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क्या आप भी मुसे-तुसे रिंकल वाले कपड़े पहनने में करते हैं आनाकानी? तो पक्का पर्यावरण बिगाड़ रहे हैं आप

दुनियाभर में अधिकांश लोग साफ-सुथरे और प्रेस किए हुए कपड़े पहनना पसंद करते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसा करने से आप पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में अपनी भागादारी दे रहे हैं.जानिए इसके पीछे की वजह

दुनियाभर के अधिकांश देशों में लोग साफ-सुथरे और प्रेस किए हुए कपड़े पहनना पसंद करते हैं. क्योंकि पूरी दुनिया में सिलवटों को दूर करके अच्छी तरह प्रेस किए कपड़े पहनना ही सभ्य इंसान होने की निशानी माना जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि आप कपड़ों की सिलवटों को दूर करने के साथ ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं. हां आपने सही पढ़ा, कपड़ों को प्रेस करने से पर्यावरण को खतरा है. आज हम आपको इसके पीछे की वजह बताएंगे. 

रिंकल वाले कपड़े

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद संस्थान ने  अपने कर्मचारियों और छात्रों को सप्ताह में सोमवार के दिन रिंकल्स वाले कपड़े पहनने का आदेश दिया है. 'रिंकल्स अच्छे हैं मुहिम के तहत जारी इस आदेश को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ा गया है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सीएसआईआर ने पूरे देश में मौजूद अपनी 37 लैब में काम करने वाले हजारों वैज्ञानिकों, टेक्निकल स्टाफ और स्टूडेंट्स के लिए यह आदेश जारी किया है. इसमें कहा गया है कि सभी लोग सोमवार के दिन बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनकर ऑफिस आएंगे. इसका मकसद विभाग के उस अभियान को सफल बनाना है, जिसमें जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण  के लिए जागरूकता की मुहिम छेड़ी गई है.

बिजली खपत 

बता दें कि सीएसआईआर ने 1 मई से 'रिंकल्स अच्छे हैं’ मुहिम शुरू की है. यह अभियान 15 मई तक चलाया जाएगा. स्वच्छता पखवाड़ा के तहत इस अभियान का मकसद बिजली की खपत को 10% घटाना है. इसके लिए सीएसआईआर अपनी सभी 37 लैब में स्पेसिफिक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग सिस्टम लागू कर रहा है. यह कवायद सबसे पहले आईआईटी बांबे के एनर्जी साइंस एंड इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के प्रोफेसर चेतन सिंह सोलंकी ने शुरू की थी. उन्होंने अपने एनर्जी स्वराज फाउंडेशन के तहत यह कवायद शुरू की थी. सीएसआईआर  के 3,500 से ज्यादा वैज्ञानिकों और 4,000 से ज्यादा टेक्निकल स्टाफ को अब सोमवार के दिन बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनने का आदेश दिया गया है.

क्या होगा इससे फायदा

अधिकांश लोगों के मन में ये सवाल आता है कि आखिर इससे क्या होगा. दरअसल कपड़ा प्रेस करने से कार्बन-डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. वहीं प्रेस का लोहा गर्म करते समय 800 से 1200 वाट बिजली लगती है, जो एक बल्ब की रोशनी से 30 गुना ज्यादा है. इसके अलावा प्रेस करते समय एक जोड़ी कपड़े की नमी से करीब 200 ग्राम तक कार्बन-डाई-ऑक्सॉइड गैस निकलती है. देश में बिजली उत्पादन में कोयले के ईंधन की 74% हिस्सेदारी है, इसे कम करने का मकसद है.

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