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राजनीति की कृपा से महाराष्ट्र का ‘मूक’ मराठा आंदोलन अब ‘वाचाल’ हो उठा है!

कहना न होगा कि मराठा समाज को शिक्षण-संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर महाराष्ट्र में शुरू हुआ राज्यव्यापी सुगठित आंदोलन अब पटरी से उतर चुका है. मराठा समुदाय ने पिछले वर्ष लगभग पूरे साल राज्यभर में करीब 55 मूक रैलियां करके आरक्षण के पक्ष में आवाज उठाई थी. यह आंदोलन तब मुंबई भी पहुंचा था. लेकिन इस वर्ष इसके नाजुक और हिंसक स्वरूप धारण करने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस पंढरपुर जाकर भगवान विट्ठल की पारंपरिक पूजा तक नहीं कर सके. वहीं आषाढ़ी एकादशी की पूजा राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा ही सपत्नीक संपन्न होती रही है. इस लेख की पंक्तियां लिखे जाते वक्त भी आरक्षण समर्थकों द्वारा महाराष्ट्र में आज आहूत तथाकथित शांतिपूर्ण बंद के बावजूद जगह-जगह से आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा की खबरें आती रहीं. महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाका; खास कर औरंगाबाद जिला इसका मरकज बना हुआ है, जहां आरक्षण की मांग कर रहे मराठा नवयुवकों की आत्महत्याएं आम हो चली हैं.

मराठा आरक्षण की मांग नई नहीं है लेकिन दो वर्ष पहले इस आंदोलन का विस्फोट अहमदनगर जिले के कोपर्डी गांव में मराठा समाज की एक नाबालिक छात्रा के साथ हुए रेप के कारण हुआ था और इस बार आरक्षण की मांग करते हुए औरंगाबाद जिले के कायगांव निवासी युवक काकासाहब शिंदे (28) ने 23 जुलाई को गोदावरी नदी में जान देकर आंदोलन को विस्फोटक बना दिया. इस घटना ने आग में घी का काम किया और समूचे महाराष्ट्र में आक्रोश की लहर दौड़ गई. फिर भी संयम रखते हुए मुंबई के आस-पास ठाणे, रायगढ़, पालघर इत्यादि क्षेत्रों में शांतिपूर्ण बंद का आवाहन किया गया. लेकिन नवी मुंबई के कलंबोली, ठाणे के तीन हाथ नाका एवं नितिन कंपनी क्षेत्र में सरकारी बसों को तोड़ा गया. मुंबई का हाल बताऊं तो जोगेश्वरी में ट्रेन रोकी गई और सायन में पुलिस पर पत्थरबाजी की गई. एलफिंस्टन रोड, दादर, प्रभा देवी, परेल सहित सभी व्यस्त इलाकों में दुकानदारों ने अपनी दुकानें हिंसा के डर से अपने आप बंद कर ली थीं. चेंबूर में ईस्टर्न एक्सप्रेस-वे ठप कर दिया गया. नवी मुंबई में बेस्ट की बस सेवा और स्कूल-कॉलेज फौरी तौर पर बंद करने पड़े. मेरे निवास से कुछ ही दूर तुर्भे नाका, म्हापे, घनसोली, कोपरखैरणे और ऐरोली इलाके में इंटरनेट सेवा ठप कर दी गई.

इस वर्ष के मराठा आंदोलन की भूमिका यह है कि पिछले वर्ष दबाव में आकर फड़णवीस सरकार ने मराठा समाज को आरक्षण देने के लिए जो कानून बनाया था, उस पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने स्टे लगा दिया. और हाल ही में जब राज्य सरकार ने महाराष्ट्र में 72,000 नई नियुक्तियां किए जाने का संकेत दिया तो मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया था कि मराठा आरक्षण पर कोर्ट का फैसला आने तक समुदाय को 16 फीसद आरक्षण दिया जाएगा. लेकिन आंदोलन का नेतृत्व कर रहा मराठा क्रांति मोर्चा इस आश्वासन से सहमत नहीं हुआ और उसने 9 अगस्त को महाराष्ट्र बंद की तैयारी कर रखी थी. इसी बीच काकासाहब शिंदे के गोदावरी में कूद जाने से मामला बिगड़ गया और उसके अगले ही दिन महाराष्ट्र बंद का त्वरित आह्वान कर दिया गया जो हिंसक हो उठा. हालांकि, आंदोलन के नेता नहीं चाहते कि आंदोलन हिंसक हो. इसीलिए वे बार-बार इसे वापस ले लेते हैं. लेकिन जिस तरह मराठा युवक लगातार अपनी जान दे रहे हैं, उसे वे भी अनदेखा नहीं कर सकते. चार-पांच दिन में आंदोलन थोड़ा शांत ही हुआ था कि औरंगाबाद के मुकुंदवाड़ी रेल्वे स्टेशन के पास प्रमोद पाटील (31) नामक एक शादीशुदा बेरोजगार मराठा युवक ने ट्रेन से कटकर जान दे दी! आत्महत्या से पहले 29 जुलाई की दोपहर उस युवक ने अपने फेसबुक अकाउंट पर भावनात्मक अपील की थी- ‘चला आज एक मराठा जातोय...पण काही तरी...मराठा आरक्षणा साठी करा. जय जिजाऊ...आपला प्रमोद पाटील....” इसी का नतीजा है कि महाराष्ट्र में अब दूसरे दौर की हिंसा जारी है.

मराठा आंदोलन के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पहलुओं का विश्लेषण करते हुए आज से लगभग दो वर्ष पहले मैंने इसी जगह एक लेख लिखा था-  ( यहां क्लिक करके पढ़ें)  – तब इस बात की तारीफ की गई थी और आश्चर्य भी जताया गया था कि बिना किसी राजनीतिक दल, बड़े नेताओं और किसी भाषणबाजी के बगैर ही यह विराट जनसमूह कितने अनुशासित एवं मूक ढंग से स्वचालित आंदोलन कर रहा है! लेकिन आज वही बात नहीं कही जा सकती. अब आंदोलन पर राजनीति का घटाटोप छाया हुआ है क्योंकि अगला आम चुनाव बहुत दूर नहीं है. इसी के मद्देनजर सीएम देवेंद्र फड़णवीस खुला आरोप लगा रहे हैं कि कुछ नेता महाराष्ट्र में जातियों का बंटवारा करना चाहते हैं. राज्य में उनकी चरम विरोधी शिवसेना ने आंदोलन को खुला समर्थन दे रखा है और अपने मुखपत्र ‘सामना’ में लिखा है कि मराठा आरक्षण को मंजूरी देने के लिए सीएम की सहयोगी पंकजा मुंडे को कम से कम एक घंटे के लिए राज्य की मुख्यमंत्री बना दिया जाना चाहिए. ध्यान रहे कि ग्रामीण विकास मंत्री मुंडे ने मराठा आरक्षण के मुद्दे पर फडणवीस पर परोक्ष हमला बोलते हुए कहा था कि अगर वह राज्य की मुख्यमंत्री होतीं तो इस मुद्दे पर फैसला करने में देरी नहीं करतीं! पार्टी के मराठाप्रेम की वजह यह है कि पिछली बार 18 लोकसभा सीट जीतने वाली शिवसेना को सबसे ज्यादा मराठाओं ने ही वोट दिया था.

वोटों की राजनीति इस कदर हावी हो चली है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण मराठा आरक्षण के मुद्दे पर विधानमंडल का विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग कर रहे हैं. वह सुविधाजनक ढंग से भूल गए हैं कि कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने अपने दौर में जानते-बूझते हुए लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मराठा समुदाय को 16% आरक्षण दिया था लेकिन कोर्ट ने उसे गैर-संवैधानिक करार देते हुए तब भी रोक लगा दी थी. कांग्रेस की उलझन यह भी है कि उसकी सहयोगी एनसीपी मराठा राजनीति के लिए जानी जाती है इसलिए कहीं उसे भी आंदोलन समर्थक पार्टी न समझ लिया जाए. वह खुल कर समर्थन में इसलिए नहीं आ सकती कि पिछले लोकसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद महाराष्ट्र में उसे मिले 18.3 फीसदी वोटों में से 40 फीसदी वोट दलितों के ही मिले थे और मात्र 10 फीसद मराठाओं के. कांग्रेस के ज्यादा उछलने से दलित बिदक सकते हैं. एनसीपी सुप्रीमो और मराठा छत्रप शरद पवार इस आंदोलन को लेकर पहले भी खामोश थे, अब भी मुंह नहीं खोल रहे हैं. दरअसल वह बयानबाजी में नहीं अंदरूनी और जमीनी राजनीति में विश्वास करते हैं. वह समझ रहे हैं कि साल 2012 के लोकसभा चुनावों में एनसीपी को मिले कुल 16.1 फीसदी वोटों में से लगभग 50 फीसदी वोट मराठा और दलित दोनों समुदायों के थे. वह बर्र के छत्ते में हाथ डालकर बिना वजह यह समीकरण बिगाड़ना नहीं चाहते.

राजनीति का एक रूप यह भी है कि आंदोलन के समर्थन में महाराष्ट्र के विधायक धड़ाधड़ इस्तीफा दे रहे हैं. सबसे पहले शिवसेना के हर्षवर्धन जाधव ने इस्तीफा सौंपा. इसके बाद विजयपुर से विधायक भाउसाहेब पाटिल चिकटगांवकर ने इस्तीफा दिया. मराठा आंदोलन सबसे पहले जान गंवाने वाले काकासाहेब शिंदे उनके ही क्षेत्र के निवासी थे. अगले दिन बीजेपी के राहुल अहेर (नासिक), सीमा हिरे (नासिक), एनसीपी के रमेश कदम (मोहोल) और कांग्रेस समर्थित निर्दलीय भारत भाल्के (पंधरपुर) भी इस जमात में शामिल हो गए. लेकिन इस नाटक में हर पार्टी के भाग लेने के कारण से यह पैंतरा प्रहसन बन कर रह गया.

महाराष्ट्र में बीजेपी का कोर वोटर हमेशा से ओबीसी ही रहा है. इसी को ध्यान में रखते हुए फड़णवीस सरकार ने आरक्षण के मुद्दे को ठंडा करने के इरादे से पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया था. राज्य के कुल 30 फीसदी मराठा समाज के 12-13 फीसद कुणबी मराठा पहले ही ओबीसी में शामिल किए जा चुके हैं, इससे मराठा मतदाता घटे हैं. बीजेपी जानती है कि शेष मराठा समाज जितना आक्रामक होगा, दलित और ओबीसी उतना ही गोलबंद होंगे. हमें नहीं भूलना चाहिए कि पिछली बार बीजेपी को मिले कुल 27.6 फीसदी वोटों में से ओबीसी का हिस्सा 38%, एसटी का 33%, एससी का 19% और एसटी का 24% था. इस समीकरण को ध्यान में रखते हुए बीजेपी भी मराठा समाज के सामने दंडवत होते नहीं दिखना चाहती. उसे पता है कि ओबीसी समाज अपने कोटे का आरक्षण मराठा समाज के साथ किसी कीमत पर साझा नहीं करेगा. इसलिए जो भी मराठा आरक्षण के समर्थन में ज़रूरत से ज्यादा उछल-कूद मचाएगा, उसे ओबीसी की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. यही वजह है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस भी बीजेपी पर इतनी आक्रामक नहीं हो पा रही है.

राजनीतिक समीकरण अपनी जगह हैं लेकिन मराठा आंदोलन के लक्ष्य से भटकने और युवाओं की आत्महत्याएं बढ़ने से पूरे महाराष्ट्र में चिंता व्याप्त है. आंदोलन के कर्ताधर्ता भी समझ रहे हैं कि हिंसक तत्व अक्सर बाहर से घुसाए जा रहे हैं. वे बार-बार शांतिपूर्ण आंदोलन का आवाहन करते हैं और हर बार आंदोलनकारी कानून अपने हाथ में लेने लगते हैं. पुलिस अधिकारी बताते हैं कि पत्थरबाजी के लिए दूसरे इलाकों से पत्थर लाए जाते हैं और हिंसक तत्व भी स्थानीय नहीं होते. मराठा मोर्चा के नेता एवं विधायक नरेंद्र पाटिल ने ऐसे लोगों पर उचित कार्रवाई की मांग भी की है. लेकिन अब आगे ‘मराठा क्रांति मोर्चा’ की म्याऊं-म्याऊं से काम नहीं चलेगा. ऐसा रास्ता निकालना पड़ेगा कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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