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स्टडी ने खोल दी सरकारी अस्पतालों की पोल, 50 परसेंट पर्चियों में निकली गड़बड़ी

एक नए अध्ययन में पाया गया है कि सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों द्वारा लिखी गई लगभग 50% पर्चियों में गड़बड़ी होती है. आइए जानते हैं क्या कहता है यह रिसर्च..

एक नए अध्ययन में पाया गया है कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों द्वारा लिखी गई पर्चियों में लगभग 50% गड़बड़ियां होती हैं. ये गड़बड़ियां दवाओं की मात्रा, अवधि और बार-बार देने के तरीके में होती हैं. सामुदायिक चिकित्सा, ईएनटी और बाल चिकित्सा विभागों में सबसे ज्यादा गलतियां पाई गईं. इससे इलाज की लागत बढ़ सकती है और मरीजों की हेल्थ को खतरा हो सकता है. अध्ययन ने सुझाव दिया है कि डॉक्टरों को बेहतर प्रशिक्षण दिया जाए और पर्चियों की नियमित जांच हो. इससे इन गलतियों को कम किया जा सकता है. 

स्टडी में खुलासा 
अध्ययन में पाया गया कि डॉक्टरों की पर्चियों में कई तरह की गलतियां होती हैं. इनमें दवाओं की सही मात्रा, उन्हें कितने समय तक लेना है, और कितनी बार लेना है, इन सभी में गड़बड़ियां शामिल हैं. लगभग 10% पर्चियों में गंभीर गलतियां पाई गईं, जो मरीजों की सेहत के लिए खतरनाक हो सकती हैं. इस अध्ययन में पाया गया है कि टॉप सरकारी अस्पतालों, जैसे AIIMS और सफदरजंग, के डॉक्टरों द्वारा लिखी गई लगभग हर दूसरी पर्ची मानक इलाज दिशानिर्देशों से हटकर होती है.  यह अध्ययन इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित हुआ है. 

जानें कहां हो रही हैं गलतियां
अध्ययन में पाया गया कि सामुदायिक चिकित्सा, ईएनटी, और बाल चिकित्सा ओपीडी में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां होती हैं. खासकर, सामुदायिक चिकित्सा में अधिक गड़बड़ियां इसलिए पाई गईं क्योंकि ये ओपीडी जूनियर डॉक्टरों द्वारा चलाई जाती हैं.  इसका मतलब है कि अनुभव की कमी की वजह से दवाओं की पर्चियों में गलतियां अधिक होती हैं. इसे सुधारने के लिए बेहतर प्रशिक्षण और नियमित समीक्षा की जरूरत है. 

पर्चियों में पाई गई गलतियां
देशभर के बड़े अस्पतालों के बाह्य रोगी विभागों (OPD) से 4,838 पर्चियों का अध्ययन किया गया. इस विश्लेषण में डॉक्टरों द्वारा लिखी गई पर्चियों में मानक इलाज दिशानिर्देशों से होने वाली गलतियों को समझा गया. यह अध्ययन सरकारी अस्पतालों में पर्चियों की गुणवत्ता की जांच करने के लिए किया गया था. 

जानें कैसी गलतियां कर रहें डॉक्टर
एक मरीज को एनल फिशर के लिए दो एंटीबायोटिक्स दी गईं, जबकि इसे केवल स्थानीय दवाओं से ठीक किया जा सकता था. इससे इलाज की लागत बढ़ गई और एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस का खतरा भी बढ़ गया. आसान शब्दों में बात करें तो एक मरीज को एनल फिशर (गुदा में चोट) के लिए दो एंटीबायोटिक्स दी गईं, जबकि इसे सिर्फ क्रीम या जेल से ठीक किया जा सकता था. इससे इलाज महंगा हो गया और दवाओं का असर कम होने का खतरा भी बढ़ गया. 

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