Explained: इंदिरा गांधी से पीएम मोदी तक, बड़े नेता दो सीटों पर चुनाव क्यों लड़ते, हारने का डर या वजहें कुछ और?
ABP Explainer: एक उम्मीदवार एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ सकता है. अगर वह दोनों सीटें जीतता है, तो उसे 14 दिनों में एक सीट छोड़नी होती है.

भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक, सभी बड़े नेताओं ने एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ा. इसकी कई वजहें हैं, जिनमें चुनाव हारने का डर और पार्टी का वर्चस्व भी शामिल है. इतना ही नहीं, संविधान में इसे लेकर कानून भी है. अब बिहार विधानसभा चुनाव में भी तेजस्वी यादव के दो सीटों पर चुनाव लड़ने की खबरें तेज हैं.
तो आइए ABP एक्सप्लेनर में समझते हैं कि बड़े नेता दो सीटों पर इकट्ठा चुनाव क्यों लड़ते, दो सीटों पर चुनाव की स्ट्रैटजी क्या और इसका कितना फायदा-कितना नुकसान...
सवाल 1- भारत में एक साथ कई सीटों पर चुनाव लड़ने का कानून क्या है?
जवाब- रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1951 की धारा 33(7) के तहत, एक उम्मीदवार लोकसभा या विधानसभा चुनाव में एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ सकता है. अगर वह दोनों सीटें जीतता है, तो उसे 14 दिनों में एक सीट छोड़नी होती है. अगर कोई उम्मीदवार ऐसा नहीं करता तो धारा 70 के तहत दोनों सीटें खाली मानी जाती हैं. उप-चुनाव में पार्टी को फिर से उम्मीदवार उतारना पड़ता है, जो कभी-कभी जोखिम भरा होता है.
इलेक्शन कमीशन ऑफ इंडिया यानी ECI ने 2018 में सुप्रीम कोर्ट में कहा कि इस नियम को बदलकर एक सीट तक सीमित करना चाहिए, ताकि संसाधनों की बर्बादी और मतदाताओं की निराशा कम हो.
सवाल 2- एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ने की प्रथा कब शुरू हुई और कौन से नेता ऐसा कर चुके हैं?
जवाब- यह प्रथा 1951-52 में भारत के पहले लोकसभा चुनाव से शुरू हुई. जवाहरलाल नेहरू ने इसका पहला उदाहरण पेश किया.
- 1952 में विष्णु घनश्याम देशपांडे ने मध्य भारत में गुना और ग्वालियर से एक साथ चुनाव लड़कर जीत दर्ज की थी. वे अखिल भारतीय हिंदू महासभा के महासचिव थे. देशपांडे पहले नेता थे, जिन्होंने एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़कर जीत हासिल की. उन्होंने गुना सीट अपने पास रखी और ग्वालियर सीट छोड़ दी थी.
- 1971 में इंदिरा गांधी ने भी एक साथ दो सीटों- रायबरेली (उत्तर प्रदेश) और मेदक (आंध्र प्रदेश) से चुनाव लड़ा और दोनों सीटों पर जीत हासिल की. इंदिरा गांधी ने मेदक अपने पास रखी और रायबरेली में उप-चुनाव हुआ, जिसमें अरुण नेहरू ने जीत हासिल की.
- 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा. वे मध्य प्रदेश के ग्वालियार और भोपाल दोनों सीटों से जीते. उन्होंने ग्वालियार रखकर भोपाल सीट छोड़ दी. भोपाल में उप-चुनाव हुआ, जिसमें बीजेपी हार गई.
- 2004 में सोनिया गांधी ने अमेठी (उत्तर प्रदेश और बेल्लारी (कर्नाटक) से लोकसभा चुनाव लड़ा और दोनों सीटें जीतीं. उन्होंने अमेठी अपने पास रखा और बेल्लारी में उप-चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस हार गई.
- 2014 में नरेंद्र मोदी ने भी दो सीटों पर दांव खेला. वे गुजरात की वडोदरा और उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीटों पर जीत गए. पीएम मोदी ने वाराणसी सीट रखी और वडोदरा में उप-चुनाव हुए, जिसमें बीजेपी की रंजनबेन धनंजय जीतीं.

- 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने भी दो सीटों- अमेठी (उत्तर प्रदेश) और वायनाड (केरल) से चुनाव लड़ा. वे वायनाड से जीते और अमेठी से हार गए.
- 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने भी दो सीटों (कन्नौज और मैनपुरी) से चुनाव लड़ा था. वे दोनों सीटें जीते. उन्होंने मैनपुरी सीट रखी और कन्नौज सीट छोड़ दी. इस पर उप-चुनाव हुआ, जहां पत्नी डिंपल यादव ने जीत हासिल की.
अब बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव भी दो सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं. एक राघोपुर और दूसरी फुलपरास हो सकती है.
सवाल 3- भारत की राजनीति में बड़े नेता एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव क्यों लड़ते हैं?
जवाब- सीनियर जर्नलिस्ट और पॉलिटिकल एक्सपर्ट हर्षवर्धन त्रिपाठी के मुताबिक, इसकी 2 बड़ी वजहें हैं...
- अपनी और पार्टी की छवि मजबूत करना: दो सीटों पर चुनाव लड़कर नेता अपनी और पार्टी की छवि मजबूत करते हैं. इससे उनकी लोकप्रियता और पार्टी का प्रभाव बढ़ता है, वोट बैंक और क्षेत्रीय आधार मजबूत होता है. जैसे 2014 में पीएम मोदी ने वडोदरा और वाराणसी से लड़कर बीजेपी को गुजरात और उत्तर प्रदेश में बूस्ट दिया.
- चुनाव हारने का डर: नेताओं को डर होता है कि अगर एक सीट पर हार गए, तो दूसरी सीट से जीतकर वे संसद या विधानसभा में जगह पक्की कर सकते हैं. इस तरह वे सदन से बाहर नहीं होते. राजनेता के लिए सदन में बने रहने की असल लड़ाई होती है. जैसे 2019 में राहुल गांधी ने अमेठी हारी, लेकिन वायनाड से जीत गए.
सवाल 4- एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के फायदे क्या हैं?
जवाब- हर्षवर्धन त्रिपाठी के मुताबिक, इसके 3 बड़े फायदे होते हैं...
- वर्कर मोबिलाइजेशन होना: अगर कोई बड़ा नेता एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ता है, तो उस इलाके के वर्कर मोबिलाइज होते हैं, यानी उनमें उत्साह बढ़ता है और वे चुनाव में पूरी तरह एक्टिव हो जाते हैं. इससे नेता की छवि भी सुधरती है, क्योंकि वह उस क्षेत्र में पूरे लाव-लश्कर के साथ पहुंचता है.
- चुनावी वातावरण सुधरना: दो सीटों पर चुनाव लड़ने से चुनावी वातावरण सुधरता है यानी माहौल उस नेता के पक्ष में हो जाता है. इससे नेता की स्ट्रेंथ भी दिखती है कि वे एक साथ दो सीटों पर चुनाव प्रचार करता है और जीतने के लिए जी-जान लगा देता है. इससे उसकी पॉजिटिव इमेट बनती है.
- राजनीतिक पार्टी का फायदा: इससे पार्टी को भी फायदा होता है, क्योंकि उनका नाम और लोकप्रियता कई इलाकों में वोट खींचती है, जिससे पार्टी के अन्य उम्मीदवारों को भी समर्थन मिलता है. बड़े नेता के चुनाव लड़ने से उस क्षेत्र में पार्टी का प्रचार बढ़ता है और चुनावी माहौल उसके पक्ष में हो जाता है. जैसे 2004 में सोनिया गांधी ने बेल्लारी से चुनाव लड़कर कर्नाटक में कांग्रेस को प्रचार बढ़ाने में मदद की.
सवाल 5- क्या एक से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने के नुकसान भी हैं?
जवाब- पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई के मुताबिक, इस प्रथा के 3 बड़े नुकसान हैं...
- उप-चुनाव का खर्च: एक सीट छोड़ने पर उप-चुनाव होता है, जिसका खर्च करोड़ों में आता है. ECI के मुताबिक, 2004 से 2018 में ऐसे उप-चुनावों पर 50 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हुए.
- मतदाताओं का टूटता भरोसा: जब नेता एक सीट छोड़ता है, तो उस क्षेत्र के वोटर निराश होते हैं. जैसे 2004 में बेल्लारी वोटरों ने सोनिया गांधी को जिताया, लेकिन सीट छोड़ने पर उप-चुनाव में बीजेपी जीती थी.
- विपक्ष का हथियार: विपक्षी पार्टियां इसे 'लालच' या 'धोखा' कहकर प्रचार करती हैं. जैसे 2019 में बीजेपी ने राहुल गांधी के वायनाड-अमेठी पर सवाल उठाए थे. बीजेपी ने राहुल गांधी को लेकर कहा था कि वह दो सीटों से चुनाव लड़कर जनता को धोखा दे रहे हैं.
सवाल 6- क्या आने वाले समय में यह प्रथा खत्म हो जाएगी?
जवाब- रशीद किदवई कहते हैं, 'एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ने का कानून संविधान में है, जिस वजह से इसे बदलने के लिए संविधान में सुधार करना होगा. यह पार्टियों की आम राय और सभी की सहमति के बाद होगा. एक साथ दो सीटों पर चुनाव लड़ना कोई परेशानी या खराबी नहीं है. यह व्यवस्था किसी को नुकसान पहुंचाने वाली नहीं है. हालांकि, इसमें जो पैसा खर्च होता है, वो जरूर समस्या है. लेकिन पार्टियों के लिए इसमें काला धन काम आता है.'
वहीं, हर्षवर्धन त्रिपाठी मानते हैं, 'इस प्रथा को खत्म होना चाहिए. यह प्रथा समय और पैसे की बर्बादी है. कोई नेता दोनों सीटों पर जीतकर एक सीट छोड़ देता है, फिर इस पर चुनाव कराना चुनाव आयोग के जिम्मे आ जाता है. इससे जनता भी परेशान होती है और उनका भरोसा भी टूटता है.'
Source: IOCL






















