किसान आंदोलन: 'न हम हारे, न तुम जीते', वाला फार्मूला अपनाने से बनेगी बात

नई दिल्लीः आज़ाद भारत के इतिहास में किसी सरकार और किसानों के बीच यह पहला ऐसा टकराव है जिसे आज छह महीने पूरे हो गए. लेकिन दोनों में से कोई भी पक्ष झुकने को जरा भी राजी नहीं है. तीन कृषि कानूनों को लागू करना सरकार ने जहां अपनी नाक का सवाल बना लिया है, तो वहीं किसान इसे वापस लेने के सिवा और किसी समझौते के लिए तैयार नहीं दिखते. ऐसे में सवाल उठता है कि पिछले सात बरस में हर समस्या का समाधान निकालने वाली मोदी सरकार आखिर पिछले छह महीने से किसान आंदोलन को ख़त्म करने का फार्मूला क्यों नहीं निकाल पा रही है?
जब दोनों ही पक्ष जिद पर अड़े हों, तो समाधान निकालने के लिए किसी एक पक्ष को तो अपनी जिद छोड़नी ही पड़ेगी, लेकिन छोड़ेगा कौन? यही बड़ा सवाल है. लगता तो यही है कि किसान आंदोलन को ख़त्म कराने के लिये अब सरकार को 'न हम हारे और न तुम जीते' वाले फार्मूले पर ईमानदारी से काम करना होगा.
जानकार मानते हैं कि सरकार में बैठे केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह ऐसे शख्स हैं जिनका किसान संगठनों के बीच इतना इक़बाल तो आज भी है कि किसान उनकी बात को सिरे से ठुकरा नहीं सकते. लिहाजा, सरकार को उन्हें किसानों से बातचीत के लिए आगे करने में कोई हिचक है या फिर उन पर पूरा भरोसा नहीं है कि वे इन कानूनों के जरिये उद्योगपतियों को होने वाले हितों का ख्याल नहीं रखेंगे? ये सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं, ऐसे में अगर राजनाथ के प्रयासों से कोई रास्ता निकलता है, तो उन चुनावों में किसानों के गुस्से से बीजेपी को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है.
पिछले छह महीने से हर मौसम की मार झेलने के बावजूद दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के हौसलों को पस्त करने-कराने की हर तरक़ीब आजमाने के बाद अब सिर्फ बातचीत के जरिये ही इस आंदोलन को ख़त्म करने का रास्ता बचा है. जाहिर है कि सरकार कोई भी हो, वो पहले अपना ही फायदा देखती है. लेकिन सियासी इतिहास गवाह है कि कुछ मसले ऐसे भी आ जाते हैं, जब सरकार के हुक्मरानों ने अहंकार छोड़कर थोड़ा झुकने से ही अपना राजनीतिक फायदा हासिल किया है. किसानों का मसला भी कुछ इसी तरह का है.
किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि "हम अगले तीन साल की तैयारी से यहां आये हैं, यानी जून 2024 तक इसी तरह से डटे रहेंगे. बेहतर होगा कि उससे पहले ही सरकार हमारी बात मान ले." इन तेवरों से साफ है कि किसानों की प्लानिंग अगले लोकसभा चुनाव तक की है, जिसमें वे सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ हवा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. साथ ही टिकैत यह याद दिलाना नहीं भूलते कि "कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रुप से कहा था कि मेरे और किसानों के बीच सिर्फ एक टेलीफोन कॉल की दूरी है. तो अब प्रधानमंत्री हम लोगों से बात करने में क्यों घबरा रहे हैं."
सरकार और किसानों के बीच पिछले अक्टूबर से लेकर अब तक 11 दौर की बातचीत बेनतीजा रही है. इसी तरह से सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी भी किसानों को मनाने में नाकाम रही है. लिहाज़ा सरकार अब अपने एक ठोस फार्मूले का इस्तेमाल करके इसका हल निकालने की कोशिश कर सकती है. पहले राजनाथ किसानों से बातचीत करके इतनी जमीन तैयार कर लें कि जहां दोनों पक्ष किसी समझौते तक पहुंच सके. उसके बाद खुद प्रधानमंत्री किसान संगठनों के चुनिंदा प्रतिनिधियों को बुलाकर उनसे चर्चा करें जिसमें राजनाथ भी मौजूद हों और तब अंतिम समझौते का ऐलान किया जाये जिसमें न किसी की हार होगी और न ही जीत.


























