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केसीआर तीसरी बार बन पाएंगे मुख्यमंत्री या फिर तेलंगाना से दक्षिण भारत में बीजेपी को मिलेगा सहारा

इस साल जिन 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होना बाकी है, उनमें दक्षिण भारत से सिर्फ एक राज्य तेलंगाना बचा है. इस राज्य का सियासी दंगल दो वजहों से देश के हर राजनीतिक विश्लेषकों के साथ ही आम लोगों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है.

पहली वजह ये है कि बीआरएस अध्यक्ष और प्रदेश के अस्तित्व के बाद से ही यहां के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल रहे के. चंद्रशेखर राव के लिए ये पहला मौका होगा, जब किसी विरोधी दल की ओर से दमदार चुनौती मिलने की संभावना है. दूसरी वजह ये है कि कर्नाटक में करारी हार के बाद दक्षिण भारत के 5 बड़े राज्यों में से सिर्फ़ तेलंगाना ही एकमात्र राज्य है, जहां बीजेपी की सियासी उम्मीदों को आकार मिल सकता है.

नवंबर-दिसंबर में चुनाव की संभावना

तेलंगाना विधानसभा का कार्यकाल 16 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां मध्य प्रदेश, राजस्थान के साथ इस साल नवंबर-दिसंबर में चुनाव हो सकता है. तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग होकर जून  2014 में अलग राज्य बना. उसके बाद से ही यहां की राजनीति और सत्ता पर के. चंद्रशेखर राव और उनकी पार्टी भारत राष्ट्र समिति BRS (पहले इसका नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति TRS था) का एकछत्र राज रहा है. 

केसीआर के पास तीसरी बार सीएम बनने का मौका

जब अलग राज्य बना था तो केसीआर यहां पहली बार 2 जून 2014 को मुख्यमंत्री बने थे. अलग राज्य बनने के बाद 2018 में यहां पहली बार विधानसभा चुनाव हुआ था और इस साल तेलंगाना में दूसरी बार विधानसभा चुनाव होना है. केसीआर के पास इस बार लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का मौका है. जिस तरह से बीजेपी यहां जीतने का दावा करते हुए अपनी तैयारियों को अंजाम देने में जुटी है, उसको देखते हुए इस बार केसीआर के लिए ऐसा करना पहले के मुकाबले आसान नहीं रहने वाला है.

चंद महीने पहले तक केसीआर 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेसी विपक्षी मोर्चा बनाने की कवायद में जुटे थे. इसके लिए बकायदा उन्होंने बीजेपी और कांग्रेस से इतर कई दलों के शीर्ष नेताओं से मुलाकात भी की थी. हालांकि उनके इस मुहिम को कोई ज्यादा तवज्जो नहीं मिला. शरद पवार जैसे नेताओं ने साफ कर दिया था कि बिना कांग्रेस, बीजेपी के खिलाफ कोई गठबंधन बनाना एक तरह से निरर्थक ही साबित होगा.

उसके बाद जब नीतीश कुमार ने कुछ महीने पहले विपक्ष का गठबंधन तैयार करने के लिए हाथ पांव मारना शुरू किया, तो केसीआर के मुहिम का असर धीरे-धीरे नदारद हो गया. इसके विपरीत अब बीआरएस प्रमुख के सामने खुद की सत्ता बचाने की चिंता अब ज्यादा बड़ी हो गई है और इसके लिए केसीआर ने लीक से हटकर काम करना भी शुरू कर दिया है.

केसीआर को बीजेपी से मिलेगी कड़ी चुनौती

के. चंद्रशेखर राव को ये एहसास हो गया कि बीजेपी पिछले 4-5 साल बड़ी तेजी से यहां मजबूत हुई है. केसीआर इस बात से भी भलीभांति परिचित हैं कि बीजेपी की कोशिश है कि यहां भी उत्तर भारत के राज्यों की तर्ज पर हिंदू-मुस्लिम के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण हो, ताकि उनकी सत्ता में वापसी मुश्किल हो जाए. तेलंगाना की आबादी में 2011 की जनगणना के मुताबिक 85 फीसदी हिन्दू हैं और करीब 13 फीसदी मुस्लिम हैं. यहां सवा फीसदी के आसपास ईसाई भी हैं.

हिंदुत्व को नहीं बनने देना चाहते हैं मुद्दा

इससे पहले बीजेपी के नेता अक्सर केसीआर पर हिंदुओं के साथ भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं. पिछले साल बीजेपी के तेलंगाना प्रदेश अध्यक्ष बंदी संजय कुमार ने कहा भी था कि केसीआर मंदिरों के निर्माण की अनुमति नहीं देकर और पुजारियों को किसी भी प्रकार का मानदेय न देकर हिंदुओं के साथ भेदभाव कर रहे हैं. उन्होंने उस वक्त सवाल पूछा था कि आखिर क्यों मुख्यमंत्री केसीआर मस्जिदों के इमामों को तो राशि दे रहे हैं, लेकिन पुजारियों को 6,000 रुपये प्रति माह देने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं.

केसीआर अब खुलकर जिस तरह से पिछले कुछ महीनों से हिंदू से जुड़े मुद्दों को लेकर मुखर दिख रहे हैं, वो साफ बताता है कि ये बीआरएस का बीजेपी से आगामी चुनाव में मिलने वाली चुनौती का तोड़ है.

यही कारण है कि तेलंगाना सरकार ने पिछले महीने धूप दीप नैवेद्यम कार्यक्रम के तहत अलग-अलग मंदिरों के  को दी जाने वाली वित्तीय सहायता को 6,000 से बढ़ाकर 10,000 रुपये प्रति महीना करने का ऐलान किया था. तेलंगाना सरकार ने वैदिक पुजारियों के मानदेय को 2,500 से बढ़ाकर 5,000 रुपये प्रति महीना करने की भी घोषणा की.

इतना ही नहीं, राज्य की आबादी में 3% की हिस्सेदारी वाले ब्राह्मण समुदाय के कल्याण से जुड़ी कई योजनाओं की भी घोषणा की. हैदराबाद में अलग-अलग पीठों के संतों के साथ मुख्यमंत्री केसीआर ने 31 मई को हैदराबाद के गोपनपल्ली में 9 एकड़ में बने ब्राह्मण सदन भवन का उद्घाटन किया. इस सदन में हिंदू धर्मग्रंथों के लिए एक लाइब्रेरी और संतों के लिए आवास की व्यवस्था भी है. इसके अलावा सीएम केसीआर ने वैदिक विद्यालयों के लिए 2 लाख रुपये की एकमुश्त अनुदान को वार्षिक अनुदान में बदलने का भी ऐलान किया. साथ ही आईआईटी और आईआईएम में पढ़ने वाले गरीब ब्राह्मण छात्रों के लिए फीस अदायगी का भी ऐलान किया. 

हिंदुत्व पर बीजेपी को नहीं देना चाहते एडवांटेज

तेलंगाना सरकार की इन तमाम प्रयासों  स्पष्ट है कि आगामी चुनाव को देखते हुए बीआरएस प्रमुख केसीआर बीजेपी को प्रदेश में हिंदुत्व के आधार पर एडवांटेज लेने नहीं देना चाहता है. हालांकि बीजेपी केसीआर के इन सभी कोशिशों को चुनाव में लाभ लेने के लिए राजनीतिक स्टंट बता रही है. वहीं सियासी जानकार इसे बीजेपी के केसीआर को हिंदू विरोधी करार दिए जाने के अभियान का तोड़ निकालने के लिए बीआरएस की रणनीति का हिस्सा मानते हैं.

दरअसल इस बार केसीआर की चिंता का कारण यहीं है कि पिछले 9 साल में तेलंगाना में उनकी सरकार है और नए राज्य के गठन के बाद से ही उन्हें किसी और दल से इतनी बड़ी चुनौती नहीं मिली थी, जितनी बड़ी चुनौती इस बार बीजेपी से मिलने की संभावना है. 

मिशन साउथ के लिए तेलंगाना है जरूरी

बीजेपी के लिए कर्नाटक की हार के बाद तेलंगाना की सत्ता को हासिल करना और भी महत्वपूर्ण हो गया है. कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में से सिर्फ तेलंगाना में बी बीजेपी की राजनीतिक हैसियत उस तरह की है, जहां वो सत्ता हासिल करने के बारे में फिलहाल सोच सकती है. कर्नाटक की सत्ता खोने के बाद बीजेपी के लिए निकट भविष्य में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में कोई बड़ा उलटफेर करने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि इन तीनों राज्यों में बीजेपी की पकड़ बेहद ही कमजोर है. केरल में तो चुनावी नतीजों के हिसाब से बीजेपी का एक तरह से अस्तित्व ही नहीं है. ले देकर उसके लिए दक्षिण भारत के बड़े राज्यों में तेलंगाना से उम्मीद है.

तेलंगाना को लेकर बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी है

यही वजह है कि बीजेपी ने तेलंगाना को लेकर पूरी ताकत झोंक दी है. पिछले दो-तीन साल से ही बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व यहां पर काफी फोकस कर रहा है. इसी को ध्यान में रखकर पिछले साल जुलाई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में हुई थी. बीजेपी ने करीब 18 साल के बाद इस तरह की बैठक हैदराबाद में की थी. 2019 लोकसभा चुनाव में मिले अच्छे नतीजों के बाद से ही पार्टी के शीर्ष नेताओं का दौरा भी तेलंगाना में लगातार होते रहा है. इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का दौरा भी शामिल है. पीएम मोदी ने 2022 में 4 बार तेलंगाना का दौरा किया था.

आने वाले दिनों में दिल्ली से नेताओं का दौरा बढ़ेगा

बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि पड़ोसी राज्य कर्नाटक की हार का तेलंगाना के चुनाव पर भी असर पड़े. इसके लिए आगामी दिनों में दिल्ली से नेताओं का दौरा बढ़ने की संभावना है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए 15 जून को तेलंगाना का दौरा करने वाले हैं. इस दौरान वे खम्मम में एक जनसभा भी करेंगे. अमित शाह इस दौरान प्रदेश अध्यक्ष बंदी संजय कुमार को लेकर पार्टी के एक वर्ग के बीच पनप रहे असंतोष के साथ ही आंतरिक कलह को दूर करने की भी कोशिश करेंगे.

तेलंगाना में पार्टी को मजबूत करने नजरिए से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व और प्रदेश इकाई दोनों की नजर उन नेताओं पर भी टिकी है, जो बीआरएस से निकाल दिए गए हैं या फिर केसीआर से नाराज हैं. इस साल अप्रैल में बीआरएस ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए खम्मम से पूर्व लोकसभा सदस्य पोंगुलेटी श्रीनिवास रेड्डी और पूर्व मंत्री जुपल्ली कृष्ण राव को पार्टी से निलंबित कर दिया था. अब इन दोनों नेताओं पर कांग्रेस के साथ बीजेपी की भी नजर है. अमित शाह के खम्मम दौरे पर इसको लेकर भी कोई फैसला हो सकता है.

पिछले दो ढाई सालों में बीजेपी ने बीआरएस के नाराज नेताओं और विधायकों को अपने पाले में लाने की हर कोशिश की है. कभी तेलंगाना सरकार में मंत्री रहे ई राजेंद्र ने केसीआर से नाराज होकर बीजेपी का दामन थाम लिया था. उसके बाद नवंबर 2021 में हुजूराबाद सीट पर हुए उपचुनाव में बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर ई राजेन्द्र ने टीआरएस को मात दी थी.  बीआरएस के पूर्व सांसद कोंडा विश्वेश्वर रेड्डी    और बूरा नरसैय्या गौड़ के भी आने से बीजेपी की ताकत हैदराबाद और उसके आस पास के जिलों में बढ़ी है.

वंशवाद की राजनीति को बीजेपी बनाएगी मुद्दा

बीजेपी तेलंगाना के शहरी इलाकों में पकड़ मजबूत करने पर ध्यान लगा रही है. इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को भी वहां भुनाना चाहती है. बीजेपी तेलंगाना में वंशवाद की राजनीति को मुद्दा बनाकर भी केसीआर को घेरना चाहती है. इस बीच दिल्ली आबकारी नीति से जुड़े शराब घोटाले में केसीआर की बेटी और विधान परिषद की सदस्य के कविता का नाम जुड़ने के मसले को भी बीजेपी बड़ा चुनावी मुद्दा बनाएगी, जिससे बीआरएस को निपटना होगा. इसके साथ ही केसीआर को पिछले 9 साल के सत्ता विरोधी लहर की काट खोजने से भी इस बार जूझना होगा.

बंदी संजय कुमार से केसीआर को मिलेगी चुनौती

तेलंगाना में बीजेपी को यहां तक पहुंचाने में बंदी संजय कुमार का भी बड़ा हाथ रहा है. यही वजह है कि 2019 में करीमनगर से पहली बार लोकसभा सांसद बने और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष बंदी संजय कुमार केसीआर के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुके हैं. मार्च 2020 में बीजेपी ने बंदी संजय कुमार को तेलंगाना का अध्यक्ष बनाया था. इसके बाद उन्होंने 5 फेज में प्रजा संग्राम यात्रा किया, जिससे तेलंगाना में बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने और एक बड़ा कैडर खड़ा करने में मदद मिली.  दिल्ली में  इस साल जनवरी में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंदी संजय कुमार के संघर्ष की जमकर तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं को बंदी संजय कुमार से सीखना चाहिए. उन्होंने कहा था कि बंदी संजय कुमार ने केसीआर सरकार के खिलाफ जिस तरह की लड़ाई लड़ी है, वो एक तरह से नज़ीर है.

हालांकि पिछले कुछ सालों में बाहर से आकर बीजेपी का दामन थामने वाले तमाम नेता चाहते हैं कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रदेश की कमान के लिए किसी नए चेहरे को चुने. बीजेपी को इस पर भी ध्यान देना पड़ेगा. चुनाव के चंद महीने ही बचे हैं, ऐसे में बीजेपी प्रदेश नेतृत्व बदलना तो नहीं चाहेगी, लेकिन बंदी संजय कुमार के खिलाफ जो भी आवाज उठ रही है, उन्हें शांत और संतुष्ट करने के लिए जल्द ही शीर्ष नेतृत्व कुछ फैसला कर सकता है. तेलंगाना के लिए पार्टी प्रभारी तरुण चुग और सुनील बंसल के सामने नाराज नेताओं को एकजुट करने की भी चुनौती है.

तेलंगाना में केसीआर का रहा है एकछत्र राज

अब तक के चुनावी इतिहास की बात करें, तो राज्य गठन के बाद से ही यहां केसीआर की पार्टी छाई रही है और धीरे-धीरे करके कांग्रेस और टीडीपी कमजोर होते गई. इसका सबसे बड़ा फायदा बीजेपी को मिला. यही वजह है कि बीजेपी 9 साल में ही तेलंगाना में केसीआर का विकल्प बनने का दावा कर रही है. बीजेपी प्रदेश में कांग्रेस और टीडीपी से काफी आगे निकल चुकी है.

2018 में केसीआर की पार्टी को मिली बड़ी जीत

अलग राज्य बनने के 4 साल बाद तेलंगाना के लोगों ने पहली बार 2018 में पहली बार विधानसभा के लिए और 2019 में लोकसभा चुनाव के लिए मतदान करने का मौका मिला था. केसीआर को  2018 के विधानसभा चुनाव में तेलंगाना के लोगों का प्यार जमकर मिला था. तेलंगाना की कुल 119 सीटों में से 88 सीटों पर जीत कर  केसीआर की पार्टी दो तिहाई से भी ज्यादा बहुमत हासिल करने में सफल रही थी. टीआरएस को करीब 47 % वोट मिले थे. अलग राज्य बनने से पहले 2014 में आंध्र प्रदेश के लिए हुए विधानसभा से तुलना करने पर तेलंगाना से संबंधित हिस्सों में केसीआर को 25 सीटों फायदा हुआ था. 

वहीं 2018  विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सिर्फ़ 19 सीटें ही जीत पाई थी. हालांकि उसका वोट शेयर 28 फीसदी से ज्यादा था. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम महज़ 2.7% वोट के बावजूद 7 सीट जीतकर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. जबकि एन. चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी को 3.5% वोट शेयर के साथ महज़ 2 सीटों से संतोष करना पड़ा था.

2018 में बीजेपी सिर्फ़ एक सीट जीत पाई

बीजेपी के लिए 2018 का विधानसभा चुनाव सीटों के लिहाज से तो कोई ख़ास नहीं रहा था. 118 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद बीजेपी सिर्फ़ एक ही सीट जीत पाई थी, लेकिन 7% से ज्यादा वोट हासिल कर बीजेपी वोट शेयर के मामले में तीसरे नंबर पर रही थी. ये तो बात सही है कि 2018 तक बीजेपी का तेलंगाना की राजनीति में कोई ख़ास पकड़ नहीं थी.   

2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी का दिखा दम

2018 के विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन रहने के 4 महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी के प्रदर्शन में अभूतपूर्व सुधार दिखा. बीजेपी तेलंगाना की 17 में से 4 सीटें जीतने में कामयाब रही. बीजेपी का वोट शेयर भी 19.45% तक पहुंच गया. उसके वोट शेयर में भी 2018 के विधानसभा चुनाव से 12% से ज्यादा का उछाल आया. वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में बीजेपी को यहां 3 सीटों का फायदा हुआ.

वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में केसीआर की पार्टी को 9 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. टीआरएस का वोट शेयर 41.29% रहा, जो 2018 के विधानसभा चुनाव से करीब 6 फीसदी कम था. उसे 2014 के मुकाबले 3 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा. वहीं कांग्रेस 3 और एआईएमआईएम एक सीट जीत पाई. कांग्रेस का वोट शेयर 29.48% रहा. कांग्रेस का वोट शेयर विधानसभा चुनाव से एक फीसदी ज्यादा रहा.
 
केसीआर के जनाधार में सेंध की कोशिश

2019 के लोकसभा चुनाव से ही ये एहसास हो गया था कि भविष्य में बीजेपी तेलंगाना में केसीआर के लिए चुनौती बनने वाली है. इस चुनाव के नतीजों का आकलन विधानसभा सीटों के हिसाब से करने पर पता चलता है कि 2018 में सिर्फ एक विधानसभा सीट जीत पाई थी, लेकिन 2019 के आम चुनाव में 21 विधानसभा सीटों में आगे थी. वहीं केसीआर की पार्टी 2018 में 88 सीटें जीती थी. लेकिन 2019 के आम चुनाव में उनकी पार्टी का जनाधार घट गया था. उस वक्त टीआरएस सिर्फ 71 विधानसभा सीटों पर ही आगे थी. ये संकेत था कि तेलंगाना के लोगों के बीच केसीआर की पार्टी की पकड़ धीरे-धीरे कम होने लगेगी.

बीजेपी को कांग्रेस-टीडीपी के कमजोर होने का लाभ

ये बात सही है कि कांग्रेस और टीडीपी लगातार तेलंगाना में कमजोर होते जा रही थी और उसी का लाभ बीजेपी को मिला. इन दोनों चुनाव से एक बात और निकलकर सामने आती है कि तेलंगाना में टीडीपी का तो कोई ज्यादा जनाधार नहीं रह गया है, लेकिन कांग्रेस का जनाधार अभी भी है, भले ही वो सीट में नहीं बदल रहा है. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर बीजेपी से 10 फीसदी ज्यादा रहा था. बीजेपी 4 सीट जीतने के साथ दो सीटों पर दूसरे पायदान पर थी. वहीं कांग्रेस 3 सीट जीतने के साथ 8 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी.

अगर आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी को केसीआर से सत्ता हथियाना है, तो इसके लिए जरूरी है कि कांग्रेस के वोट बैंक में भी उसे सेंध लगानी पड़ेगी क्योंकि ऐसा नहीं होने पर सत्ता विरोधी वोटों के बिखराव से केसीआर को ही फायदा मिलेगा और आसानी से उनके तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जाएगा. 

तेलंगाना की अस्मिता से खुद को जोड़ते हैं केसीआर

ऐसे भी तेलंगाना की स्थानीय पहचान और अस्मिता से केसीआर को जोड़कर बीजेपी को बाहरी दिखाने की कोशिश उनकी पार्टी जरूर करेगी. चूंकि तेलंगाना राज्य बनाने में के. चंद्रशेखर राव की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है और पिछले 9 साल में उनकी सरकार ने प्रदेश की आर्थिक हालात को भी पहले से काफी बेहतर बना दिया है. 

आर्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन है ताकत

प्रति व्यक्ति आय के मामले में तेलंगाना फिलहाल देश में नंबर वन पर है. तेलंगाना का पर कैपिटा इनकम सालाना 3.17 लाख रुपये तक पहुंच गया है, जो राष्ट्रीय औसत 1.70 लाख रुपये से काफी ज्यादा है. जब तेलंगाना राज्य बना था, उस वक्त से ये आंकड़ा दोगुना से भी ज्यादा हो गया है. उस वक्त तेलंगाना का प्रति व्यक्ति आय 1.24 लाख रुपये थी. बिजली उत्पादन की क्षमता में भी दोगुनी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है. ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट ( GSDP) भी उस वक्त के 5,05,849 करोड़ रुपये से बढ़कर 12,93,469 करोड़ रुपये हो चुका है. राज्य सरकार का ये भी दावा है कि देश में तेलंगाना एकमात्र राज्य है, जहां फिलहाल 100% घरों में नलों के जरिए शुद्ध ताजा पानी की आपूर्ति की जाती है.

एससी-एसटी समुदाय पर नज़र

तेलंगाना विधानसभा में 18 सीटें अनुसूचित जाति और 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. तेलंगाना के 33 जिलों में से 9 जिले संविधान के अनुच्छेद 244(1) के तहत शेड्यूल एरिया में आते हैं. तेलंगाना की आबादी में 9.34% आदिवासियों की संख्या है. एससी और एसटी दोनों ही समुदाय में केसीआर की पार्टी की पकड़ बेहद मजबूत है. अब तो तेलंगाना सरकार 24 जून से 1.5 लाख आदिवासियों को चार लाख एकड़ 'पोडू' (Podu) लैंड का टाइटल बांटने वाली है. केसीआर सरकार मे दूसरे पेज के तहत  1.50 लाख परिवारों को 'दलित बंधु' योजना देने की भी घोषणा कर दी है. इस योजना के पसंद का व्यवसाय करने के लिए एक दलित परिवार को 10 लाख रुपये दिए जाते हैं.इन सारे पहलू और कारकों से केसीआर की स्थिति मजबूत नजर आती है.

कर्नाटक में दिखा था कि मजहबी आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करना दक्षिण भारतीय राज्यों में मुश्किल है. इसके साथ ही आर्थिक विकास और सामाजिक समीकरणों को साधने में केसीआर को महारत हासिल है और बीजेपी को आने वाले दिनों में इसकी भी काट खोजनी होगी.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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