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मोदी के साथ वाजपेयी वाला खेल करेंगे नायडू? 25 साल पहले टीडीपी की वजह से कैसे गिर गई थी बीजेपी की सरकार, पढ़ें

चंद्रबाबू नायडू स्पीकर पद के जरिए सरकार पर कंट्रोल कर सकती है क्योंकि संविधान में स्पीकर को कई अधिकार दिए गए हैं. टीडीपी इस पद के जरिए सरकार से कई शर्तें मनवा सकती है.

भारतीय जनता पार्टी (BJP) और उसके सहयोगी दलों ने एनडीए की बैठक में ये ऐलान कर दिया है कि नरेंद्र मोदी ही तीसरी बार भी देश के प्रधानमंत्री होंगे. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उस पद पर बने रहने की सबसे जरूरी शर्त ये है कि एनडीए के दो सहयोगी यानी कि चंद्र बाबू नायडू और नीतीश कुमार बीजेपी के साथ बने रहें. इस साथ के बने रहने के लिए चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी की ओर से जो सबसे जरूरी शर्त रखी गई है, वो है लोकसभा अध्यक्ष का पद. यानी कि चंद्रबाबू नायडू चाहते हैं कि सरकार के समर्थन के बदले उनकी पार्टी को केंद्रीय कैबिनेट में तो जगह मिले ही मिले, लोकसभा अध्यक्ष का पद भी उनकी ही पार्टी के पास रहे.

चंद्र बाबू नायडू की पार्टी का जो इतिहास रहा है और बतौर लोकसभा अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के सांसद ने इतिहास में बीजेपी के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जो किया है, उसे शायद ही बीजेपी के लोग भूल पाए होंगे. तो आखिर इतिहास में टीडीपी ने ऐसा क्या किया है कि बीजेपी नायडू की पार्टी को लोकसभा अध्यक्ष का पद देने से हिचकिचा रही है और आखिर क्या है वो कहानी, जिसे अगर तेलगु देशम पार्टी दोहरा दे तो फिर नरेंद्र मोदी के लिए प्रधानमंत्री के पद पर बने रहना बहुत बड़ी चुनौती हो जाएगी.

संविधान में स्पीकर के लिए क्या है ताकत?
भारतीय संविधान के आर्टिकल 93 और 178 में लोकसभा के अध्यक्ष पद का जिक्र है. इन्हीं दो आर्टिकल में लोकसभा अध्यक्ष की ताकत का भी विस्तार से जिक्र किया गया है. लोकसभा अध्यक्ष की सबसे बड़ी ताकत तब होती है, जब सदन की कार्यवाही चल रही होती है. यानी कि संसद का सत्र चल रहा हो, तो लोकसभा अध्यक्ष ही उस सत्र का कर्ता-धर्ता होता है. लोकसभा और राज्यसभा के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करने की जिम्मेदारी भी स्पीकर की ही होती है.

लोकसभा में विपक्ष के नेता को मान्यता देने का काम भी स्पीकर का ही होता है. स्पीकर ही तय करता है कि बैठक का एजेंडा क्या है. सदन कब चलेगा, कब स्थगित होगा, किस बिल पर कब वोटिंग होगी, कौन वोट करेगा, कौन नहीं करेगा जैसे तमाम मुद्दे पर फैसला स्पीकर को ही लेना होता है. यानी कि संसद के लिहाज से देखें तो स्पीकर का पद सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है. जब सदन चल रहा होता है तो सैद्धांतिक तौर पर लोकसभा अध्यक्ष का पद किसी पार्टी से जुड़ा न होकर बिल्कुल निष्पक्ष होता है.

क्यों स्पीकर पद पर अड़े हैं चंद्रबाबू नायडू?
फिर सवाल है कि एनडीए में बने रहने के लिए और नरेंद्र मोदी को लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिए आखिर टीडीपी क्यों चाहती है कि स्पीकर का पद उसके पास ही रहे. इसका एक लाइन में जवाब है सरकार पर नियंत्रण. ये नियंत्रण कैसे होगा, चलिए इसको भी समझ लेते हैं. अब ये तो तय है कि सरकार बीजेपी की नहीं बल्कि एनडीए की है. यानी कि नरेंद्र मोदी अब गठबंधन के प्रधानमंत्री हैं. ऐसे में अगर कभी किसी वक्त में टीडीपी या कहिए कि चंद्रबाबू नायडू की बात नहीं मानी गई या जिन शर्तों के साथ टीडीपी ने बीजेपी को समर्थन दिया है, कभी उन शर्तों को तोड़ा गया और चंद्रबाबू नायडू ने सरकार से समर्थन वापस लिया तो जिम्मेदारी स्पीकर की होगी कि वो नरेंद्र मोदी को बहुमत साबित करने के लिए कह दे.

इस दौरान अगर किसी दूसरे दल के सांसद ने पक्ष में या विपक्ष में वोटिंग की तो फिर स्पीकर के पास अधिकार होगा कि वो उस सदस्य को अयोग्य घोषित कर दे. अविश्वास प्रस्ताव आने की स्थिति में दलों में टूट स्वाभाविक होती है और दल-बदल के तहत किसी सांसद को अयोग्य घोषित करने का अधिकार स्पीकर के पास ही होता है. स्पीकर चाहे तो संसद के सदस्यों को कुछ वक्त के लिए सदन से निलंबित करके सदन के संख्या बल को भी प्रभावित कर सकता है. लिहाजा अविश्वास प्रस्ताव के दौरान स्पीकर का पद सबसे अहम हो जाता है. और भविष्य में कभी ऐसी नौबत आती है तो ताकत चंद्रबाबू नायडू के हाथ में ही रहे, इसलिए वो स्पीकर का पद अपनी पार्टी में चाहते हैं.

25 साल पहले कैसे टीडीपी ने बीजेपी के साथ किया था खेला?
बीजेपी स्पीकर का पद नायडू को देने से कतरा क्यों रही है, इसकी एक पुरानी कहानी है. ये कहानी करीब 25 साल पुरानी है. तब अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया था. उन्हें सदन में अपना बहुमत साबित करना था. 17 अप्रैल 1999 को इस प्रस्ताव पर वोटिंग होनी थी. तब वाजपेयी के चाणक्य कहे जाने वाले प्रमोद महाजन ने अनुमान लगा लिया था कि बहुमत उनके साथ है और वाजपेयी अपनी कुर्सी बचा लेंगे. मायावती सरकार से अलग हो चुकी थीं. जयललिता के समर्थन वापसी की वजह से ही ये नौबत आई भी थी. बाकी नेशनल कॉन्फ्रेंस के सैफुद्दीन सोज भी वाजपेयी सरकार के खिलाफ हो गए थे. फिर भी वाजपेयी सरकार को बहुमत था, लेकिन खेल तब पलट गया जब कांग्रेस के एक और सांसद गिरधर गमांग को लोकसभा में वोट देने का अधिकार मिल गया.

गिरधर गमांग कांग्रेस के सांसद थे, लेकिन 17 फरवरी 1999 को ही वो ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे. प्रमोद महाजन इस गलतफहमी में थे कि गिरधर गमांग ने सांसद पद से इस्तीफा दे दिया है और वो सिर्फ मुख्यमंत्री हैं. कांग्रेस को याद था कि उनका मुख्यमंत्री सांसद भी है. तो लंबे वक्त तक संसद से बाहर रहे गिरधर गमांग अचानक से 17 अप्रैल को लोकसभा में पहुंच गए. उनकी मौजूदगी से सत्ता पक्ष में खलबची मच गई. मामला लोकसभा अध्यक्ष तक पहुंच गया. तब लोकसभा के अध्यक्ष हुआ करते थे इन्हीं चंद्रबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी के सांसद जीएम बालयोगी.

जीएम बालयोगी ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके तब के लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल एस गोपालन की तरफ एक पर्ची बढ़ाई. गोपालन ने उस पर कुछ लिखा और उसे टाइप कराने के लिए भेज दिया. उस कागज में जीएम बालयोगी ने रूलिंग दी कि गिरधर गमांग अपने विवेक के आधार पर वोटिंग करें. गमांग ने अपनी पार्टी की बात सुनी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट किया. यही वो एक वोट था, जिसकी वजह से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई. तब सरकार के पक्ष में 269 वोट और सरकार के खिलाफ कुल 270 वोट पड़े थे.

लोकसभा स्पीकर का पद लोकतंत्र में कितना अहम होता है, उसे इस उदाहरण से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. बाकी स्पीकर के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने पर भी कोई बड़ा फायदा नहीं होता है. बिल पास करते वक्त कोई बिल मनी बिल है या नहीं, ये तय करने का अधिकार भी स्पीकर के पास ही होता है. ऐसे में स्पीकर का पद अपने पास रखकर चंद्रबाबू नायडू अपनी उन सभी शर्तों को मनवाने के लिए बीजेपी को मजबूर कर सकते हैं, जो शर्तें उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाते वक्त रखी थीं.

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