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भारत की राष्ट्रभाषा संस्कृत, जानिए संविधान में कब हुआ था बदलाव

संस्कृत को देवों की भाषा कहा जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि संविधान सभा में संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए क्या-क्या तर्क दिए गये थे? आज हम आपको बताएंगे कि संस्कृत कितनी पुरानी भाषा है.

प्राचीन भारत में संस्कृत भाषा की सबसे अधिक अहमियत थी. संस्कृत को देवों की भाषा भी कहा जाता है. लेकिन अब संस्कृत भाषा धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है. लेकिन एक वक्त पर ये भाषा कभी भारत के बुद्धिजीवियों की भाषा हुआ करती थी. उस दौर में इसे ज्ञान की भाषा कहा जाता था. आज हम आपको बताएंगे कि आखिर कैसे संविधान में संस्कृत राष्ट्रभाषा बनने से चूक गया था. 

किस राज्य की राजभाषा संस्कृत है?

भारत के उत्तराखंड राज्य की राजभाषा संस्कृत है. उत्तराखंड राजभाषा अधिनियम 2009 के अंतर्गत संस्कृत को राज्य की दूसरी राजभाषा के रूप में घोषित किया गया है. बता दें  उत्तराखंड भारत का पहला राज्य है, जिसने संस्कृत को अपनी दूसरी आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी है. उत्तराखंड में यह निर्णय 2010 में लिया गया था. इसके पीछे मुख्य उद्देश्य संस्कृत भाषा को पुनर्जीवित करना और उसके अध्ययन और प्रयोग को बढ़ावा देना था.

संविधान में राष्ट्रभाषा पर चर्चा

संविधान निर्माण की प्रक्रिया के दौरान संविधान सभा में ‘भाषा’ के विषय पर 12 से 14 सितम्बर 1949 को चर्चा हुई थी. इस लंबे वाद-विवाद के दौरान सभा में दो पक्ष थे. पहला जो स्पष्ट रूप से संस्कृत को राज-भाषा एवं राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करता था और दूसरा पक्ष इसके खिलाफ तो नहीं था, लेकिन उनके मन में कुछ प्रश्न जरुर थे. इसमें सबसे प्रमुख था कि संस्कृत को कैसे आम-जनजीवन का हिस्सा बनाया जा सकता है.

संविधान सभा में चर्चा के दौरान अधिकांश सदस्यों का ध्यान हिंदी की तरफ ज्यादा था. हालांकि फिर भी कुछ सदस्यों ने संस्कृत के लिए प्रभावशाली तरीके से अपनी बात रखी थी. विशेष बात यह थी कि संस्कृत के पक्ष में जिन सदस्यों ने अपने तथ्य रखे थे, वे सभी गैर-हिंदी प्रदेशों से निवासी थे.

संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव किसने रखा

पहले दिन गोपालस्वामी आयंगर द्वारा एक प्रस्ताव रखा गया था. जिसमें संस्कृत के पक्ष में विशेष रूप से कोई प्रावधान नहीं किया गया था. उन्होंने मात्र हिंदी के विकास के लिए एक निर्देश को शामिल किया था. हिंदी भाषा के प्रसार में वृद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके.  उन्होंने इसके लिए भाषाओं की एक सूची भी प्रस्तुत की थी, जिसमें असामिया, बांग्ला, कन्नड़, गुजराती, हिंदी, काश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, तामिल, तेलगू और उर्दू शामिल थी. आश्चर्यजनक रूप से इसी दिन संविधान सभा में एक मुस्लिम सदस्य नजरुद्दीन अहमद ने संस्कृत की जमकर तारीफ की थी. उन्होंने डब्लू.सी. टेलर, मैक्सम्युलर, विलियम जॉन, विलियम हंटर, प्रोफ़ेसर बिटेन, प्रोफ़ेसर बोप, प्रोफ़ेसर विल्सन, प्रोफ़ेसर थॉमसन और प्रोफ़ेसर शहिदुल्ला जैसे विद्वानों के वक्तव्यों का उदाहरण देते हुए संस्कृत के महत्व पर प्रकाश डाला था. 

इसके अलावा संस्कृत को भारत की राज-भाषा और राष्ट्र भाषा बनाने के लिए लक्ष्मीकांत मैत्र (पश्चिम बंगाल) ने पहला संशोधन रखते हुए कहा, “देश के स्वतंत्र होने के पश्चात यदि इस देश की कोई भाषा राज-भाषा तथा राष्ट्र भाषा हो सकती है तो वह निःसंदेह संस्कृत ही है.”

जानिए डॉ. अंबेडर ने क्या कहा

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपना कोई मत नहीं रखा था. लेकिन  11 सितम्बर, 1949 को हिंदुस्तान स्टैण्डर्ड में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक वे संस्कृत को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में थे. उसी दिन शाम को डॉ आंबेडकर ने पीटीआई के एक पत्रकार को कहा था कि आखिर संस्कृत से दिक्कत क्या है?” हालांकि संस्कृत को भारत की राज-भाषा और राष्ट्र भाषा बनाने को लेकर लक्ष्मीकांत मैत्र के संशोधन को स्वीकार नहीं किया गया था. संविधान सभा ने आयंगर के 12 सितम्बर वाले निर्देश को ही संविधान का हिस्सा बनाया था.

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