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जब चीन में बेरहमी से हुआ गौरैया का कत्लेआम, सवा तीन करोड़ लोगों ने जान गंवाकर चुकाई थी कीमत!

चीन में 1958 से 1962 के दौर को 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' कहा गया है. दूसरे शब्दों में इस नर्क का दौर भी कहा जाता है. इस समय में एक ऐतिहासिक अकाल आया, जिसके चलते लगभग सवा तीन करोड़ लोगों की मौत हुई.

Great Leap Forward in China: कई बार तानाशाही सोच रखने वाले नेता कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिसका ख़ामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है. ऐसा ही कुछ हुआ था चीन में. चीन के पिछले सौ सालों के इतिहास को देखें तो कई चीनी नेताओं के कुछ फैसले देश को कई दशक पीछे ले गए थे. ऐसा ही एक फैसला चीन से गौरेया चिड़िया को खत्म करने का था. इस एक गलती की सजा चीन के सवा तीन करोड़ लोगों को मिली, जिन्हे अपनी जान गंवानी पड़ी थी. आइए समझते हैं पूरा मामला क्या था...

ऐसे होती है कहानी की शुरुआत...

चीन में 1958 से 1962 के दौर को 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' कहा गया है. दूसरे शब्दों में इस नर्क का दौर भी कहा जाता है. इस समय में एक ऐतिहासिक अकाल आया, जिसके चलते लगभग सवा तीन करोड़ लोगों की मौत हुई. माओ का मानना था कि जानवरों ने देश के विकास को बाधित किया है और उन्होंने चूहे, मच्छर, मक्खी और गौरेया जैसे चार जानवरों को इसके लिए विशेष रूप से जिम्मेदार बताया. पहले उन्होंने चूहे, मच्छर और मक्खीयों को नष्ट करने के लिए पूरी ताकत लगाई, और फिर गौरेया को खत्म करने की रणनीति बनाई.

प्राकृतिक इतिहास लेखक जिम टोड के मुताबिक, गौरेया को इस सूची में शामिल इसलिए किया गया क्योंकि वह बहुत अनाज खाती थी. माओ का विचार था कि अनाज सिर्फ इंसानों के लिए होना चाहिए, गौरेया के लिए नहीं. जल्द ही न गौरेया को हटाने यानी खत्म करने के लिए अभियान चलाया गया. लेकिन चीन ने गौरेया को खत्म करने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई.

लोगों ने गौरैया को मारना शुरू किया

माओ के फैसले के बाद, चीन में गौरेया की हत्या का प्रक्रम शुरू हो गया. लोग उन्हें गोली मारकर मारने लगे, उनके घोंसले तोड़ने शुरू कर दिए और उनके अंडे फोड़कर खराब करने लगे. इसके अलावा, गौरेया को मारने के लिए उन्होंने एक ऐसा तरीका भी अपनाया, जिसने कई देशों को हक्का बक्का कर दिया.

वैज्ञानिकों ने कहा कि जब गौरेया की ऊर्जा समाप्त हो जाती है, तो वे अपने घोंसले में वापस चली जाती हैं. खाने की तलाश में उड़ाने का काम बहुत थकाने वाला होता है. पर्यावरणविदों के अनुसार, लोग इतना शोर मचाते थे कि चिड़िया घोंसले तक पहुंचने में असमर्थ होती थी और उड़ते-उड़ते थक कर मर जाती थीं. इसका प्रभाव बस गौरेया पर ही सीमित नहीं रहा, बल्कि अन्य पक्षियों को भी भुगतना पड़ा.

भारी पड़ी ये गलती

नतीजतन, दो साल के भीतर ही चीन में गौरेया की संख्या में अत्यधिक कमी हो गई, और चीनी पत्रकार डाई किंग ने इस अभियान के बारे में लिखते हुए कहा कि माओ को न तो जानवरों के बारे में ज्ञान था और न ही वे किसी विशेषज्ञ की सलाह को समझने को तैयार थे. उन्होंने सिर्फ उन्हें खत्म करने का फैसला लिया, जिसका भुगतान पूरे देश को करना पड़ा.

कीटों और टिड्डियों ने कर दी फसल बर्बाद

जिस अनाज के लिए कत्ल-ए-आम किया गया, वही अनाज खतरे में आया. अनाज पर कीटों का हमला हो गया. लोगों को यह ज्ञात हुआ कि देश में गलत फैसला लिया गया है. माओ ने चार जीवों में से गौरेया को हटा दिया और उसकी जगह खटमल को शामिल किया. गौरेया आमतौर पर कीटों और टिड्डियों को खाने का काम करती थी. उनकी संख्या कम होने से टिड्डियों का प्लेग बढ़ने लगा और फसलें बर्बाद होने लगीं. भयानक अकाल आया और लाखों लोगों की मौत हुई.

यही थी अकाल की मुख्य वजह

चीन ने प्राकृतिक संतुलन को पुनर्स्थापित करने के लिए रूस से गौरेया को आयात करने की जरूरत पड़ी. इस अभियान के दौरान सिर्फ गौरेया ही नहीं, दूसरी पक्षियों को भी आक्रमण का सामना करना पड़ा था. इसे चीन में हुए अकाल का मुख्य कारण माना गया है. हालांकि, इसके अलावा खेती-किसानी में किए गए बदलाव भी अकाल के लिए जिम्मेदार माने गए.

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