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पंडित जसराज के नाम पर है सौरमंडल में एक ग्रह का नाम, जानें उनके बारे में

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पद्म विभूषण पंडित जसराज का अमेरिका के न्यूजर्सी में अपने आवास पर सोमवार की सुबह 5 बजकर 15 मिनट पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया.

नई दिल्ली: ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले’ पंडित जसराज ने इस साल जनवरी में अपने 90वें जन्मदिन पर ये शेर पढते हुए कहा था कि उम्र तो महज एक आंकड़ा है और अभी मुझे बहुत कुछ करना है लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पद्म विभूषण पंडित जसराज का अमेरिका के न्यूजर्सी में अपने आवास पर सोमवार की सुबह 5 बजकर 15 मिनट पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. पंडित जसराज का सबसे बड़ा योगदान शास्त्रीय संगीत को जनता के लिये सरल और सहज बनाना रहा जिससे उसकी लोकप्रियता बढ़ी. उन्होंने ख्याल गायकी में ठुमरी का पुट डाला जो सुनने वालों के कानों में मिसरी घोल जाता था. वह बंदिश भी अपने जसरंगी अंदाज में गाते थे.

शास्त्रीय संगीतकार होने के बावजूद उन्हें नये दौर के संगीत से गुरेज नहीं था. वह दुनिया भर का संगीत सुनते थे और सराहते थे. जगजीत सिंह की गजल ‘सरकती जाये रूख से नकाब’ उनकी पसंदीदा थी और एक बार दिन भर में वह सौ बार इसे सुन गए थे. भारत, कनाडा, अमेरिका समेत दुनिया भर में संगीत सिखाने वाले पंडित जसराज खुद अपने शिष्यों से सीखने को लालायित रहते थे.

28 जनवरी 1930 को हरियाणा के हिसार में जन्में मेवाती घराने के अग्रणी गायक पंडित जसराज ने आठ दशक से अधिक के अपने सुनहरे सफर में यूं तो कई सम्मान और पुरस्कार हासिल किये. लेकिन पिछले साल इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन (IAU) ने अगस्त में सौरमंडल में एक छोटे ग्रह का नाम उनके नाम पर रखा गया और यह सम्मान पाने वाले वह पहले भारतीय कलाकार बने.

उनसे पहले सिर्फ मोजार्ट बीथोवन और टेनर लूसियानो पावारोत्ति को यह सम्मान मिला था. उन्होंने इस बारे में कहा था, 'मुझे तो ईश्वर की असीम कृपा दिखती है. सूर्य की प्रदक्षिणा कर रहा है यह ग्रह. भारत और भारतीय संगीत के लिए ईश्वर का आशीर्वाद है.' शास्त्रीय संगीत के सशक्त हस्ताक्षर होने के साथ पंडित जसराज ने अर्ध शास्त्रीय शैली जैसे हवेली संगीत को भी लोकप्रिय बनाया. उन्होंने मंदिरों में भजन गाये और उनके गाये कृष्ण भजन खासकर ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ दुनिया भर में लोकप्रिय हुए. उन्होंने नयी तरह की जु्गलबंदी ‘जसरंगी’ भी रची और अबीरी तोड़ी और पटदीपकी जैसे नये रागों का सृजन किया.

उम्र के नौ दशक पार करने के बाद जब उनसे पूछा गया कि क्या कोई ख्वाहिश अभी भी अधूरी है, तो उनका जवाब था ‘‘ गालिब ने कहा है, हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले. इतने बड़े शायर जब यह बात कह गए, तो हम तो बहुत पीछे हैं. किसी भी इंसान की ख्वाहिश कभी पूरी नहीं होती.’’ उन्होंने कहा था,‘‘ मैंने कभी सोचा या चाहा भी नहीं, वो चीजें भगवान से मिल गई तो अब क्या चाहूं या क्या कहूं. पद्मश्री मिला तो मेरी आधी जान निकल गई थी. उसके बाद पद्मविभूषण तक मिला. बिना सोचे यहां तक आ गए तो आगे पता नहीं ईश्वर ने क्या लिखा है, उन्हीं पर छोड़ देते हैं.’’

पंडित जसराज कहते थे कि जब वह गाते हैं तो ईश्वर को सामने खड़ा पाते हैं और फिर उन्हें किसी का भान नहीं रहता. पंडित जसराज उस वाकये का जिक्र हमेशा करते थे जब 1952 में तत्कालीन नेपाल नरेश त्रिभुवन विक्रम के सामने दी गई प्रस्तुति पर उन्हें पुरस्कार में मोहरें मिली थीं. उन्हें करीब 5000 मोहरें दी गई थीं और वह यह जानकर लगभग अचेत हो गए थे कि गाने के लिये पैसे भी मिलते हैं. देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण (2000 में) से नवाजे जा चुके जसराज को 1975 में पद्मश्री सम्मान मिला था जिस पर वह इतने हैरान हुए थे कि उन्होंने चुप्पी ही साध ली थी.

उन्हें यकीन करने में काफी समय लगा हालांकि उसके बाद तो अनगिनत सम्मान और पुरस्कार उनकी झोली में आये. उनके निधन से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की स्वर्णिम पीढ़ी का एक और दैदीप्यमान दीप बुझ गया.

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