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इमरान के लिए मुश्किल होगा अपने कोच और सिलेक्टर की सलाह नकारना

किसी क्रिकेट मैच के विपरीत सियासत के खेल में इस जीत के बाद इमरान और उनकी टीम के लिए अब अपनी सत्ता की पारी बचाने की कवायद शुरू होगी.

नई दिल्लीः पाकिस्तान के चुनावी टूर्नामेंट में विजेता की ट्रॉफी क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के हाथ रही है. आम चुनावों में पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी 119 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी है. मगर किसी क्रिकेट मैच के विपरीत सियासत के खेल में इस जीत के बाद इमरान और उनकी टीम के लिए अब अपनी सत्ता की पारी बचाने की कवायद शुरू होगी.

ऐसे में भारत को इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि इमरान उन्हें सत्ता का कप्तान बनाने वाली सेना को खुश करने के लिए कुछ खतरनाक गेंदें भी फेंक सकते हैं. बीते दो दशक के वक्त में इमरान खान नियाज़ी की शख्सियत के कई रंग नज़र आये हैं. एक विश्वकप विजेता खिलाड़ी और युवाओं के नायक से भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा और फिर सेना के चहेते राजनेता व कट्टरपंथियों से साठगांठ करने वाले लीडर तक पहुंचे सफर में इमरान खान ने के बार यू-टर्न लिए हैं. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की पढ़ाई, एक बेहतरीन खिलाड़ी की अंतर्राष्ट्रीय पहचान व खुली सोच वाले नेता की पहचान के बावजूद सत्ता की खातिर वो ईशनिंदा कानून का समर्थन करते नज़र आते हैं.

क्या होगा भारत पर असर? जानकारों के मुताबिक फिलहाल इमरान की जीत को पाकिस्तानी फौज की फतह के तौर पर ही देखा जाना चाहिए. पूर्व विदेश राज्यमंत्री और संसद की विदेश मामलों संबंधी समिति के अध्यक्ष डॉ शशि थरूर कहते हैं की सियासत के इस मैच में इमरान खान की कोच भी सेना है और सिलेक्टर भी. सो, इमरान और उनकी पार्टी न केवल सेना के मुताबिक चलना चाहेगी बल्कि ऐसा करना उसकी मजबूरी भी होगी. पीटीआई को अपने दम पर बहुमत नहीं मिला है और ऐसे में सरकार बनाने के लिए उसे उन छोटे दलों पर निर्भर रहना होगा जिन्हें पाकिस्तान में मुल्ला-मिलिट्री एलायंस कहा जाता है. सेना के रहमोकरम पर जीने वाली यह कट्टरपंथी पार्टियां चुनावों में जहां एक वोटकटवा होती है वहीं ज़रूरत पड़ने पर फौज को अपने हिसाब से सत्ता का समीकरण बैठने में भी मदद करती हैं. इनकी मदद से ही इमरान की पीटीआई 137 का जादुई आंकड़ा छुएगी.

पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के मुताबिक सेना की मदद से सत्ता की कुर्सी तक पहुंचे इमरान की सरकार सेना और उसके इशारे पर काम करने वाले दलों पर निर्भर होगी. ऐसे में सेना ही तय करेगी की इमरान की सरकार भारत से कब, कैसे और कितनी बात करेगी. किन मुद्दों पर वो बात करेंगे.

गुरुवार को चुनाव नतीजों में बढ़त की तस्वीर साफ होने के बाद अपने विजय संबोधन में इमरान ने भारत से रिश्तों और कश्मीर के मुद्दे पर फौज के साथ कदमताल की बानगी भी दिखा दी. भारत से बेहतर संबंधों का रस्मी हवाला देने के साथ ही पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने को तैयार इस पठान नेता ने कहा कि "दोनों मुल्कों के संबंधों में मूल मुद्दा कश्मीर का ही है." इमरान ने कश्मीर में कथित मानवाधिकार उल्लंघन, भारतीय सैनिकों की मौजूदगी की बातें उसी सुर में कही जो सेना को सुहाती हैं.

विदेश नीति के जानकार इस बात की आशंका से भी इनकार नहीं करते कि कश्मीर से लेकर भारत के अन्य अलगाववादी गुटों को शह देने के पाकिस्तानी कार्यक्रम में आने वाले दिनों के दौरान कुछ तेज़ी नज़र आ सकती है. इतना ही नहीं, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, ईंधन संकट, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की गिरती साख और आतंकवाद से बदरंग होती छवि वाले पाकिस्तान की कमान संभाल रहे इमरान के लिए अपने चुनावी वादों को पूरा करना भी टेढ़ी खीर होगा. ऐसे में पाकिस्तान में चीन का दबदबा और दखल दोनों बढ़ेगा.

भारत और पाकिस्तान के चुनावी कलेंडर का हवाला देते हुए पूर्व विदेशमंत्री नटवर सिंह कहते हैं कि अगले एक साल तक पाकिस्तान के साथ बातचीत की किसी नई पहल या शांति प्रयासों की कोई जगह नहीं है. पाकिस्तान में चुनाव के बाद नई सरकार कामकाज समझने और संभालने में अभी एक-दो महीने का वक्त लगेगा. तब तक भारत में आम चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी होंगी.

कप्तान की शुरुआती गेंदों का स्विंग देख रहा भारतीय खेमा भारतीय खेमा अभी इमरान के बयानों पर किसी प्रतिक्रिया से पहले पाकिस्तान के सियासी हालात को तौलना चाहता है. खासकर ऐसे में जबकि चुनाव नतीज़ों को लेकर सत्ता से बाहर हुई नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल (एन) और पीपीपी ने सवाल उठाये हैं. सूत्रों का कहना है अभी पाकिस्तान की चुनावी प्रक्रिया ही पूरी नहीं हुई है. पाकिस्तानी चुनाव आयोग ने नतीज़ों का ऐलान भी नहीं किया है. ऐसे में इमरान खान ने जो भी कहा वो केवल एक उम्मीदवार का बयान है. उचित समय पर भारत सरकार अपनी आधिकारिक प्रतिक्रिया देगी.

पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रहे टीसीए राघवन भी इस राय से इत्तेफाक जताते हुए कहते हैं कि इमरान खान की नीतियों पर फिलहाल किसी ठोस आकलन पर पहुंचना जल्दबाज़ी होगी. चुनावी धुंध छंटने के बाद ही तस्वीर साफ होगी. राघवन कहते हैं की पाकिस्तान में सेना हमेशा से एक ताकतवर संस्था रही है. इमरान की जीत में उसकी भूमिका भी साफ हो गई. मगर पाक सेना भी भारत के साथ संबंधों को पूरी तरह खराब कर नहीं करना चाहेगी. ऐसे में बेहतर होगा की उनकी इमरान सरकार की शुरुआती गेंदों को देखकर भारत अपनी रणनीति तय करे.

क्या सेना को गुगली फेंक सकते हैं इमरान? यह सवाल उठना लाज़िमी है कि सेना की मदद से सत्ता के कप्तान बने इमरान फौज को ही गुगली फेंक दें और सूत्र अपने हाथ में ले लें? हालांकि, पाकिस्तानी सियासी तारीख के पुराने उदाहरणों और नवाज़ शरीफ जैसे नेताओं का हश्र देख इमरान ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेंगे. गौरतलब है की नवाज़ शरीफ को सियासत का ऊंचे पायदान पर पहली बार लाने वाले जनरल जिया उल हक थे. मगर बाद में परवेज़ मुशर्रफ और 2013 के बाद जनरल परवेज़ कियाने और मौजूद सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से उनके टकराव ने उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.

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