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मायावती का हैप्पी बर्थडे लेकिन राजनीति में अभी हैप्पी दिन दूर

यूपी की पूर्व सीएम मायावती के 65वें जन्मदिन के अवसर पर इस साल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के कार्यालय में कोई समारोह, कोई केक-कटिंग और कोई भव्य आयोजन नहीं होगा. मायावती ने इस साल अपना जन्मदिन नहीं मनाने का फैसला किया है.

नई दिल्ली: सब समस्या का फेर है. समय और सत्ता का रिश्ता ही कुछ ऐसा है. सत्ता में रहने पर बहन जी के बर्थ डे की चर्चा देश भर में होती थी. बड़े बड़े नेता उन्हें हैप्पी बर्थ डे कहते थे. हीरे के गहने पहन कर मायावती केक काटती थीं. उन्हें टीवी पर लाइव देख कर लाखों समर्थक तालियां बजाते थे. उनके पसंदीदा नीले रंग के फूल से मंच सजता था. इसे दलितों के मान सम्मान का उत्सव बताया और दिखाया जाता था. उनके हर बर्थ डे पर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की क़समें खाई और खिलाई जाती थी. लेकिन बदला तो सब कुछ बदल गया.

मायावती के जन्मदिन पर नहीं होगा कोई उत्सव सबसे बड़ी बात तो ये है कि मायावती भी बदलने लगी है. पॉलिटिक्स में तो ये कहा जाता है कि मायावती की माया बस वही जानें. इस बार बहन जी का जन्मदिन फीका रहेगा. कोई उत्सव नहीं मनाया जायेगा. न ही लोग उन्हें हैप्पी बर्थ डे कहेंगे. ये फ़ैसला खुद मायावती का है. अपने 65वें जन्म दिन पर वे दिल्ली में रहेंगी. वैसे तो हर बार वे अपना बर्थ डे लखनऊ में मनाती थीं. लेकिन कोविड के कारण इस बार उन्होंने तौर तरीक़े बदल लिए हैं.

मेरे संघर्षमय जीवन और बीएसपी मूवमेंट का सफ़रनामा किताब का विमोचन करेंगी मायावती मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं से अपने जन्म दिन को जन कल्याणकारी दिवस के रूप में मनाने को कहा है. उन्होंने इस मौक़े पर सबको केक काटने से मना किया है. अपने समर्थकों से उन्होंने लोगों की मदद करने को कहा है. इस मौक़े पर वे मेरे संघर्षमय जीवन और बीएसपी मूवमेंट का सफ़रनामा किताब का विमोचन भी करेंगी. हर साल ये किताब वे खुद लिखती है. इस बार इसका 16वां एडिशन है. रोचक बात ये है कि ये किताब बीएसपी के कुछ ख़ास लोगों और दलित चिंतकों को ही दी जाती है.

चुनावी राजनीति वे सारे प्रयोग कर चुकी हैं मायावती यूपी में बीजेपी के मज़बूत होने से मायावती दिनों दिन कमजोर होती जा रही हैं. पिछले नौ सालों से वे यूपी की सत्ता से बाहर हैं. वे चार बार राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. बीजेपी के साथ मिल कर सरकार चला चुकी हैं. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ चुकी हैं. कहने का मतलब ये है कि चुनावी राजनीति वे सारे प्रयोग कर चुकी हैं. पिछला लोकसभा चुनाव उन्होंने अखिलेश यादव के साथ मिल कर लड़ा. कुछ फ़ायदा हुआ. पार्टी को 10 सीटों पर विजय मिली.

2014 के चुनाव में बीएसपी का खाता तक नहीं खुला था इससे पहले 2014 के चुनाव में तो इनकी पार्टी बीएसपी का खाता तक नहीं खुल पाया था. 2007 का यूपी चुनाव मायावती ने दलित ब्राह्मण समीकरण के बूते जीत लिया. लेकिन 2017 में उनका दलित मुस्लिम फ़ार्मूला नहीं चल पाया. मायावती खुद अभी न तो विधायक हैं और न ही सांसद. अगले साल की शुरुआत में यूपी में चुनाव है. उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाए और बनाए रखने की है.

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