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कांग्रेस की हालिया हार से गैर-कांग्रेसी दल होंगे मजबूत, इंडिया गठबंधन के लिए अगली लड़ाई नहीं होगी आसान

हालिया संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजो में कांग्रेस की हार के बाद ये कयास लगने शुरू हो गए हैं कि अब विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन की क्या रणनीति होगी और वह चुनाव में कितनी दमदार उम्मीदवारी पेश कर सकते हैं? नतीजों के आने यानी 3 दिसंबर को खड़गे ने 6 दिसंबर को गठबंधन की बैठक के लिए आह्वान दिया, लेकिन नीतीश, ममता और अखिलेश यादव जैसों के कन्नी काटने से सरगोशियां भी शुरू हो गयीं और बैठक भी आगे के लिए टल गयी. इस माहौल में यह भी सवाल उठना शुरू हो गया है कि क्या इंडिया गठबंधन आम चुनाव के लिए तैयार भी है या भाजपा जैसी चुनावी मशीन से वह दो-दो हाथ इस रणनीति से कैसे करेगी?  

गैर-कांग्रेसी दल होंगे मजबूत

तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद इंडिया गठबंधन के लिए आनेवाले लोकसभा चुनाव में गैर-कांग्रेसी जो मजबूत दल है, उनके लिए शुभ संकेत हैं. इन दलों में खासकर टीएमसी, जेडीयू और समाजवादी पार्टी शामिल है. लालू प्रसाद की आरजेडी तो एक तरह से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने और उनकी शादी करवाने का ठेका ले चुके हैं. याद किया जाए कि जब इंडिया गठबंधन की पहली बैठक पटना में जुलाई के महीने में हुई थी, तो उसमें मंच से ही लालू यादव ने कहा था कि सोनिया ने उनसे कहा था कि राहुल को शादी के लिए मनाएं. इस तरह लालू प्रसाद तो राहुल को दूल्हा बनाने के साथ देश का दूल्हा बनाने पर भी आमादा हैं. इसलिए, जो गैर-कांग्रेसी ताकतवर विपक्षी दलों के लिए कांग्रेस की हार शुभ है.

ऐसा इसलिए है कि अगर कांग्रेस का सोचा हुआ ठीक हो जाता, जो वह अति-आत्मविश्वास में सोच रही थी कि वह छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बरकरार रहेगी, मध्य प्रदेश भाजपा से छीन लेगी और तेलंगाना भी जीत जाएगी- अगर यह सच हो जाता, तो यह निश्चित था कि वह बाकी सारे दलों को अंगूठा दिखा देती. याद किया जा सकता है कि वह ऐसा कर चुकी थी. नवंबर में जब चुनाव लड़े जा रहे थे तो कमलनाथ ने जिनकी अगुआई में कांग्रेस ने पूरा चुनाव लड़ा, उन्होंने कहा था कि अरे छोड़िए अखिलेश-वखिलेश को. उन्होंने इंडिया गठबंधन की तीसरी बैठक तक भोपाल में नहीं होने दी, तो कांग्रेस ने तो तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे. 

कांग्रेस का अहंकार गठबंधन पर भारी

कांग्रेस का जो आलाकमान है, कहने को भले अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, लेकिन असली कमान कहां है, सब जानते हैं. आज 9 दिसंबर को सोनिया गांधी का जन्मदिन है जो कांग्रेस की शीर्ष नेत्री हैं और दिल्ली के अखबारों में जो विज्ञापन पटे पड़े हैं, उनमें खड़गे की तस्वीर टिकट साइज से थोड़ी ही बड़ी है. वह तो बस मुहर लगाने वाले अध्यक्ष हैं. बाकी जो तीन शीर्ष लोग हैं, राहुल, सोनिया और प्रियंका, उनको भी कमलनाथ ने ठेंगा दिखा दिया. इसके बाद भी तय था कि अगर कांग्रेस दो-तीन राज्य भी जीत जाती तो गठबंधन को ठेंगे पर रखती. अब कांग्रेस कमजोर पड़ी है, और उसको गठबंधन के साथियों की जरूरत होगी और कांग्रेस ने यह दिखा दिया भी है. नतीजे सामने आते ही खड़गे ने छह दिसंबर को गठबंधन की बैठक बुला ली थी. छह दिसंबर का एक प्रतीकात्मक महत्व भी था कि अगर बाबरी मस्जिद ध्वंस के दिन हम एकता दिखाएंगे, तो बड़ा संदेश जाएगा. हालांकि, सबसे पहले तो ममता बनर्जी ने ही किनारा किया और उसके बाद नीतीश कुमार ने भी बहाना बना दिया. बाकी, अखिलेश यादव तो चिढ़े ही बैठे हैं और दिखाते भी रहे हैं, जब से कमलनाथ का बयान आया है. स्टालिन का उत्तर भारत में असर ही नहीं है, फिर भी वह नहीं आए. 

कांग्रेस की हार से कुछ दल खुश

कांग्रेस कमजोर हुई है तो इसका मतलब ये भी तो है कि भाजपा मजबूत हुई है. इसका मतलब ये भी है कि विपक्षी गठबंधन में जो कांग्रेस के अलावा के दल हैं, वे थोड़ा सा खुश भी हैं और दुखी भी. हिरण्यकशिपु की तरह- न सुख में, न दुख में. दुख इस बात का है कि भाजपा मजबूत हुई है, क्योंकि चाहे सपा हो, जेडीयू हो टीएमसी हो, उनकी लड़ाई तो सीधी भाजपा से है, तो भाजपा के मजबूत होने का एक मानसिक लाभ उनके कार्यकर्ताओं को भी मिलेगा. जो कांग्रेस कमजोर हुई है, अब उनको चाहिए. तो ये दुख और सुख दोनों की ही घड़ी है. इस दुख को रोकने के लिए वे एक होंगे, लेकिन अब एकता की बात अब गैर-कांग्रेसी दलों की शर्तों पर होगी. अभी तक यह देखा जा रहा था कि सारी बातें कांग्रेस के मुताबिक हो रही थीं. ठीक है कि थोड़ा सा विरोध अखिलेश करते हैं, लेकिन नीतीश तो विरोध कर भी नहीं पाते, क्योंकि वे तो दो साल पहले तक भाजपा के साथ थे. अब कांग्रेस जो बड़े भाई की भूमिका में थी, अपर हैंड रख रही थी, वह अब संभव नहीं होगा. अब बातें जेडीयू, टीएमसी, सपा जैसे दलों की शर्तों पर होगा. 

भाजपा को साधें, कांग्रेस को नाथें

अगर इस गठबंधन को सफल होना है, तो गैर-भाजपावाद की तरह इंडिया गठबंधन के दलों को गैर-कांग्रेसवाद भी थोड़ा अपनाना होगा, क्योंकि कांग्रेस के जो सर्वेसर्वा हैं- राहुल गांधी, वह तो इसको पार्टटाइम जॉब की तरह लेते हैं. राहुल गांधी चाहे भारत-यात्रा कर लें, या विदेश यात्रा कर लें, उनकी अब बहुत साख नहीं बची है. याद कर सकते हैं कि 2017 में उन्होंने गुजरात चुनाव में पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन कांग्रेस हार गयी तो वह फिर विपश्यना पर निकल लिए. नतीजा, भाजपा आसानी से जीतने लगी. अब इस बार उन्होंने मध्यप्रदेश में तो जो किया सो किया ही, राजस्थान में वह कितने सक्रिय थे, इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि 55 दिनों के चुनाव-अभियान के बाद उन्होंने मात्र चार घंटे गुजारे और कुछ दो-तीन सभाएं कीं.

तो, राहुल गांधी की छवि जो भी है, वह कुछ पत्रकारों, एनजीओ मार्का वकीलों वगैरह  को छोड़ दें, तो देख सकते हैं कि उनकी छवि इस देश की आम जनता के बीच अब नहीं है. अगर विपक्षी गठबंधन क्षेत्रीय दलों पर अधिक ध्यान दे, तो शायद वे नरेंद्र मोदी को दमदार तरीके से चुनौती दे सकते हैं. राहुल गांधी की राजनीति तो वही है कि वे देश में रहेंगे नहीं, विदेश घूमेंगे, वहां भाषण देंगे और सोचेंगे कि देश बदल रहा है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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