कल्पेश याग्निक: दिल्ली की पत्रकारिता को करीब 850 किमी दूर से चुनौती देने वाला योद्धा
'असंभव के विरुद्ध', अनुशासन, अभ्यास, अनुभूति और अनुभव आधारित अलख जगाने वाला योद्धा अब हमारे बीच सशरीर नहीं रहा.

फुल आस्तीन वाली शर्ट लेकिन कोहनी तक मुड़ी हुई, ढीली जींस जिसे अक्सर वह संभालने के लिए उपर खींचते रहते थे, जूतों के ढीले फीते, इतने छोटे बाल कि कंघे की जरूरत ही ना हो, दमकता चेहरा और अखबार के बिखरे पन्नों में कुछ खोजती आंखें... यही शारीरिक पहचान है दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर कल्पेश याग्निक की.
सुबह करीब 8 बजे नींद खुली और रोज तो आदत नहीं है लेकिन शायद आज प्रकृति को यह दुखद सूचना देनी थी, मैंने फेसबुक खोला...पहली सूचना यही मिली कि 'असंभव के विरुद्ध', अनुशासन, अभ्यास, अनुभूति और अनुभव आधारित अलख जगाने वाला योद्धा अब हमारे बीच सशरीर नहीं रहा. किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में कुछ देर रहने के बाद उनके सहयोगी और हमारे वरिष्ठ शरद गुप्ता जी को मैंने खबर को कन्फर्म करने के लिए फोन लगाया. फोन व्यस्त था बेचैनी इतनी कि कॉल बैक का इंतजार किये बगैर फिर डिजिटल विंग के वर्तमान संपादक अनुज खरे को फोन किया. वह भी नहीं उठाये कि अचानक शरद सर ने कॉल बैक करने के साथ यही बोला कि हां, प्रकाश रीडर सेंट्रिक जर्नलिस्ट और भास्कर का हर प्रयोग चला गया.
हर बड़े इवेंट हों..बजट, होली, दिवाली या कोई बड़ी घटना.. दैनिक भास्कर दिल्ली की पत्रकारिता को अपने प्रयोग से अक्सर चौंकाता है. कल्पेश जी इंदौर की मिट्टी से मिली विविधता और रीडर सेंट्रिक जर्नलिज्म के विरासत को नया आयाम देने में जुटे हुए हैं..ओह सॉरी जुटे हुए 'थे'. एक पल 'हैं' से 'थे'...कितना खतरनाक और हृदय को वेदता है यह बदलाव. कल्पेश सर को समझने के लिए आपको इंदौर को समझना होगा. राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के हिन्दी पत्रकारिता में नये प्रयोग जैसे ही आप समझने लगेंगे वैसे ही आप अचानक बोल पड़ेंगे कल्पेश याग्निक के भास्कर में नये प्रयोग तो विरासत को योग्य वारिस सरीखा है.
कल्पेश सर व्यक्तिगत जीवन में भी बेहद ब्रांड कॉन्शस थे उसकी झलक उनके प्रोफेशनल जीवन में भी दिखती थी. बड़ी घटना पर अक्सर वह ट्रेनी से संपादक तक सभी से खबर की हेडिंग मंगाते थे. उनमें सर्वसम्मति से सबसे बेस्ट का चयन होता था. वह खुद चाहे ट्रेनी हो या संपादक उसकी हेडिंग के चयन के बाद शाबाशी देने पहुंचते थे. उनके ऑफिस की दिवारों में खबरों की कटिंग.. हेडिंग और नये आइडिया का जुनून था. हिन्दी पत्रकारिता में अक्सर भाषा पर खूब बहस होती है. आपको एक छोटी सी घटना बताता हूं. एक बार मैंने एक लेख लिखा.. उसमें शुरुआत में ही एक भोजपूरी शब्द का प्रयोग था. किसी साथी ने संदेह जताया कि हिन्दी भाषा में भोजपूरी का प्रयोग उचित नहीं है. यदि उस लेख से मैं भोजपूरी के उस शब्द को हटा देता तो उस लेख का कोई महत्व नहीं था. मैं बेधड़क कल्पेश सर के केबिन में गया. मेरा यह लेख है क्या हिन्दी में भोजपूरी का प्रयोग वंचित है? उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मर्म है और उसके लिए रीडर की समझ में आने वाला शब्द उचित है और छपने योग्य है. और वह लेख उसी शब्द के साथ छपा. अक्सर मैं भाषा में बहस के दौरान उस घटना का जिक्र करता हूं. खबर उसी आसान भाषा में उचित है जो रीडर को समझ आए. लेख में हर वह शब्द उचित है जो सही मर्म को बताए ना कि किसी भाषाई बंधन के तहत कोई पर्यायवाची.
सत्ता के साथ अक्सर उनके संघर्ष को देखते हुए मैंने भोपाल से पत्रकारिता की सही अर्थ में पढ़ाई की. खबरों को लिखने से ज्यादा पाठकों के फीड बैक पर फोकस रखने की सीख अक्सर मिलती रहती थी. नये विचार, नई ऊर्जा पर हर क्षेत्र में भाषण देते लोग आपको मिल जाएंगे लेकिन कल्पेश सर को नई ऊर्जा को, नये विचार को अक्सर बड़ी जिम्मेदारी देते हुए देखा है मैंने....हिन्दी पत्रकारिता में उम्र और अनुभव बहुत मायने रखती है. इस परंपरा को तोड़ना असंभव सरीखा था जिसके विरुद्ध रहे कल्पेश याग्निक... दिल्ली की पत्रकारिता को करीब 850 किमी दूर से चुनौती और मार्गदर्शन देने वाले योद्धा को श्रद्धांजलि...
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


























