीयू के तीसरे नंबर की पार्टी बनने के बावजूद नीतीश मुख्यमंत्री बनने में कामयाब होते हैं. अचानक अगस्त 2022 में वो एक बार फिर से पाला बदलते हैं और बीजेपी से अलग होकर आरजेडी के साथ सरकार बना लेते हैं. पाला बदलने में माहिर नीतीश बिहार के सियासी हालात और राजनीतिक त्रिकोण का लाभ उठाकर पिछले 18 साल से जेडीयू को सत्ता में बनाए हुए है. हालाँकि उनकी पार्टी लगातार कमज़ोर होती जा रही है.

पार्टी के भविष्य को लेकर सवाल

नीतीश कुमार भले ही फ़िलहाल तेजस्वी यादव के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं, लेकिन अंदर-ख़ाने उनकी लोकप्रियता पर तेजस्वी यादव लगातार हावी हो रहे हैं. जातीय गणना का लाभ भी आगामी लोक सभा चुनाव और 2025 के विधान सभा चुनाव में आरजेडी को ही मिलने की पूरी संभावना है. जातीय गणना से जेडीयू का जाति आधारित जनाधार बढ़ने के मुक़ाबले कम होगा, इसकी पूरी गुंजाइश है.

नीतीश कुमार की पार्टी से बड़े पैमाने पर नेताओं का इधर-उधर जाना भी पिछले कुछ सालों से जारी है. जेडीयू की कमज़ोर होती स्थिति और आम चुनाव, 2024 में पार्टी नेताओं की ओर से बगावत की संभावना को देखते हुए नीतीश कुमार को 2023 के अंत में एक बार फिर से पार्टी अध्यक्ष की कमान आनन-फानन में संभालनी पड़ती है. नीतीश एक झटके में ललन सिंह से पार्टी अध्यक्ष की कमान ख़ुद ले लेते हैं. यह प्रकरण भी बताने के लिए क़ाफी है कि जेडीयू के भीतर खाने किस तरह की हलचल है.

नीतीश को लेकर माहौल बेमानी और निरर्थक

नीतीश कुमार को विपक्षी गठबंधन इंडिया का सूत्रधार बताने की कोशिश पिछले कुछ महीने से जेडीयू के स्थानीय नेताओं और मीडिया की ओर से की जा रही है. हालाँकि इस दावे में कोई दम नहीं है.

अगर विपक्षी गठबंधन में शामिल दलों पर नज़र डालें, तो कुछ को छोड़कर इसमें अधिकतर ऐसे दल शामिल हैं, जो पहले ही कांग्रेस के साथ मिलकर अलग-अलग राज्यों में चुनाव लड़ रहे हैं. जहाँ तक बात तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी की है, तो ये तीनों दल बीजेपी की ताक़त को देखते हुए विपक्षी गठबंधन का ख़ुद-ब-ख़ुद हिस्सा बने हैं. समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है. ममता बनर्जी को डर है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का प्रभाव धीरे-धीरे बीजेपी समाप्त न कर दे. वहीं आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब में अपने प्रभाव को बचाने के साथ ही बाक़ी राज्यों में जनाधार टटोलने की जुगत में है.

विपक्षी गठबंधन के लिए नीतीश यह कर पाते...

नीतीश कुमार सही मायने में विपक्षी गठबंधन के सूत्रधार तब कहे जाते, जब नवीन पटनायक, मायावती, के. चंद्रशेखर राव और वाई एस जगनमोहन रेड्डी को 'इंडिया' गठबंधन का हिस्सा बनाने के लिए राज़ी कर लेते. हालाँकि ऐसा करने में नीतीश सफल नहीं हुए. अगर ऐसा हो जाता तो सही मायने में विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' आम चुनाव, 2024 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाले एनडीए के सामने मज़बूत चुनौती पेश कर पाता. नीतीश को अगर इसमें कामयाबी मिलती, तो, उन्हें विपक्षी गठबंधन का सूत्रधार कहा भी जा सकता था. फ़िलहाल नीतीश खु़द का राजनीतिक भविष्य बचाने के साथ ही बिहार में जेडीयू के अस्तित्व और प्रासंगिकता को बनाए रखने की चुनौती से जूझ रहे हैं.

जेडीयू को अधिक सीट से बीजेपी को लाभ

आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन ख़बरें आ रही है कि 2024 के आम चुनाव में तेजस्वी यादव की अगुवाई वाली आरजेडी बिहार की 40 लोक सभा सीट में से 17 नीतीश की पार्टी को देने के लिए तैयार है. अगर ऐसा हुआ, तो, विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के मंसूबों के लिहाज़ से यह सही क़दम नहीं कहा जा सकता है. बिहार एक ऐसा राज्य हैं, जहाँ एनडीए को 2019 के मुक़ाबले सबसे अधिक नुक़सान पहँचने की संभावना है. 2019 में बीजेपी की अगुवाई में एनडीए को 40 में से 39 सीटों पर जीत मिली थी, जिससे बीजेपी की 17, जेडीयू की 16 और एलजेपी की 6 सीटें शामिल थीं. बदले हालात में एनडीए के लिए उस प्रदर्शन को 2024 में दोहराना असंभव है.

बिहार में जेडीयू की फ़िलहाल जो स्थित है, उसके मुताबिक़ विपक्षी गठबंधन के तहत 2024 के लोक सभा चुनाव में प्रदेश में आरजेडी जितनी अधिक सीट पर चुनाव लड़ेगी, बीजेपी को नुक़सान होने की संभावना उतनी ज़ियादा होगी. अगर आरजेडी, नीतीश की पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए 17 सीटें देने पर सहमत हो जाती है, तो यह एक तरह से बीजेपी या कहें एनडीए को होने वाला नुक़सान को कम करने सरीखा आत्मघाती क़दम ही होगा.

भले ही गठबंधन धर्म के तहत नीतीश की पार्टी इतनी सीटों पर चुनाव लड़ ले, लेकिन फ़िलहाल वास्तविकता यही है कि बिहार में जेडीयू के मुक़ाबले आरजेडी के जीतने की संभावना अधिक है. नीतीश के पाला बदलने की फ़ितरत  को देखते हुए कहा जा सकता है कि आगामी लोक सभा चुनाव में इतनी सीट जेडीयू को देना या उस पर सहमत होना एक तरह से आरजेडी की मजबूरी भी है.

भविष्य में बिहार की राजनीति का स्वरूप

कुल मिलाकर नीतीश को लेकर जो भी विमर्श चलाया जा रहा है, उसका कोई ठोस और सार्थक आधार नहीं है. दरअसल न तो संयोजक और न ही प्रधानमंत्री पद का चेहरा नीतीश के लिए फ़िलहाल कोई महत्व रखता है. बिहार में जेडीयू की प्रासंगिकता को बनाए रखने की चुनौती ही नीतीश के लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. इसमें आम चुनाव, 2024 के साथ ही अगले साल या'नी अक्टूबर-नवंबर 2025 में होने वाला विधान सभा चुनाव की भूमिका निर्णायक साबित होने वाली है. अगर इन दोनों चुनाव  में जेडीयू का प्रदर्शन नहीं सुधरता है या जेडीयू के जनाधार में कोई ख़ास इज़ाफ़ा नहीं होता है, तो फिर भविष्य में बिहार की राजनीति में आरजेडी और बीजेपी के बीच ही सीधा मुक़ाबला देखने को मिलेगा, इसकी पूरी संभावना है.

आरजेडी और बीजेपी दोनों हो रही है मज़बूत

यह इसलिए भी कहा जा सकता है कि तेजस्वी यादव ने आरजेडी को एक बार फिर से उस मक़ाम पर पहुँचा दिया है, जहाँ से उनकी पार्टी भविष्य में अकेले दम पर सत्ता हासिल करने के बारे में सोच सकती है. उसी तरह से जेडीयू जितना कमज़ोर होगी या उसका जनाधार सिकुड़ता जाएगा, उसका सीधा लाभ बीजेपी को मिलेगा. पिछले कुछ सालों में ऐसा हुआ भी है. जेडीयू के भविष्य को लेकर सवाल इसलिए खड़े होते हैं क्योंकि जेडीयू का पूरा ताना-बाना सिर्फ़ एक व्यक्ति नीतीश के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है. नीतीश ने न तो दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को कभी बढ़ावा दिया है और न ही कोशिश की है कि पार्टी में नया नेतृत्व पैदा किया जा सके, जिससे प्रदेश के लोगों का भरोसा उनके बाद भी पार्टी पर बना रह सके.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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