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ब्लॉग: तिहरे तलाक़ का मामला क़ानूनी कम सामाजिक ज़्यादा है!

मुसलमानों में प्रचलित तिहरा तलाक़ क़ानूनी मुद्दा ज़्यादा है या सामाजिक? इस पर हमेशा बहस होती आई है. लेकिन केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में तिहरे तलाक़ के विरोध के चलते यह मुद्दा आजकल और गरमाया हुआ है. केंद्र का मानना है कि मुस्लिम समाज में व्याप्त तिहरा तलाक़, निकाह-हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाएं बंद होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक समानता की ज़मीन पर इन मुद्दों को फिर से परखा जाना चाहिए. लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि उपरोक्त मामलों में वह सिर्फ क़ानूनी पहलू पर अपना फ़ैसला देगा, सामाजिक पक्ष पर नहीं. दलील यह है कि मुस्लिम समाज के तलाक़ जैसे मामलों की कोर्ट निगरानी करे या नहीं, यह फैसला करना न्यायपालिका के नहीं बल्कि विधायिका के अधिकार क्षेत्र का मामला है. चीफ़ जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस एनवी रमण और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने पक्ष-विपक्ष में याचिकाएं दाख़िल करने वालों के वकीलों से कहा कि वे साथ बैठकर तय कर लें कि कौन-कौन से बिंदु कोर्ट के समक्ष रखने हैं. कोर्ट समान नागरिक संहिता अथवा तलाक़ के किसी विशेष मामले के तथ्यों पर बिल्कुल विचार नहीं करेगा.
जाहिर है सर्वोच्च न्यायालय नहीं चाहता कि वह अपने फैसले के जरिए समाज विशेष की प्रथाओं में दख़लंदाज़ी करे. यह उस समाज पर है कि उसे अपनी भलाई-बुराई की कितनी चिंता है. तिहरा तलाक़, निकाह-हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाएं धार्मिक रंग में रंगी हुई हैं इसलिए इनके साथ छेड़छाड़ बेहद संवेदनशील मामला भी बन जाता है. भोपाल की शाह बानो और काशीपुर की शायरा बानो के केस इसका ज्वलंत उदाहरण हैं. ऐसे में केंद्र सरकार भी फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. दूसरी तरफ मुस्लिम समाज के धार्मिक नेता इसे इस्लामी क़ानून से जोड़कर ब्रह्मवाक्य बना देते हैं. कुछ प्रगतिशील मुस्लिम और सचेत समाजचिंतक ज़रूर इन महिला विरोधी कुप्रथाओं को दमनकारी और शोषण का हथियार बताते हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाएं भी शामिल हैं. लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक में भी उनकी गुहार नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ बनी हुई है.
इस्लाम में शादी तोड़ने के लिए अगर तलाक़ देने का अधिकार मर्दों को है तो इसी तरह शादी ख़त्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को है. मर्दों द्वारा तलाक़ देने के तीन तरीके चलन में हैं- तलाक़-ए-हसन, तलाक़-ए-अहसन और तलाक़-ए-बिदअत. तीन तलाक़ का मामला तलाक़-ए-बिदअत की उपज है और यही विवाद की जड़ भी है. शिया फिरक़ा और सुन्नियों का वहाबी समूह ‘अहलेहदीस’ तलाक़-ए-बिदअत को नहीं मानता. तलाक़-ए-बिदअत का मतलब होता है एक ऐसा तरीका जो नया है और इस तरीके से तलाक़ देने वाला गुनहगार है. भारत में मौलाना और उलेमा ये कहते रहे हैं कि शरीअत में बदलाव संभव नहीं है और तीन तलाक़ पूरी तरह से इस्लामी अमल है. इस मामले में लॉ ऑफ द लैंड की दखल उन्हें मंजूर नहीं है. इसलिए यह नाक का सवाल भी बन जाता है.
लेकिन मुस्लिमों में निकाह-ए-हलाला की प्रथा शरीयत से छेड़छाड़ का ही नतीजा है. देखा जाए तो यह मुस्लिम महिलाओं को जिंस में बदल देने वाली प्रथा है. इस प्रथा के तहत अगर शौहर ने अपनी बीवी को तलाक़ दे दिया और फिर उसी औरत से दोबारा शादी करना चाहता है तो मौलाना हलाला की सलाह देते हैं. पहले इस तलाकशुदा महिला की शादी किसी दूसरे मर्द के साथ की जाती है फिर उससे तलाक़ लिया जाता है और दोबारा उसकी शादी उसके पहले पति से कर दी जाती है. मज़े की बात यह है कि इस खेल में सूफ़ी, बरेलवी और देवबंदी सभी बराबर के शरीक हैं.
मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत पर आधारित है. मोटे तौर पर, शरीयत को कुरआन के प्रावधानों के साथ ही पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं और प्रथाओं के रूप में समझा जा सकता है. भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 भारत के सभी नागरिकों को ‘कानून का समान संरक्षण’ देता है, लेकिन जब बात व्यक्तिगत मुद्दों (शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की जिम्मेदारी) की आती है तो मुसलमानों के ये मुद्दे मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आ जाते हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ की शुरुआत साल 1937 में एक एक्ट पास करके की गई थी. एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दख़लंदाज़ी नहीं कर सकती.
तिहरा तलाक़ मुस्लिम औरतों के सर पर लटकी ऐसी तलवार है जो किसी भी पल उनको पति की ज़िंदगी और उसकी सम्पत्ति से बेदख़ल कर सकती है. यह एक गंभीर समाजी मुद्दा है लेकिन बड़े दुःख की बात यह है कि इसके अमल में सच्चे इस्लामी तरीके का पालन नहीं होता. इस मुद्दे पर मुस्लिम औरतों के बीच पैदा हो रही जागरूकता देखकर पुरुषवादी बर्चस्व के हिमायती और कट्टरपंथी मुस्लिम भड़क जाते हैं. वे महिलाओं को उनके जायज़ हुक़ूक नहीं देना चाहते. लेकिन उन्हें इसे नाक का सवाल बनाने की बजाए ख़ुद ही अपने समाज की महिलाओं के बारे में सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए और कुप्रथाओं से छुटकारा दिलाना चाहिए. सिर्फ क़ानून का डंडा चलाकर इतने बड़े मुद्दे हल नहीं किए जा सकते. सर्वोच्च न्यायालय के हालिया स्टैंड को इसी दिशा में स्पष्ट संकेत समझना चाहिए.
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