मानस मंत्र: बरनउं रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ, राम चरित्र सुनने से नष्ट हो जाते हैं कलियुग के पाप
Chaupai, ramcharitmanas : श्रीरामचरितमानस ग्रंथ की रचना तुलसीदास जी अनन्य भगवद् भक्त के द्वारा की गई है. मानस मंत्र के अर्थ को समझते हुए मानस की कृपा से भवसागर पार करने की शक्ति प्राप्त करते हैं -
Motivational Quotes, Chaupai, ramcharitmanas : तुलसी बाबा प्रभु श्री राम की उदारता बताते हुए थकते नहीं है. श्री राम चरित्र का गुणगान बहुत ही सुंदर तरह से किया है. उन्होंने कहा कि प्रभु अपने भक्तों के भीतर प्रेम को ही देखते हैं. गोस्वामी जी कहते हैं कि मेरा पाप ऐसा भारी है कि उसे समझ कर मुझे डर लगता है, लेकिन प्रभु ने कृपा की. भाव यह है कि प्रभु भक्त की चूक की खबर नहीं रखते, वह तो भक्त के हृदय की भक्ति का बारम्बार स्मरण करते हैं, क्योंकि उनको भक्ति प्रिय है. चूक करना तो कर्म है। कहने का भाव यह है कि वचन और कर्म से बिगड़े, पर मन से अच्छा हो तो श्रीराम जी प्रसन्न हो जाते हैं.
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी।
सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी।।
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें।
सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें।।
यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है अर्थात नरक में भी मेरे लिये ठौर नहीं है. यह समझकर मुझे अपने ही डर से डर हो रहा है, किंतु भगवान श्री रामचन्द्र जीने तो स्वप्न में भी इस पर मेरी इस ढिठाई और दोष पर ध्यान नहीं दिया.
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही।
भगति मोरि मति स्वामि सराही।।
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी।
रीझत राम जानि जन जी की।।
मेरे प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी नेत्र से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की उलटे सराहना की. क्योंकि कहने में चाहे बिगड़ जाय अर्थात मैं चाहे अपने को भगवान का सेवक कहता कहलाता रहूँ, परंतु हृदय में अच्छापन होना चाहिये. हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मान कर पापी और दीन ही मानता हूँ. श्री रामचन्द्र जी भी दास के हृदय की अच्छी स्थिति जानकर रीझते हैं.
रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की।।
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली।
फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली।।
प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती वे उसे भूल जाते हैं और उनके हृदय की अच्छाई को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं. जिस पाप के कारण उन्होंने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली.
सोइ करतूति बिभीषन केरी।
सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी।।
ते भरतहि भेंटत सनमाने।
राजसभाँ रघुबीर बखाने।।
वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामचन्द्र जी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया. उलटे भरत जी से मिलने के समय श्री रघुनाथ जी ने उनका सम्मान किया और राज सभा में भी उनके गुणों का बखान किया.
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान।।
प्रभु श्री राम तो वृक्षके नीचे और बंदर डाली पर अर्थात् कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी और कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर कूदने वाले बंदर. परन्तु ऐसे बंदरों को भी उन्होंने अपने समान बना लिया. तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री राम जी सरीखे शील निधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं.
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक ।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक।।
हे श्री राम! आपकी अच्छाई से सभी का भला है अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है. यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा.
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ।।
इस प्रकार अपने गुण दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथ जी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं.
निर्गुण और सगुण से भी ऊपर है राम नाम महिमा, राम नाम के जाप से होते हैं सब दुख दूर
सुमिरि पवनसुत पावन नामू…हनुमान जी ने राम नाम का जाप करके वश में किया श्रीराम को