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BLOG: माना कि जल ही जीवन है, लेकिन जीवन जाता कहां है?

लाखों लोगों की तरह गर्मियों में मेरा भी गांव जाना एक नियम-सा बन गया है और मजबूरी भी. यही वह समय होता है जब भयंकर आंधी, बंदरों, बिल्लियों और गिलहरियों की उछल-कूद झेल चुके छानी-छप्पर को अगली बारिश का दौंगरा बर्दाश्त करने के लिए दुरुस्त करवाना होता है. जमीन बंटाई या ठेके पर देनी होती है. इसके साथ-साथ आत्मा में अमृत भरते आम के गुच्छों पर धधकती दोपहरी में भी निशाना लगाने का रोमांच महसूस होता है. रातों में चबूतरे पर खटिया बिछाकर निरभ्र आकाश का रहस्मय आनंद मिलता है, वर या कन्या पक्ष की बारातों के जल्वे देखने को मिलते हैं. बोरवेल के शीतल जल में घंटों गर्मी निचोड़ने का सुख भोगने को मिलता है.

लेकिन इस साल मंजर बदला हुआ है. 50-60 फीट गहरे कुएं तो वर्षों पहले वरुण देवता की समाधि बन चुके थे. 100-150 फीट गहरे सरकारी हैंडपंप पिछली ठंडियों में ही पाताल सिधार गए और अब 400-500 फीट गहरे नलकूप भी पानी की जगह धूल उगल रहे हैं. गांव में भूले-भटके जिस भी दिशा से बोरवेल चलने का शोर उठता है, लोटे, बाल्टियाँ, कंसेहड़ी और नाना आकार-प्रकार के डिब्बे लेकर परिवार के परिवार उसी दिशा में दौड़ लगा देते हैं. ढोर-डंगर और चिरई-चुनगुन सूख कर कांटा हो चले हैं. बोरवेल में पानी ही नहीं है, तो कोई पुण्यात्मा भी उनके लिए नाली-खंती भरने की व्यवस्था कहां से कर दे!

जल-स्तर ने पाताल की राह अचानक नहीं पकड़ी है. लेकिन जब तक किसी तरह काम चलता है, भारत के लोग नहीं चेतते. तालाब जुत जाने और कुएं सूखने के बाद गांव के लोग अभी चार-पांच साल पहले ही 150-200 फीट गहरे बोरवेल खुदवाते थे और पानी का जिल्ला फूट उठता था, लेकिन अब 500-600 फीट की गहराई पर भी झिर नहीं मिलती! दुर्गम और न्यूनतम वर्षा वाले क्षेत्रों जैसा हाल आज उत्तर और मध्य भारत के हर गांव का हो गया है. पानी खूब बरसता है लेकिन उसका संग्रह करने की चेतना अब तक नहीं जागी है. वर्षा का लगभग सौ फीसदी जल भूमि का कटाव करते हुए नदी-नालों से हहराता हुआ पुनः समंदर में समा जाता है. यह सब मैं भुक्तभोगी होकर लिख रहा हूं. हकीकत से रूबरू होने के लिए मुझे नीति आयोग की रपट पढ़ने की जरूरत नहीं है.

नीति आयोग शहरी और ग्रामीण भारत में जल-संग्रहण, पानी रिसाइकल करने और इसकी शुद्धता जाँचने की सुविधाएं विकसित करने के दिवास्पन दिखाता है, लेकिन इन उपायों के लिए कोई ठोस नीति नहीं बनाता कि निर्यात का लोभ त्यागकर पानी गटकने वाली फसलों का उत्पादन घटाकर पारंपरिक देसी फसलों को कैसे प्रोत्साहन दिया जाए, जल-संग्रहण वाले क्षेत्रों को स्थानीय दबंगों और बाहुबलियों के चंगुल से कैसे मुक्त कराया जाए, पाइपलाइन फूटने और जलापूर्ति के दौरान होने वाली लाखों लीटर पानी की बरबादी को कैसे थामा जाए.

भारत में जल-संरक्षण के लिए सदियों से गुहा, बंधा, तालाब, कूप, इंदारा, बावड़ी, जोहड़, तटबंध और चौंपरा जैसे कई परंपरागत ढांचे और तरीके मौजूद थे, लेकिन इनकी लगातार अनदेखी की गई और की जा रही है. माना कि भारत में जल का मामला राज्यों के अधीन है, लेकिन क्या केंद्र अपने स्तर पर जल-संग्रहण और संरक्षण के कोई कदम नहीं उठा सकता या राज्यों को सख्त कानून बनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता? लोकतंत्र में जल-निकायों का हाल राजतंत्र से भी बुरा है.

विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि करीब 16 करोड़ भारतीयों को स्वच्छ पेयजल नहीं मिल पाता और हर दिन 5 साल से कम उम्र के लगभग 500 बच्चे डायरिया से मर जाते हैं. जबकि नीति आयोग ने 2016-17 के आंकड़े जुटाए हैं कि देश में करीब 60 करोड़ लोग पानी की गंभीर किल्लत का सामना कर रहे हैं और करीब 2 लाख लोग स्वच्छ पानी न मिलने के चलते हर साल जान गंवा देते हैं. नीति आयोग द्वारा बनाए गए सीडब्ल्यूएमआई ने भू-जल, जल निकायों का पुनरोद्धार, सिंचाई, कृषि कार्य, पेयजल, नीतियां और प्रशासन जैसे विभिन्न मानदण्डों के आधार पर कहा है कि झारखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार जल-प्रबंधन के मामले में सबसे फिसड्डी साबित हुए हैं. लेकिन अन्य राज्यों का प्रदर्शन कहां बेहतर है?

सवाल यह है कि जब विश्व बैंक से लेकर भारत के नीति आयोग तक को वर्तमान जल-संकट की भयावहता का अंदाजा है तो इसे दूर करने के सार्थक, चरणबद्ध, दूरदर्शी और प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाए जाते? जाहिर है कि जब तक मंत्रियों-संत्रियों और धनाढ्य लोगों को अपने बंगलों, होटलों और विशाल फार्मों में कैक्टस के पौधे सींचने और लॉनों में बरबाद करने के लिए इफरात पानी मिलता रहेगा, उनके कानों पर जूं तक रेंगने वाली नहीं है. लोग शहरों में नलों और टैंकरों के सामने मीलों लंबी लाइनें लगाएं या ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं उठ भिनसारे चार-पांच कोस पैदल चलकर पानी के स्रोत तलाशें, उनकी बला से!

जिस तरह मैं गर्मियों में गांव आता हूं, उसी तरह असंख्य लोग उत्तर भारत के सुखद पर्यटन स्थल शिमला जाना चाहते हैं. लेकिन इस बार शिमला में ऐसा जल-संकट गहराया है कि कई होटलों में अस्थायी रूप से ताला लगाना पड़ा. अकेले शिमला की ही बात नहीं है, इन दिनों दिल्ली और बेंगलुरु सहित देश के कई शहरों में पानी की किल्लत के चलते त्राहि-त्राहि मची हुई है और अब यह साल-दर-साल का फसाना बन गया है.

केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी ध्यान रखना चाहिए पानी की बरबादी और उसके बेरोकटोक समंदर में पुनः बह जाने से देश की जीडीपी, व्यापार, शिक्षा, संस्कृति और रिश्ते-नाते तक बुरी तरह प्रभावित होते हैं. इसलिए राजधानियों में बैठकर मात्र रपटें गढ़ने की बजाए सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही आबादी के साथ-साथ शहरी एवं कस्बाई क्षेत्रों के बेतरतीब विस्तार पर अंकुश लगाने के उपाय किए जाने चाहिए और ग्रामीण जल-ग्रहण क्षेत्रों की मुक्ति एवं संवर्द्धन की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाना चाहिए. शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों को भी जल-संरक्षण के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है, वरना वह दिन दूर नहीं जब भगवान की मूर्तियों को नहलाने के लिए भी उन्हें बोतलबंद पानी खरीदना पड़ेगा!

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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