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Electoral Bonds: चुनावी बॉन्ड पारदर्शी या पर्दादार? समझें पूरा गणित

Electoral Bonds: एक तरफ सुप्रीम कोर्ट में इलेक्‍टोरल बॉन्ड को लेकर सुनवाई हो रही है तो दूसरी तरफ केन्द्र सरकार ने इलेक्‍टोरल बॉन्ड की बिक्री के दिन 70 से बढ़ाकर 85 कर दिए हैं. हैरत की बात है कि, जिस दिन मोदी सरकार विधानसभा चुनाव होने वाले साल में इलेक्‍टोरल बॉन्ड की बिक्री के दिन बढ़ाती है, उसी दिन नई बिक्री की सूचना जारी करने के आदेश स्टेट बैंक को दे दिए जाते हैं, जो तत्काल कर भी देता है. अभी अक्टूबर के महीने में ही 545 करोड़ रुपये के इलेक्‍टोरल बॉन्ड अनजान लोगों या संस्थाओं ने खरीद कर विभिन्न दलों के खजाने भरे थे. सवाल उठता है कि आखिर इलेक्‍टोरल बॉन्ड की बिक्री के दिन बढ़ाने की ऐसी क्या जरूरत पड़ गई. क्या गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों को देखते हुए ऐसा किया गया. 

विपक्षी दलों का आरोप है कि यह सब बीजेपी को फायदा दिलाने के लिए किया गया, क्योंकि इलेक्‍टोरल बॉन्ड का 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा बीजेपी के खाते में जाता रहा है. चुनावी चंदे को 2018 में पारदर्शी बनाने और काला धन पर रोक लगाने के इरादे से मोदी सरकार इलेक्‍टोरल बॉन्ड की स्कीम लेकर आई थी. तब से अब तक 10 हजार 791 करोड़ रुपये मूल्य के इलेक्‍टोरल बॉन्ड स्टेट बैंक बेच चुका है. ऐसी बिक्री 22 बार हो चुकी है. सबसे ज्यादा पांच हजार करोड़ रुपये मूल्य के इलेक्‍टोरल बॉन्ड 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले जारी किए गए थे. सवाल उठता है कि ताजा नोटिफिकेशन की जरूरत क्यों आन पड़ी और क्या वास्तव में इससे काले धन पर रोक लगती है. 

हैरत की बात है कि 2018 में यह स्कीम सिर्फ लोकसभा चुनाव को लेकर जारी की गई थी लेकिन बाद में इसे राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भी लागू कर दिया गया. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इलेक्‍टोरल बॉन्ड की बिक्री के दिन बढ़ाना क्या आदर्श आचार संहिता का उल्लघंन है. इलेक्‍टोरल बॉन्ड स्टेट बैंक जारी करता है. बैंक एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपये मूल्य के बॉन्ड जारी करता है. इसे खरीदने वालों के नाम गुप्त रखे जाते हैं. किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया यह भी गुप्त रखा जाता है. 

किसने कितनी कीमत के बॉन्ड खरीदे, इसकी जानकारी सिर्फ स्टेट बैंक को ही होती है. अगर किसी जांच एजेंसी को अपनी जांच के सिलसिले में इलेक्‍टोरल बॉन्ड की जानकारी चाहिए तो स्टेट बैंक कड़ी शर्तों के साथ जानकारी बांट सकता है. भारत सरकार ने इसी साल एक अगस्त और 29 अक्टूबर के बीच दस हजार इलेक्‍टोरल बॉन्ड छापे हैं जिसकी कीमत एक करोड़ रुपये प्रति बॉन्ड है. यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत सामने आई है. अब कहा जा रहा है कि गुजरात चुनावों को ध्यान में रखते हुए अचानक ही बॉन्ड बेचने के दिन बढ़ाए गए हैं.

वैसे मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह चुकी है कि इलेक्‍टोरल बॉन्ड पूरी तरह से पारदर्शी हैं, काले धन पर रोक लगाते हैं और चुनावी भ्रष्टाचार को रोकते हैं. उधर सुप्रीम कोर्ट में बांड के खिलाफ याचिका लगाने वालों का कहना है कि इलेक्‍टोरल बॉन्ड स्कीम में अपने आप में ही मूलभूत खामियां हैं, जिन्हें दूर किए जाने तक इलेक्‍टोरल बॉन्ड स्कीम पर रोक लगा देनी चाहिए. इलेक्‍टोरल बॉन्ड पारदर्शिता को किस तरह बढ़ावा दे सकते हैं, जबकि बॉन्ड खरीदने वाले का नाम जनता से छुपा कर रखा जाता है और अन्य राजनीतिक दलों को भी इसकी जानकारी नहीं रहती है. 

एसोसिएशन फोर डेमोक्रिटक रिफॉर्म (ADR) के अनुसार 90 फीसद से ज्यादा बॉन्ड एक करोड़ रुपये मूल्य के खरीदे गए. यानि साफ है कि इलेक्‍टोरल बॉन्ड या तो करोड़पति, अरबपति लोग या कॉरपोरेशन ही खरीद रहे हैं. चूंकि सब कुछ छुपाकर रखा जाता है इसलिए आम वोटर कभी अंदाज नहीं लगा पाता है कि इलेक्‍टोरल बॉन्ड खरीदने वाले किसी स्वार्थ के कारण या सेवा के बदले मेवा के रूप में यह काम करते हैं. अगर इलेक्‍टोरल बॉन्ड खरीदने वाले लोगों या संस्थाओं या कंपनियों के नाम सामने आएंगे तो जनता को भी पता चल जाएगा कि इन वर्गों ने टैक्स में छूट मिलने पर या सब्सिडी मिलने पर या बैंक से आसान शर्तों पर कर्ज मिलने पर इलेक्‍टोरल बॉन्ड खरीदा या निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर इलेक्‍टोरल बॉन्ड की खरीद की. 

इस तरह आम वोटर के पास कंपनी या व्यक्ति का पूरा खाका होगा कि वह कब-कब किस पार्टी को इलेक्‍टोरल बॉन्ड खरीद कर मालामाल करता रहा है और बदले में उसे क्या मिलता रहा है. शायद यही वजह है कि चुनाव आयोग भी इलेक्‍टोरल बॉन्ड स्कीम के पक्ष में नहीं था. उसका भी कहना था कि स्कीम से काले धन पर रोक लगने को लेकर वह पूरी तरह से आश्वस्त नहीं है. यह बात चुनाव आयोग सरकार और कोर्ट दोनों से कह चुका है. कुछ लोगों का कहना है कि चूंकि स्टेट बैंक इलेक्‍टोरल बॉन्ड जारी करता है और वह कुल मिलाकर केन्द्र सरकार के अधीन आता है, लिहाजा केन्द्र सरकार तो पता लगा ही लेती होगी कि कौन बॉन्ड खरीद रहा है और किस पार्टी को दे रहा है. 

अगर विपक्षी दल को ज्यादा चंदा कोई एक कंपनी ज्यादा दे रही है तो केन्द्र सरकार ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों के माध्यम से दबाव डाल सकती है. कुछ जानकारों का कहना है कि अगर यह मान लिया जाए कि इलेक्‍टोरल बॉन्ड से काले धन पर रोक लगती है तो भी इसका फायदा सत्तारूढ़ दल को ही मिलता है. ऐसे इसलिए क्योंकि इलेक्‍टोरल बॉन्ड का बड़ा हिस्सा सत्तारूढ़ दल को ही मिलता है यानि उसके पास खर्च करने को पैसा ज्यादा होता है. अब चूंकि कहां किसने कितना पैसा जमा कराया,  खर्च किया या पेमेंट किया उसका ट्रेल पैन कार्ड की अनिवार्यता के कारण आसानी से पता लगाया जा सकता है. चूंकि आजकल सोशल मीडिया पर चुनाव लड़ा जाता है और वहां पैसा खर्च किया जाता है तो सत्तारूढ़ दल ज्यादा क्लीन मनी खर्च कर पाता है. इससे उसे चुनाव में ज्यादा लाभ मिलता है या मिलने की आशंका बनी रहती है. 

यानि इलेक्‍टोरल बॉन्ड के जरिए परोक्ष रूप से विपक्षी दलों के हाथ बांधे जा सकते हैं. अब अगर इलेक्‍टोरल बॉन्ड किसने खरीदा, कितना खरीदा, किस दल को कितना चंदा दिया आदि बातें अगर खुलकर सामने आ जाएंगी तो ऐसे लोगों के खिलाफ बदले की भावना से सत्तारूढ़ दल कार्रवाई करने से हिचकेगा क्योंकि आम वोटर की नजर में उसकी यह हरकत अलोकतांत्रिक मानी जाएगी. चंदा देने वाले भी खुलकर सामने आ पाएंगे. चंदा सत्तारूढ़ को ज्यादा मिलता है यह बात किसी से छुपी नहीं है. इलेक्‍टोरल बॉन्ड का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड हमारे पास नहीं है, लेकिन आमतौर पर यही माना जाता है कि बीजेपी को साठ फीसद से ज्यादा हिस्सा मिलता रहा है. 

एक आंकड़ा पांच चुनावी ट्रस्टों का हैं. इन ट्रस्टों ने 2021-22 में 72 फीसद चंदा बीजेपी को दिया. कांग्रेस के हिस्से में सिर्फ 3.8 फीसद चंदा आया. बीजेपी को 336 करोड़ मिले, कांग्रेस को 18 करोड़. इससे पहले के साल में बीजेपी को 212 करोड़ और कांग्रेस को साढ़े पांच करोड़ रुपये मिले थे. यह तथ्य इन दलों की तरफ से चुनाव आयोग में जमा कराए गए चंदे के हिसाब-किताब से सामने आए हैं. कांग्रेस से ज्यादा चंदा तो आम आदमी पार्टी को मिला. कुल मिलाकर 21 करोड़ रुपये. सभी दलों का हिसाब-किताब यह भी बताता है कि 80 फीसद से ज्यादा चंदा बीस हजार रुपये से कम का मिलता है जहां चंदा देने वाले के नाम की रसीद नहीं काटनी पड़ती. बसपा में तो सौ फीसद चंदा इसी तरह से आया. 

अब मजेदार बात है कि राजनीतिक दलों को तो बीस हजार से कम का चंदा मिल रहा है लेकिन इलेक्‍टोरल बॉन्ड एक करोड़ रुपये मूल्य से ज्यादा के मिल रहे हैं. यह अपने में विरोधाभासी भी है और चुनावी चंदे की तमाम गड़बड़ियों की पोल भी खोल देता है. बीस हजार रुपये से कम का चंदा देने वाले का नाम पता रखना सियासी दल के लिए जरूरी नहीं होता है यानि अज्ञात लोगों से चंदा मिला. यही बात इलेक्‍टोरल बॉन्ड खरीदने वालों पर भी लागू होती है.

फिलहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है, जिस पर अगली सुनवाई छह दिसंबर को होनी है. वैसे कोर्ट राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाने की एक याचिका पर भी इलेक्‍टोरल बॉन्ड की याचिका के साथ-साथ सुनवाई कर रही है. खुद मुख्य सूचना आयुक्त ने नौ साल पहले छह राष्ट्रीय दलों को नोटिस जारी करके पूछा था कि क्यों न उन्हें सूचना के अधिकार के तहत लाया जाए. इस पर बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी, बसपा, माकपा, भाकपा यानि किसी भी दल ने सहमति नहीं दी है. ऐसे में चुनावी चंदे की पारदर्शिता पर सवाल उठते ही रहे हैं और उठते ही रहेंगे.

गालिब का शेर है- बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.

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