चोर सिपाही: डायरी व्यक्तिगत और गोपनीय दस्तावेज होती है
आगे जब डायरी शुरू होगी तो ऐसे कई आपत्तिजनक स्थल हैं जिनमें मैंने जानबूझ कर काफी शालीन शब्दों का प्रयोग किया है. जबकि सलीम का कहना था कि मैं उन्हें वैसा ही रहने दूं

चोर सिपाही
मो. आरिफ

पहले डायरी के बारे में दो शब्द मेरी ओर से, फिर तारीख ब तारीख डायरी. सलीम से जो डायरी मुझे मिली थी उसे मैंने ज्यों की त्यों नहीं छपवायी. सलीम की ऐसी कोई शर्त भी नहीं थी. पहले तो वह इसे मेरे हवाले ही नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसका मानना था कि यह डायरी और देखा जाय तो कोई भी डायरी, व्यक्तिगत और गोपनीय दस्तावेज होती है. लेकिन पूरी डायरी देखने के बाद मुझे लगा था कि इस लड़के की डायरी में ऐसे विवरण हैं... सारे नहीं, कुछेक... जो ‘व्यक्तिगत और गोपनीय’ का बड़ी आसानी से अतिक्रमण करते हैं. उन्हें पब्लिक डोमेन में लाना ही मेरी मंशा थी.
मैंने उसे समझाया तो वह मान गया. दरअसल वह पूरी तरह समझा नहीं, बस मान गया अपना लिखा हुआ छप रहा है... इस उत्कंठा में उसने डायरी मुझे सौंप दी- यह कहते हुए कि आप लेखक हैं... डायरी में जो अच्छा लगे छपवा दें. यानी जो हिस्से लोगों के सामने लाना है उन्हें अपनी शैली में, अर्थात एक लेखक की शैली में, एक लेखक की भाषा में, परिवर्तित करके प्रकाशित कर दें. बाकी के हिस्से में तो बस रोजमर्रा की जिन्दगी है, उसके अहमदाबाद प्रवास की दिनचर्या है- वह भी उन सात आठ दिनों की दिनचर्या जब उसके मामू के मुहल्ले में कर्फ्यू जैसे हालात थे और वह एक दिन एक घंटे एक पल के लिए भी घर से बाहर नहीं निकल पाया. घर में पड़े पड़े कोई क्या करेगा. सलीम की डायरी ऐसे माहौल और मानसिकता में रोज ब रोज लिखी गयी थी जिसमें बहुत सारे ब्यौरे थे. इन इंदिराजों को पूरा का पूरा लोगों के सामने परोसने का कोई अर्थ नहीं था. मेरी रुचि तो कुछ विशेष प्रसंगों और संदर्भों में ही थी.
लेकिन यहां एक समस्या थी. जैसा कि आप आगे देखेंगे, डायरी सिलसिलेवार ढंग से लिखी गयी थी- दस अप्रैल से शुरू होकर, यानी जिस दिन वह अहमदाबाद अपने मामू के यहां पहुंचता है, 18 अप्रैल तक- जिस दिन वह अपने मामू से कहता है अब मेरा मन यहां नहीं लग रहा है- घर भिजवा दें. 19 और 20 अप्रैल वाले पेज भी भरे हुए थे- लेकिन उनमें कुछ मेरे काम की सामग्री नहीं थी सिवाय इसके कि इस्माईल मामू की बड़ी याद आ रही है, गुलनाज अप्पी ने मेरी पतंगों का पता नहीं क्या किया होगा, नानी शायद अगली बार आने तक नहीं बचेंगी और मुमानी जान मेरे पहुंचते ही तुमको ये पका कर खिलायेंगे, तुमको वो पका कर खिलायेंगे का खूब राग अलापीं लेकिन उसके बाद माहौल ऐसा बना कि उन्हें अपनी पाक कला का प्रदर्शन करने का मौका ही नहीं मिला. तो बतौर लेखक मेरी समस्या यह थी कि जो ब्योरे मुझे सार्थक लगे थे उन्हें अगर मैं बीच बीच में से उठा कर उपयोग में लाता तो बात न बनती. उनका संदर्भ और उनका निहितार्थ आगे पीछे की तारीखों में थे जिन्हें सलीम रोजमर्रा के ब्यौरे या बोरिंग दिनचर्या कह रहा था.
तो मैंने उन्हें भी बिना कोई छेड़छाड़ किये उसी तरह ले लिया. वैसे भी सलीम की दिनचर्या मुझे इतनी उबाऊ नहीं लगी. कुछ ब्यौरे तो बड़े मजेदार लगे. लेकिन आगे बढ़ने से पहले मुझे सलीम से कुछ और बिन्दुओं पर सफाई चाहिए थी. पहले तो भाषा को लेकर. जब पहली बार मैंने डायरी पढ़ी तो लगा इसमें किसी तरह की छेड़छाड़ या कतरव्यौंत करना उचित नहीं होगा जबकि कांटछांट की गुंजाइश बनती थी. जब मैंने डायरी दूसरी बार पढ़ी तो मैंने नोट किया कि विवरणों में उर्दू के शब्द बहुधा से भी अधिक ही आ रहे थे- और कुछ तो ऐसे शब्द थे जिनके लिए हिन्दी के या फिर आमफहम उर्दू के शब्द जिन्हें हम हिन्दुस्तानी भी कह सकते हैं प्रयोग करना आवश्यक लगा.
मुमानी की जगह मामी, सितम की जगह जुल्म, सितमगर की जगह जालिम, अस्मत की जगह इज्जत मुझे ज्यादा मौजूं लगा. 15 अप्रैल को सलीम ने अपनी मामी के हवाले से यह दर्ज किया है- ‘‘मामी आसमान की ओर हाथ उठा कर बोलीं...ए अल्लाह रहम करना, मौला हिफाजत... जानमाल की और हमारी अस्मतों की. उन्होंने बहुत सितम ढाये हैं हम पर... सितमगर हैं ये लोग.’’ तो जहां जरूरी लगा मैंने शब्द बदल दिये- यह मानते हुए कि सलीम ने इतनी छूट मुझे दे दी है.
इसी प्रकार कहीं कहीं हिन्दी के ऐसे क्लिष्ट और पुरातन शब्दों का प्रयोग किया है जो अब चलन में नहीं रहे. फर्ज कीजिए कोई कहे म्लेम्छ बाहर से आकर....ऐसे वाक्यों से अप्रचलित शब्दों को सुविधापूर्वक हटा दिया है. लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी कर सका हूं. ऐसा जल्दबाजी में हुआ लगता है. सलीम के ननिहाल के कुछ सदस्य विशेषकर उसके छोटे मामू हिन्दुओं के लिए ‘काफिर’, आतंकवाद के लिए दहशतगर्दी, फासिस्ट के लिए ‘मोदी’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. सलीम से पूछ कर ऐसे शब्दों को मैंने हटा दिया है. तथ्यों को लेकर भी मैंने कुछ लिबर्टी ली है. ऐसे विवरण जिसमें पता चलता है कि दंगों या धमाकों के समय अल्पसंख्यक समुदाय के लोग बहुसंख्यकों के बारे में, अपने नेताओं के बारे में- यहां तक कि गांधी और नेहरू के बारे में, और यह भी कि अपने देश हिन्दुस्तान के बारे में कैसी घटिया घटिया बातें करते हैं, गुस्से में क्या क्या बोल जाते हैं, उन्हें मैंने सेंसर कर दिया है.
आगे जब डायरी शुरू होगी तो ऐसे कई आपत्तिजनक स्थल हैं जिनमें मैंने जानबूझ कर काफी शालीन शब्दों का प्रयोग किया है. जबकि सलीम का कहना था कि मैं उन्हें वैसा ही रहने दूं. हां 18 अप्रैल के पेज पर जो कुछ भी दर्ज है, वह हूबहू सलीम की डायरी से उतारा गया है- सिर्फ एक अपवाद है. भीड़ जब मामू के घर पहुंचती है तो लोग भगवा गमछा पहने रहते हैं. सलीम ने इसका बड़ा सजीव और अगर सच कहें तो आतंकित कर देने वाला चित्रण किया है. मैंने इसे छांट दिया है. बाकी इस तारीख में, मैंने कहीं कलम नहीं चलायी है. पराग मेहता से जुड़े कुछ प्रसंग मेरे द्वारा सम्पादित किये गये हैं- लेकिन सिर्फ शब्दों के स्तर पर. सलीम के अहमदाबाद से लौट आने के लगभग डेढ़ महीने बाद गुलनाज अप्पी ने उसे एक पत्र लिखा. डायरी के अंत में उस पत्र को उसके मूल रूप में ही दे दिया गया है.
पूरी किताब फ्री में जगरनॉट ऐप पर पढ़ें. ऐप डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें.
(मो. आरिफ की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
टॉप हेडलाइंस
Source: IOCL





















