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बीजेपी के विजय रथ को रोकने का तेजस्वी का दावा है 'प्रीमैच्योर', नीतीश के लिए मुश्किल है 'मंडल' बनाम 'कमंडल' की लड़ाई

बिहार वह राज्य है, जहां से बारहा लंबे समय से जमे दिल्ली के सत्ताधीशों को चुनौती दी गयी है. अगर दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है, तो बिहार अक्सर उस रास्ते में आने वाली सबसे बड़ी रुकावट या सहायता होता है. यूपीए सरकार में लालू प्रसाद अगर सोनिया गांधी के संकटमोटक और करीबी थे, तो एनडीए सरकार को सबसे बड़ी चुनौती नीतीश कुमार ही दे रहे हैं. वह भी इस बिना पर कि कभी जेपी ने इंदिरा गांधी की बेलगाम सत्ता को चुनौती दी थी. लालू के बेटे और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी नीतीश को अगले पीएम कैंडिडेट के तौर पर यदा-कदा पेश कर रहे हैं, लेकिन अभी यह दूर की कौड़ी है. क्या मोदी का अश्वमेध का घोड़ा बिहार में रोक दिया जाएगा या वह बिल्कुल बगटूट घोड़े की तरह एक बार फिर 2024 में भारत विजय कर जाएगा, सवाल तो यही है. 

मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई

चले थे हम जहां से, वहीं लौट जाने को बेकरार है. शायद इसीलिए बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि जैसे लालू जी ने आडवानी जी के रथ को बिहार में रोक दिया था, वैसे ही नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार की महागठबंधन सरकार 2024 में मोदी के रथ को बिहार में रोक देगी. कहते हैं, इतिहास खुद को दुहराता है. तो क्या बिहार एक बार फिर 1977, 1990 या फिर 2015 की कहानी को दुहरा पाएगा? इस सवाल का जवाब भले अभी न दिया जा सके, लेकिन जो तैयारियां होती दिख रही है, उससे कहा जा सकता है कि बिहार का वर्तमान राजनीतिक हालात इतिहास दोहराने के लिए छटपटा रहा है. लेकिन, क्या यह सब इतना आसान होने जा रहा है?

तब मंडल के एवज में कमंडल निकाला गया था. आज, कमंडल के मुकाबले मंडल को आगे कर लड़ाई की तैयारी की जा रही है. मसलन, बिहार अकेला ऐसा राज्य था जिसने जातिगत जनगणना कराने के लिए केंद्र से लड़ाई तक मोल ले ली लेकिन अदालती हस्तक्षेप के बाद इस पर रोक लग गयी.

हालांकि, राजनीतिक तौर पर महागठबंधन सरकार ने अपना सन्देश अपने लोगों के बीच दे दिया. नीतीश कुमार-तेजस्वी यादव इस अकेले हथियार से बीजेपी की राजनीति को चुनौती देने की सोच रहे थे. लेकिन, बिहार की चुनावी राजनीति को अगर आप 2014 से देखें तो आपको एक क्लियर मैसेज दिखेगा. 2014 का लोक सभा चुनाव, 2015 का विधानसभा चुनाव, 2019 का लोक सभा चुनाव हो या फिर 2020 का विधान सभा चुनाव, हर बार बिहार के मतदाताओं ने एक स्पष्ट रुझान दिखाया. विधानसभा में नीतीश-लालू और लोकसभा में मोदी.

भले तेजस्वी यादव ए टू जेड पॉलिटिक्स के तहत सवर्ण वोटर्स में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हो, आनंद मोहन जैसे उम्र कैद के सजायाफ्ता को रिहा कर सवर्ण मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हो लेकिन अभी तक के बिहार के चुनावों में यही रुझान दिखा है कि राज्य में महागठबंधन, केंद्र में मोदी. ऐसे में अगर महागठबंधन मंडल स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स पर भरोसा करता है तो यह भरोसा दरक भी सकता है. ऐसे कमजोर भरोसे के सहारे नीतीश कुमार लालू यादव की तरह बिहार में बीजेपी का रथ रोक देंगे, इसमें संदेह है. 

नीतीश का जेपी बनने का सपना पूरा नहीं होगा

 1977 में कांग्रेस के खिलाफ चिंगारी भले गुजरात में भड़की थी, लेकिन वह शोला बिहार आ कर ही बनी, जब जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा विरोध की कमान खुद अपने कन्धों पर उठा ली. उस वक्त भी बस एक ऐसे चेहरे की तालाश थी, जो नेतृत्व दे सके, जिस पर भरोसा हो, जिसकी छवि पाक-साफ़ हो.

नीतीश कुमार एक ऐसे चेहरे हैं, जिनकी व्यक्तिगत छवि स्वच्छ है, लेकिन सत्ता में लगातार 18 साल से बने रहने के कारण उन्हें लेकर सवालों की लंबी लिस्ट तैयार हो चुकी है. रह गयी बात पीएम पद की, तो नीतीश कुमार ने खुद कह दिया है कि उनका लक्ष्य बीजेपी को शिकस्त देना है न कि पीएम बनना.

लेकिन जब तेजस्वी यादव उनके नेतृत्व में मोदी का रथ रोकने की बात कर रहे है और उससे पहले नीतीश कुमार जब कहते है कि अगले विधानसभा का चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा तब यह विश्वास और मजबूत होता है कि नीतीश कुमार, जेपी की तरह सत्तानिरपेक्ष नहीं हो सकते, जो जेपी बनने की पहली और महत्वपूर्ण शर्त है. विपक्ष तब इसीलिए एकजुट हुआ था कि नेतृत्व जेपी के पास था, जिन्हें सत्ता के शीर्ष पर नहीं बैठना था. लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं है.

बड़े नहीं छोटे दल बिगाड़ेंगे खेल

नीतीश कुमार की अगुआई में इस वक्त जिस विपक्षी एकता की कवायद चल रही है, उसमें सबसे बड़ा विपक्ष कांग्रेस ही है. दिलचस्प रूप से विपक्षी एकता का केंद्र बने बिहार की राजनीति के कई ऐसे राजनीतिक दल हैं, जिनका रूख अभी तक साफ़ नहीं है. नीतीश कुमार भले इन्हें छोटा दल मान कर इग्नोर करने की हिमाकत कर रहे हो लेकिन पिछले कुछ उपचुनावों और 2020 के विधानसभा चुनाव में इन्हीं छोटे दलों ने खेल बनाया-बिगाड़ा है. इन्हें इस विपक्षी एकता की कसरत में शामिल नहीं करना निश्चित ही महागठबंधन के लिए एक बड़ी भूल साबित हो सकती है.

मसलन, मुकेश सहनी हो या ओवैसी. इन दोनों ने बिहार में पिछले कुछ उपचुनावों में बहुत ही शानदार प्रदर्शन किए है और इनकी वजह से महागठबंधन को नुकसान भी उठाना पडा था.

अभी जिस तरह की खबरें आ रही हैं, बीजेपी मुकेश सहनी, जीतन राम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा जैसों को अपने पाले में लगभग ला चुकी है. ऊपर से बिहार में ओवैसी फैक्टर को हम गोपालगंज उपचुनाव में अपना जलवा बिखेरते देख चुके हैं. ऐसे में 23 जून को शरद पवार, ममता बनर्जी, एम के स्टालिन, अरविन्द केजरीवाल, अखिलेश यादव, राहुल गांधी, हेमंत सोरेन को पटना में एक मंच पर भले नीतीश कुमार ले आए,लेकिन अपने ही घर में विपक्ष के बिखराव का नुकसान उठा पड़ा जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. कहने का अर्थ है कि भले देश में आप जो कर लें, सबसे पहले आपको अपने गृह राज्य में रिजल्ट भी दे कर दिखाना पडेगा जो इन छोटे दलों के कारण खराब भी हो सकता है.

दूसरी तरफ, नवीन पटनायक, केसीआर, मायावती की इस विपक्षी एकता की कवायद में क्या भूमिका होगी, स्पष्ट नहीं है. केसीआर, ममता बनर्जी को अपने-अपने राज्य में सीधे कांग्रेस से दो-दो हाथ करना है. अरविन्द केजरीवाल किस तरह कांग्रेस के साथ हाथ मिला पाएंगे, यह सब कहना कठिन है. शरद पवार इस विपक्षी जुटान के लिए कितने भरोसेमंद साबित होंगे, इस पर भी शक है. उत्तर प्रदेश में क्या और कैसी राजनीतिक बुनावट तैयार होगी, इस पर भी मायावती के अस्पष्ट रूख के कारण भारी संदेह है.

यह सही है कि सोमनाथ से निकली लाल कृष्ण आडवानी की रथयात्रा बिहार में रोक दी गयी थी. इंदिरा गांधी की तानाशाही का उद्दंड रथ भी बिहार में ही रोका गया था. लेकिन, केवल अतीत के उदाहरणों के सहारे ही नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव सोचते हैं कि बीजेपी की जीत का रथ भी बिहार रोक देगा तो यह अति आत्मविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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