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क्षेत्रीय आकांक्षाएं ही नहीं कांग्रेस की उदासीनता भी है 'इंडिया ब्लॉक' के बिखराव की वजह

इंडिया गठबंधन के बिखराव का सर्वाधिक प्रमुख कारण संवादहीनता को माना जा रहा है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में हो रहे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी आमने-सामने है. महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव अकेले लड़ने की शिवसेना (यूबीटी) की घोषणा के कुछ दिन बाद पार्टी नेता संजय राउत ने कहा है कि किसी गठबंधन की सफलता के लिए संवाद बेहद जरूरी है. लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा को शिकस्त देने के लिए निर्मित इंडिया गठबंधन के घटक दलों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं के समक्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बेबस नजर आ रही है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी कुशल समन्वयक बनने की कोशिश करने के बजाय विवादित बयान देकर चर्चा में बने रहते हैं. इंडिया ब्लाॅक में कुल 28 राजनीतिक दलों के शामिल होने की बातें की जातीं हैं, लेकिन किसी को भी नहीं मालूम है कि इस गठबंधन का संयोजक कौन है.

भाजपा के खिलाफ मोर्चा विफल

यह सच बेहद रोचक है कि भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी मोर्चा बनाने की पहल नीतीश कुमार ने तब की थी जब वे बिहार में महागठबंधन की सरकार का नेतृत्व कर रहे थे. उन्होंने भाजपा विरोधी दलों को साथ लाने के लिए काफी कोशिशें भी की थीं. लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले ही अपने चिरपरिचित अंदाज में नीतीश एक बार पुनः एनडीए में शामिल हो गए. लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लाॅक के घटक दल भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता तो नहीं दिखा सके. किंतु 2014 व 2019 की तुलना में भाजपा का चुनावी प्रदर्शन जरूर प्रभावित हुआ. इन दो लोकसभा चुनावों में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला था, लेकिन अब भाजपा अपने सहयोगी दलों पर निर्भर है.

चुनावी नतीजे बताते हैं कि इंडिया गठबंधन की स्थापना ने अपनी सार्थकता साबित की थी. इसके बावजूद परस्पर-विरोधी हितों के टकराव ने इस गठबंधन की राहें मुश्किल कर दीं. पंजाब विधानसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में समझौता नहीं हो सका था, अब दिल्ली विधान सभा चुनाव में भी विपक्षी एकता दम तोड़ चुकी है. यह विधानसभा चुनाव भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए "करो या मरो" की स्थिति वाला है. भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची में प्रधानमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री ही नहीं बल्कि बिहारी नेता भी शामिल हैं. लेकिन इसके ठीक विपरीत विपक्ष यहां बिखरा हुआ है. अरविंद केजरीवाल के समर्थन में ममता बनर्जी और तेजस्वी यादव बयान दे रहे हैं. कांग्रेस के कुछ उम्मीदवारों के अतिआत्मविश्वास को छोड़ दिया जाए तो यह पार्टी चुनावी सफलता के लिए सही रणनीति नहीं अपना सकी है. कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित भाजपा की खामियां गिनाने के बजाय अरविंद केजरीवाल से ही सवाल पूछ रहे हैं. दरअसल कई राज्यों में कांग्रेस को चुनौती भाजपा से नहीं, बल्कि अपने ही सहयोगी राजनीतिक दलों से मिल रही है.

ममता बनर्जी भी कांग्रेस से नाराज

ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षाएं पश्चिम बंगाल तक ही सीमित नहीं हैं. वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका देख रही हैं और इसके लिए वे कांग्रेस को पीछे छोड़ना जरूरी समझती हैं. हालांकि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के तेवर से भी स्पष्ट है कि उसकी रुचि गठबंधन को सुरक्षित रखने में नहीं है. पार्टी के प्रवक्ता पवन खेड़ा का कहना है कि गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव के लिए था और अब यह अस्तित्व में नहीं है. जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के सहयोग से सरकार चलाने वाले नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने भी इस मसले पर राय जाहिर करते हुए कहा है कि अगर यह गठबंधन संसदीय चुनावों के लिए ही था तो फिर इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए.

उमर इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करने के कारण अपने ही सहयोगियों की आलोचना झेल रहे हैं. सोनमर्ग सुरंग के उद्घाटन के अवसर पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा कि सीमाओं पर शांति बहाली के मोदी के प्रयास से जम्मू-कश्मीर को बहुत फायदा हुआ है. संघ शासित प्रदेश में निष्पक्ष विधानसभा चुनाव का श्रेय अब्दुल्ला ने मोदी और चुनाव आयोग को दिया. हैरानी की बात यह है कि राहुल गांधी भाजपा की आलोचना करने में इतने व्यस्त हैं कि अपने सहयोगियों के मनोभावों को भांपने की कोशिश भी नहीं कर पा रहे हैं. संजय राउत इंडिया गठबंधन के घटक दलों के बीच संवाद बनाये रखने के लिए जिम्मेदार नेताओं की नियुक्ति की जरूरत महसूस करते हैं. उनके अनुसार गठबंधन के सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस को यह भूमिका निभानी चाहिए. बिहार में कांग्रेस लालू यादव की इच्छाओं के समक्ष नतमस्तक है. इसके बावजूद तेजस्वी यादव तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को चुनावी सफलता के लिए शुभकामनाएं देते हैं.

गैरकांग्रेसवाद से गैरभाजपावाद कब तक?

बहुदलीय पद्धति भारतीय लोकतंत्र की पहचान है. सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों में प्रतियोगिता का होना स्वाभाविक है. लेकिन विपक्षी राजनीतिक दल भाजपा के विरुद्ध मुद्दों के आधार पर संगठित नहीं हो रहे हैं. उनकी प्राथमिकताओं में राष्ट्रहित नहीं शामिल हैं. जिन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के साथ कांग्रेस गठबंधन करती है, उन्हें शक्ति कांग्रेस के पराभव से ही मिली है.

चतुर्थ आम चुनाव में कांग्रेस को पराजित करने के लिए डॉ राममनोहर लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया था. हालांकि उस समय लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सफल हुई, लेकिन विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस की स्थिति दयनीय हो गई. राज्यों में संविद सरकारों के गठन का एक नया दौर शुरू हो गया. समाजवादियों में आपसी मतभेद होने के कारण राज्य सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित नहीं हो सकी.

इंदिरा गांधी द्वारा लागू किए गए आपातकाल के विरुद्ध उपजे जनाक्रोश को भुनाने के लिए कांग्रेस विरोधी राजनीतिक दलों ने जनता पार्टी का गठन किया था. यह प्रयोग कामयाब रहा क्योंकि 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पराजित हो गई और देश को पहली बार एक गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री मिला. उन दिनों लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के किस्से लोगों को उद्वेलित कर रहे थे. किंतु लोकनायक के शिष्यों ने उनके अरमानों का गला घोंट डाला और जनता पार्टी की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी.

देशवासियों ने 1980 के चुनाव में सत्ता की बागडोर पुनः इंदिरा गांधी को सौंप दी. गौरतलब है कि 1980 में गठित भाजपा आज मुल्क की सबसे ताकतवर पार्टी है और कांग्रेस सक्षम नेतृत्व के अभाव में दिशाविहीनता की शिकार है. भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर चुकी राजीव गांधी की सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए गठित राष्ट्रीय मोर्चा को भाजपा और वामपंथी दलों का समर्थन प्राप्त था. 1989 में हुआ यह प्रयोग भी विफल रहा. विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर के राजनीतिक टकराव के कारण गठबंधन राजनीति अपनी विश्वसनीयता खोने लगी थी. इसके बावजूद 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार का गठन हुआ.

कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी संयुक्त मोर्चा सरकार ने दो वर्षों के दौरान देश को प्रधानमंत्रियों की सौगात दी. इस मामले में अटल बिहारी वाजपेयी की चर्चा आवश्यक है, क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की उपादेयता सिद्ध की थी. उनके प्रधानमंत्रित्व काल में परमाणु परीक्षण भी हुआ और कारगिल युद्ध में भारत ने जीत भी हासिल की थी. 2004 में अटल सरकार की विदाई के पश्चात बननेवाली यूपीए सरकार ने डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लगातार दो कार्यकाल जब पूरा कर लिया तो एकदलीय वर्चस्व की अवधारणा अप्रासंगिक हो गयी.

2014 से देश में एनडीए की हुकूमत है. गैरकांग्रेसवाद अब गैरभाजपावाद में बदल गया है. भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, आर्थिक विकास और बेहतर प्रशासन के नारों के सहारे अन्य दलों को अपनी रणनीति बदलने के लिए बाध्य कर रही है. स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है, लेकिन राजनीतिक दल अगर परिवारों की जागीर बन जाएंगे तो मध्यकालीन सूबेदारी व्यवस्था की आलोचना करना मुश्किल होगा. ज्यादातर गैरभाजपा व गैरवामपंथी दल किसी-न-किसी परिवार की राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के माध्यम हैं. इनसे राष्ट्रनिर्माण की उम्मीद करना व्यर्थ है. भाजपा के विरुद्ध साझा मोर्चा उसी स्थिति में बन सकेगा जब विपक्षी नेता अपने निजी स्वार्थ के बदले राष्ट्रीय मुद्दों की परवाह करेंगे.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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