अनूठा विरोध: 20 हजार वोटर, 70 पदों पर चुनाव और एक भी उम्मीदवार नहीं
प्रयागराज में छात्रों ने जिस गांधीवादी तरीके से अपने आंदोलन को आगे बढ़ाया वह उनकी सियासी दूरदर्शिता का एहसास कराता है और साथ ही इस बात पर मुहर भी लगाता है कि यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा छात्रसंघ को खत्म करने का फैसला पूरी तरह मनमाना व तानाशाही भरा था।

प्रयागराज, मोहम्मद मोईन। एशिया के सबसे पुराने छात्रसंघ को खत्म करने के फैसले को लेकर इलाहाबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी प्रशासन को अब मुंह की खानी पड़ी है। यहां बीस हजार से ज़्यादा छात्रों के बीच सत्तर पदों पर होने वाले छात्र परिषद के चुनाव में अब सिर्फ एक उम्मीदवार ही बचा है। इस इकलौते प्रत्याशी के नामांकन को भी चुनौती दी गई है और तकनीकी आधार पर उसका भी परचा खारिज होना तय हो गया है। इतना ही नहीं यूनिवर्सिटी से जुड़े कई डिग्री कॉलेजों में तो एक भी नामांकन नहीं हुए हैं। छात्रों के इस गांधीवादी विरोध से साफ है कि यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पिछले दिनों यहां के छात्रसंघ को खत्म कर उसकी जगह छात्र परिषद गठित किये जाने का जो फैसला किया था, उसे सीधे तौर पर नकार दिया गया है।
यूनिवर्सिटी प्रशासन बैकफुट पर है। वह तय नहीं कर पा रहा है कि इस मामले में आगे क्या किया जाए। इस मामले में छात्र संगठन अब सीधे तौर पर वाइस चांसलर के खिलाफ हमलावर हो गए हैं और उनसे इस नैतिक हार के बाद सीधे तौर पर इस्तीफे की मांग करने लगे हैं। वैसे इस मुद्दे को लेकर यूनिवर्सिटी से लेकर शहर तक पिछले कुछ महीनों में खूब महाभारत हुआ है।

छात्रों पर कई बार लाठियां बरसाई गईं हैं। दर्जनों छात्र कई-कई बार जेल भेजे गए हैं। तमाम छात्रों को निलंबित व बर्खास्त किया गया है। हालांकि छात्रों ने जिस गांधीवादी तरीके से अपने आंदोलन को आगे बढ़ाया वह उनकी सियासी दूरदर्शिता का एहसास कराता है और साथ ही इस बात पर मुहर भी लगाता है कि यूनिवर्सिटी प्रशासन द्वारा छात्रसंघ को खत्म करने का फैसला पूरी तरह मनमाना व तानाशाही भरा था।
गौरतलब है कि पूरब के आक्सफोर्ड के नाम से मशहूर इलाहाबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ को न सिर्फ सियासत की नर्सरी कहा जाता था, बल्कि इसे एशिया के सबसे पुराने छात्रसंघ होने का भी गौरव हासिल है। 96 साल पुराने इस छात्रसंघ को इसी साल जून महीने में खत्म कर इसकी जगह छात्र परिषद का चुनाव कराए जाने का एलान किया गया था। छात्रसंघ में पदाधिकारियों का चुनाव जहां सीधे तौर पर बीस हजार से ज़्यादा वोटर छात्रों द्वारा किया जाता था, वहीं छात्र परिषद में सत्तर कक्षा प्रतिनिधियों व कुछ नामित सदस्यों के बीच ही पदाधिकारियों का चयन होता है। युनिवर्सिटी प्रशासन की दलील थी कि छात्रसंघ की वजह से कैम्पस में अराजकता का माहौल रहता है, इसलिए उसे बैन किया गया है।

यहां के छात्रसंघ ने देश को कई प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री - गवर्नर और मंत्री दिए हैं। यहां से राजनीति की एबीसीडी सीखकर देश के सियासी फलक तक पहुंचने वालों की फेरहिस्त काफी लम्बी है। इलाहाबाद युनिवर्सिटी छात्रसंघ ने देश को पूर्व राष्ट्रपति डा० शंकर दयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर - वीपी सिंह और गुलजारी लाल नंदा समेत पूर्व सीएम एनडी तिवारी व मदन लाल खुराना जैसे सियासी दिग्गजों को राजनीति की एबीसीडी सिखाई है।
बहरहाल, छात्रसंघ बैन किये जाने के बाद से ही छात्र संगठनों ने अपने आपसी मतभेद भुलाकर गांधीवादी तरीके से लगातार अहिंसात्मक आंदोलन किया। छात्रों पर कई बार बार हमले हुए। उन पर लाठीचार्ज किया गया। तमाम छात्रों को जेल भेजा गया, लेकिन छात्र न तो झुके और न ही डरे। इस बीच छात्र परिषद चुनाव का एलान किया गया। कक्षा प्रतिनिधियों के सत्तर पदों पर चुनाव की घोषणा की गई। अंतिम समय सीमा बीतने तक सत्तर पदों के लिए सिर्फ सत्रह नामांकन हुए। इनमे से पंद्रह ने अपने नामांकन बाद में वापस ले लिए। बचे हुए दो उम्मीदवारों में से भी एक ने अब चुनाव लड़ने से मना कर दिया है, जबकि इकलौती उम्मीदवार के नामांकन पर आपत्ति दाखिल है और उसने कोई डाक्यूमेंट्स भी दाखिल नहीं किया है। ऐसे में उसका परचा भी खारिज होना तय है।

कहा जा सकता है कि बीस हजार से ज़्यादा वोटरों के बीच एक भी छात्र को उम्मीदवार के तौर पर खड़ा करने के लिए तैयार न कर पाना यूनिवर्सिटी प्रशासन की न सिर्फ हार है, बल्कि उसके मुंह पर करारा तमाचा भी है। छात्रों के इस संदेश से यूनिवर्सिटी प्रशासन को यह नसीहत भी मिली है कि लोकतंत्र की नर्सरी को खत्म करने का उसका फैसला अलोकतांत्रिक व गलत था।
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Source: IOCL























