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बिहार में तेजस्वी ही हैं इंडिया गठबंधन के ड्राइवर, छोटे दलों के लिए नहीं है बहुत गुंजाइश

इंडिया गठबंधन के सारे साथी भले एक-एक कर छूटे जा रहे हों, लेकिन बिहार में उनका साथी बिल्कुल मजबूती से उनको थाम कर रखे है. यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सत्ता के कुलीनों की विरासत सौंपे जाने का क्षण है, जब तेजस्वी उनकी ड्राइविंग सीट पर हैं और राहुल उनके बगलगीर हो गए हैं. यहां पहले कांग्रेस मजबूत रहती थी, जो राजद बगल में बैठती थी और कांग्रेस अपने मन से चलाती थी. अब वही कांग्रेस बगल में बैठी है, ताकि बस विरासत बची रहे. 

कांग्रेस की प्रभारी भी है राजद

बिहार में तेजस्वी ने संभाली थी ड्राइविंग सीट, तो यह जो बिहार में कांग्रेस और राजद का जो रिश्ता है, वही उसको परिलक्षित करती है. यह पहले से नियोजित भी था. इसलिए, बिहार में जब न्याय यात्रा में एक जगह है जम्हुआर, वहीं वह ठहरे हुए थे. वहीं तेजस्वी भी पहुंचे और फिर राहुल गांधी ने उनसे अनुरोध किया, साथ चलने का तो तेजस्वी ने ड्राइविंग सीट संभाली और सासाराम तक, जो करीबन चार-पांच किलोमीटर की दूरी है, वहां तक करीबन जीप चलाते हुए गए. वही नजारा हकीकत में भी है. यहां राजद ही ड्राइविंग सीट पर है कांग्रेस के. राजद ही तय करता है कि कांग्रेस का प्रदेश में कौन अध्यक्ष होगा, कौन से सीट पर कौन लड़ेगा, यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष अखिलेश सिंह को दोबारा राज्यसभा में भेजा गया है, यह रिश्ता ही उसको पारिभाषित करता है. हालांकि, हमेशा से ऐसा नहीं था एक वक्त था, जब सोनिया गांधी प्रभावी थीं और वही कांग्रेस की राजनीति तय करती थीं, तो राहुल गांधी इसको सख्त नापसंद करते थे. यू कह सकते हैं कि वह राजद से, लालू यादव से लगभग घृणा करते थे. हालांकि, धीरे-धीरे सोनिया ने उनको संभाला और आज ये आलम है कि तेजस्वी उनकी गाड़ी को ड्राइव कर रहे हैं.

कांग्रेस-राजद हमेशा से नहीं थे ऐसे

एक बार जब सुप्रीम कोर्ट ने ही सांसदों की सजा से संबंधित एक फैसला दिया था कि पहली सजा के दिन से ही अगर वह दो साल से अधिक की होती है, तो तत्काल जो भी जन-प्रतिनिधि हैं, उनकी सांसदी या विधायकी चली जाएगी. इसको बदलने के लिए एक बिल लाया गया था और राहुल गांधी ने मीडिया के सामने वह बिल फाड़ दिया था. उसी के बाद लालू को सजा हो गयी. वह बिल लालू को बचाने के लिए ही लाया ही गया था, लेकिन लालू और राजद को राहुल इतना नापसंद करते थे कि उन्होंने बिल फाड़ा था और उसकी वजह से ही लालू की सदस्यता गयी थी और शायद कुछ महीनों में तेजस्वी को भी जेल जाना पड़े. अपनी ही सरकार के ऊपर ही राहुल ने सवाल उठा दिया था. अब राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है. हाल ही में एक मानहानि के मुकदमे में जब उनको विजय मिली थी, तो वहां से वह सीधे मीसा भारती के दिल्ली स्थित आवास पर गए थे औऱ वहां उन्होंने लालू से मटन बनाना सीखा. संबंध इतने बदल गए हैं. हालांकि, एक जमाना था कि वह मंच भी शेयर करने से हिचकते थे. 

छोटे दलों की राजनीति

जब केंद्रीय राजनीति प्रभावित होती है, राष्ट्रीय दल जब कमजोर पड़ते हैं, तभी क्षेत्रीय दलों का उदय होता है. जब कांग्रेस कमजोर पड़ी तो क्षेत्रीय दलों ने सत्ता हासिल की, एक तरह से कांग्रेस को बेदखल किया. वही स्थिति अभी भी है. अगर एनडीए कहें, भाजपा या कांग्रेस कहें तो ये अगर कमजोर होंगे, तभी क्षेत्रीय दलों का उदय होगा और उनकी बारगेनिंग-पावर बढ़ेगी. जो दो सांसद, चार सांसद जीतकर आते हैं, उनका महत्व बढ़ जाता है. वही बिहार में छोटे दलों का हाल है. जैसे, एक निर्दलीय विधायक हैं सुमित कुमार सिंह. तो, उनकी जो भी सरकार हो, जिस पार्टी की भी हो, उनका मंत्री बनना तय रहता है. पिछली सरकार में भी वह मंत्री थे, तो अब एनडीए की सरकार में भी. तो, यह इस पर निर्भर करता है कि विधायसभा में या संसद में किस तरह की सीटें जनता ने किस पार्टी को दी हैं, उसमें राष्ट्रीय दलों की क्या स्थिति है, यह भी बहुत कुछ निर्भर करता है. अगर वह अपने दम पर सरकार बनाने में सक्षम हैं, तब तो क्षेत्रीय दल काबू में रहेंगे, वे राष्ट्रीय दलों के निर्देश पर काम करेंगे, चलेंगे. अगर बहुमत नहीं आता है तो छोटे दलों की चलने लगती है. जैसे, अभी जो लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं, उसमें किस तरह के नतीजे आते हैं, क्षेत्रीय दलों की स्थिति उसी पर निर्भर करेगी. 

इस बार पहली बार भाकपा माले ने अपनी तरफ से एक व्यक्ति को राज्यसभा में भेजने की बात कही. उसके 12 विधायक हैं, विधानसभा में. उसने मांग रखी कि दीपांकर भट्टाचार्य को राज्यसभा में भेजा जाए.. तो, पिछली बार की तरह ही इस बार कांग्रेस की तरफ से भेज दिया है, राजद ने. सीपाआई-माले जैसे छोटे दल को निराशा हाथ लगी है. तो, राजद की स्थिति अगर कमजोर रहती तो उसका रिस्पांस अलग होता, फिर उसे माले झुका सकती थी, दीपांकर को भी टिकट मिल सकता था, अपने दल को लोगों को वरीयता मिल सकती है. अब जैसे, मुकेश सहनी को कई मौके मिले, लेकिन वह उसका फायदा नहीं उठा सके. भाजपा ने उन्हें लोकसभा में भी टिकट दिया था, लेकिन वह फायदा नहीं उठा सके. विधानसभा चुनाव में मौका मिला, तो वहां भी हार गए. फिर, भाजपा ने अपने कोटे से एमएलसी बनाया, फिर मंत्री भी बनाया. उसी भाजपा की वह कब्र खोदने लगे. उससे पहले जो उन्होंने पलटी मारी थी, उसके पहले राजद की प्रेस कांफ्रेस से यह कहते हुए निकले थे कि राजद ने पिछड़ों की पीठ में छुरा मारा है, तो अब वो न इधर के हैं, न उधर के. अब न भाजपा के करीब आ पा रहे हैं, न जद-यू उनको ले रही है कि उन्होंने अपनी स्थिति इतनी खराब कर ली है. तो, छोटे दलों की उत्पत्ति परिस्थिति जन्य होती है. अनुकूल वातवरण रहा तो ये कभी पूरा कब्जा कर लेते हैं, वरना दो-चार सीट पर सिमट कर रहते हैं. 

कांग्रेस और राजद का रिश्ता अगर मजबूत रहा, तो छोटे दलों की अधिक नहीं चलेगी. वहीं, अगर दोनों दल अलग-अलग लड़ते तो छोटे दलों को दोनों के साथ मोलभाव करने का अवसर मिलता. मगर, जब ये दोनों दल एक हो रहे हैं, तो छोटे दलों और निर्दलीयों की स्थिति भी कमजोर हो रही है. फिर, छोटे दलों को उनके हिसाब से राजनीति करनी पड़ेगी और इसी कारण बिहार में उनका भविष्य बहुत अधिक नहीं दिखता है.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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