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अंत भला तो सब भला: इंतज़ार तो सबको पूरे करने पड़ते हैं

पर जीवन इतना सरल कहां, जब इंतज़ार लंबा लिखा हो तो सवारी कितनी ही तेज़ क्यों न हो, आदमी पहुंचता कहीं नहीं. अपने अपने हिस्से के इंतज़ार तो सबको पूरे करने पड़ते हैं.

अंत भला तो सब भला

विवेकभान सिंह झाला

अंत भला तो सब भला: इंतज़ार तो सबको पूरे करने पड़ते हैं

दीवाली का दिन था, जगमगाते दीए, फुलझड़ियों की झिलमिलाहट, सजे हुए बाज़ार, पूजाघर में गन्ने और धान के साथ लक्ष्मीपूजन और सभी घरों में मिठाइयों और ड्राइफ्रूट से सजी मेज़. रिश्तेदार, दोस्त और पड़ोसी एक दूसरे को तोहफे दे रहे थे. तोहफे में एक चीज़ आमतौर पर दी जाती है - सूखे मेवे (ड्राई फ्रूट) का डब्बा. और आमतौर पे ये डब्बा एक घर से दूसरे घर घूमता रहता है.

ऐसा ही एक डब्बा मिसेज़ गुप्ता ने सोसाइटी प्रेसिडेंट चौहान जी की बीवी को दिया. वैसे ये डब्बा मिसेज गुप्ता के पति को ऑफिस में उनके जूनियर चेतन जी ने दिया था. और चेतन को उनके साले जी ने, और साले जी को उनके डिस्ट्रीब्यूटर मल्होत्रा ने. लेकिन डब्बा खोला किसी ने नहीं. कई घरों में बच्चों ने खोलने की नाकाम कोशिश की, लेकिन उन्हें ये कहकर मना कर दिया गया कि "गिफ्ट पैक मत खोलो किसी को देने में काम आएगा."

उस तोहफे के रंगीन पन्नी में लिपटे डब्बे के अंदर छह खाने बने थे और उनमें रखे थे काजू, बादाम, अखरोट, द्राक्ष, अंजीर, और आखिर में सबसे खूबसूरत चीज़ "पिस्ते"! अपनी अधखुली आंखों सी खोल से झांकते हरे और सुर्ख शर्मीले से पिस्ते. ना जाने किस किस देश प्रदेश में उगे, कितने सफ़र किए, कितने तराजुओं पर तुले, भाव मोल हुए, तब कहीं जाकर इस डब्बे में भरे गए.

लेकिन तोहफे के खुलने का समय ही नहीं आ रहा. सब एक दूसरे को आगे से आगे टिकाए जा रहे थे. अरे कोई तो उन पिस्तों को अपने हाथ में उठाए, प्यार भरी नज़रों से देखे और अपने मुंह में रख के उनका स्वाद ले और बोले, "वाह क्या शानदार स्वादिष्ट पिस्ते हैं." बस तभी तो उन पिस्तों का जीवन सफल हो और उन्हें मोक्ष मिले. पर जीवन इतना सरल कहां, जब इंतज़ार लंबा लिखा हो तो सवारी कितनी ही तेज़ क्यों न हो, आदमी पहुंचता कहीं नहीं. अपने अपने हिस्से के इंतज़ार तो सबको पूरे करने पड़ते हैं.

उन पिस्तों में एक पिस्ता ऐसा भी था जिसका छिलका बाकी पिस्तों की तरह बदलते मौसम के साथ चटक (खुल) नहीं पाया. पर फिर भी वो छंटाई में बचता हुआ यहां तक आ पहुंचा. उसका इंतज़ार तो और भी लंबा होने वाला था क्योंकि जब तक एक भी सही पिस्ता डब्बे में होगा, उसे कोई हाथ नहीं लगाने वाला. और क्या जाने कोई खोलेगा भी या ऐसे ही फेंक देगा.

और फिर काफी लंबे इंतज़ार के बाद वो सूखे मेवे पहुंचे कोहली साहब के घर. दीवाली के अगले शाम कोहली साहब ने अपनी पसंदीदा सिंगल माल्ट व्हिस्की का पेग बनाया और नुसरत साहब की क़वाल्ली लगा के चुस्की लेने लगे. मैडम कोहली बाथरूम में थीं तो पेग के साथ का चखना ढूंढ़ने खुद ही रसोई में जा पहुंचे, और नज़र पड़ी चौहान जी के यहां से तोहफे में आए डब्बे पर. उन्होंने डब्बे के साथ साथ पिस्तों के नसीब खोल दिए और एक एक पिस्ते चुन चुन के खाने लगे. कोहली साब मस्त मौला आदमी थे, खाओ पियो और बत्ती भी मत बुझाओ, चालू रहने दो. बेपरवाह.

मैडम कोहली अंग्रेजी स्कूल में प्रिंसिपल थीं, एकदम कड़क, अनुशासन वाली लेकिन थीं बड़ी खूबसूरत, कॉलेज समय में मिस चंडीगढ़ रही हुई थीं. मॉडलिंग के ऑफर आए लेकिन पढ़ाई और स्पोर्ट्स में ज्यादा रुचि थी, इसलिए पीएच.डी. भी की और बास्केटबॉल के नेशनल्स भी खेले.

उन्होंने बाथरूम से आते ही देखा खुला डिब्बा और बिखरे पिस्ते के छिलके तो बोली - "ए की कित्ता? नया गिफ्ट पैक खोल दित्ता?"

कोहली साहब चुटकी लेते हुए बोले - "होर की करना है, इस डब्बे नू की द ममी बनाना सी?"

मैडम कोहली ने हाथ मारा अपने सर पे, और आज छोटी दीवाली भी पेग बना लित्ता? मैडम जी गुस्से में जाके दूसरे कमरे में टीवी देखने लगीं. कोहली साहब ने अपना तीसरा पेग ख़त्म किया और सारे पिस्तों को मोक्ष दे दिया, सिवाय उस बंद पिस्ते को. अब कौन ज़हमत उठाए कमबख्त इसे तोड़ने की.

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(विवेकभान सिंह झाला की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)

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