हम पीरियड्स पर बात क्यों नहीं करना चाहते, ये शर्म की बात नहीं
कितनी ही लड़कियां, औरतें अखबार, रेत, उपले, लकड़ी का बुरादा, प्लास्टिक वगरैह इस्तेमाल करती रहती हैं. इसका नुकसान भी उठाना पड़ता है.

बारहा बोल-बोलकर हम थक चुके हैं. अब सरकारी आंकडों ने भी शोर मचा दिया है कि हमारे देश में 15 से 24 साल के बीच की 62% लड़कियां पीरियड्स के दिनों में कपड़ा ही इस्तेमाल करती हैं. बिहार की 82% लड़कियां ऐसा करती हैं, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की 81% लड़कियां मासिक चक्र के दिनों में कपड़ा का इस्तेमाल करती हैं. यह नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 का डेटा है. यूं कपड़ा होना भी गनीमत है क्योंकि कई बार वह भी नसीब नहीं होता पहले शरीर ढंकने को कपड़े चाहिए, फिर उनके पुराने-धुलाने, चिथड़े होने का इंतजार करना पड़ता है. तब कहीं जाकर पीरियड्स के समय उनका इस्तेमाल किया जाएगा.
कितनी ही लड़कियां, औरतें अखबार, रेत, उपले, लकड़ी का बुरादा, प्लास्टिक वगरैह इस्तेमाल करती रहती हैं. इसका नुकसान भी उठाना पड़ता है. बहुत सी रिप्रोडक्टिव ट्रैक इन्फेक्शन यानी आरटीई का शिकार हो जाती हैं. दसरा जैसे सामाजिक संगठन के अध्ययन कहते हैं कि पीरियड्स में असुरक्षित तरीके अपनाने वाली 70% औरतों को आरटीई का डर बना रहता है.
कोई लड़की या औरत ऐसा तरीका क्यों अपनाएगी? पर्यावरणविद कहते हैं कि सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल से प्रदूषण फैलता है. मैंस्ट्रुअल वेस्ट का हम करेंगे क्या? उसे जलाने से एयर पॉल्यूशन होता है. न जलाओ तो सॉलिड वेस्ट जमा होता जाता है. पर यह किसी आम महिला की समस्या क्यों होगी? पहले खुद के बारे में सोचेंगे तभी तो पर्यावरण की चिंता कर पाएंगे. तो, लड़कियां कपड़ा, अखबार वगैरह इसीलिए इस्तेमाल करती हैं क्योंकि सैनिटरी पैड्स खरीद नहीं पातीं. उनकी कीमत भी इतनी ज्यादा है.
पिछले साल ‘विमेन यू स्पीक’ नामक एक संस्था ने जब सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल पर औरतों से बातचीत की, तो 93 परसेंट महिलाओं ने कहा कि वे 30 रुपए के पैड्स की बजाय 30 रुपए का राशन खरीदना पसंद करेंगी. संस्था ने महीने में 5,000 रुपए कमाने वाले परिवारों के बीच बेंगलूर में यह सर्वे किया था. सिर्फ महंगाई ही एकमात्र कारण नहीं है. अक्सर कम पढ़े-लिखे होने के कारण रीप्रोडक्टिव हेल्थ को लेकर लोग सजग भी नहीं होते. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का यह भी कहना है कि जो औरतें स्कूल नहीं गई होतीं उनऔरतों के मुकाबले 12वीं तक पढ़ चुकी औरतों में पीरियड्स के दौरान हाइजीनिक उपाय करने की संभावना चार गुना होती है. मतलब शिक्षा समझदारी भी देती है और अपने फैसले खुद करने की ताकत भी.
कुछ दिक्कतें और भी हैं, अक्सर औरतों के पास पर्सनल स्पेस होता ही नहीं. जानकारी हुई, महंगे पैड्स खरीद भी लिए तो छोटे-छोटे घरों, झुग्गियों में उन्हें रखेंगी कहां, फिर पब्लिक टॉयलेट्स में उन्हें लेकर कैसे जाएंगी और डिस्पोज़ कहां करेंगी? यह सोचना भी जरूरी है. कई बार खुले में शौच की स्थिति होती है. जब शौचालय होगा तभी तो मैंस्ट्रुअल हाइजीन की बात आएगी. शिक्षा विभाग की एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट का कहना है कि देश में अब भी 47% स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग टॉयलेट नहीं होते. ऐसे में हम कहां सैनिटरी नैपकिन की बात लेकर बैठ रहे हैं.
हम बात नहीं करना चाहते लेकिन बात करेंगे, तभी गिरहें खुलेंगी. स्वच्छ सुखी सुरक्षा के साथ यह भी जुड़ा हुआ है कि पीरियड्स को लेकर शर्म न की जाए. सुखद है कि लड़कियां बोल्ड होकर कहने लगी हैं कि हमारी मैंस्ट्रुअल जरूरतें क्या हैं. लड़के भी इसे समझ रहे हैं. लड़कियां अपनी जरूरतें बयां करती हैं तो लड़के भी उनकी इज्जत करते हैं.
केरल के एक मेल आरजे जोसफ अनमकुट्टी जोस ने पीरियड्स पर लड़कों के माइंडसेट पर अच्छी खासी चर्चा की थी. अक्षय कुमार पैडमैन जैसी फिल्म लेकर आ रहे हैं और जगह-जगह मैन्स्ट्रुअल हाइजीन पर बातचीत कर रहे हैं. औरतों में भी बदलाव हो रहा है. पिछले दिनों सैनिटरी पैड्स पर जीएसटी की बात चली थी तो तिरुअनंतपुरम की 300 लड़कियों ने अपनी भड़ास को अलग तरीके से ही निकाली. उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली के दफ्तर में स्पीडपोस्ट से सैनिटरी पैड्स का गट्ठर भेजा जिन पर लिखा था- ब्लीड विदआउट फीयर, ब्लीड विदआउट टैक्स.
इसी तरह मुंबई में पिछले साल छह औरतें यह कहते हुए भूख हड़ताल पर बैठ गईं कि सैनिटरी नैपकिन्स को राशन की दुकानों पर मिलना चाहिए. उन पर जीएसटी नहीं लगना चाहिए. महाराष्ट्र सरकार भी केरल की तरह स्कूलों में सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीन्स लगाए. औरतों के सेल्फ हेल्प ग्रुप्स जो सैनिटरी पैड्स बनाते हैं, उन्हें सबसिडाइज्ड रेट्स पर बेचा जाए, वगैरह. ये सभी औरतें मिडिल क्लास की सामान्य शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाली थीं जो सैनिटरी पैड्स बनाने वाला सेल्फ हेल्प ग्रुप चलाती हैं. इन औरतों ने जब अपने पैड्स औरतों को मुफ्त बांटे तो छह महीने उन्हें इस्तेमाल करने के बाद औरतों ने पीरियड्स के दौरान कोई दूसरा उपाय अपनाने से इनकार कर दिया. इसीलिए चुप्पी तोड़ने की जरूरत है.
लड़कियां कह रही हैं कि ऐसा इंतजाम किया जाए कि हम भी सुरक्षित रहें और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे. आरामदायक कपड़े के बायोग्रेडेबल पैड्स बनाए जाएं जोकि सस्ते भी हों. क्यों न सरकारी तंत्र यह पहल करे. स्वास्थ्य केंद्रों में मुफ्त या बहुत कम कीमत में इन्हें बांटा जाए. ठीक उसी तरह, जैसे परिवार नियोजन के साधन बांटे जाते हैं. जन स्वास्थ्य सरकार की जिम्मेदारी क्यों न हो. 2016 में ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में महिला स्वास्थ्य के लिहाज से भारत की रैंकिंग 142 वीं है यानी नीचे से तीसरी. इसीलिए इस तरफ खास ध्यान देने की जरूरत है.
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