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अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर राहुल गांधी के शीश नवाने के आखिर क्या हैं सियासी मायने?

देश के मीडिया में हर तरफ चर्चा हो रही है और सवाल भी उठ रहा है कि राहुल गांधी आख़िर अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर नतमस्तक होने क्यों गये थे? बीजेपी नेताओं की तरफ से इस पर ऐतराज जताना अपनी जगह है लेकिन कांग्रेस के इस राजनीतिक दांव का विश्लेषण करने और उसका क्या असर हो सकता है इसे जरा बारीकी से समझने की जरुरत है. 

दरअसल, कांग्रेस देश की जनता के बीच ये संदेश देने की कोशिश में लगी है कि साल 1998 से 2004 तक वाजपेयी की अगुवाई वाली बीजेपी की सरकार थी. उसके बाद 2014 से अब लगातार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार चल रही है. दोनों सरकारें एक ही पार्टी और उसी संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए चली भी और आज भी चल रही है. लेकिन दोनों सरकारों के कामकाज के तौर-तरीके क्या थे और अब क्या हैं. इसकी तुलना करने के लिए कांग्रेस देश के लोगों को मजबूर भी कर रही है. हालांकि इस तुलना करने-कराने का उसे कितना चुनावी फायदा मिलेगा ये तो फ़िलहाल कोई भी नहीं जानता.

लेकिन राहुल गांधी ने अटल जी की समाधि पर पहुंचकर बीजेपी को थोड़ा इसलिए बैकफुट पर ला दिया है कि वे अपनी भारत जोड़ो यात्रा के जरिये देश में फैले नफ़रत और डर के जिस माहौल को खत्म करने की बात कह रहे हैं वो लोगों के बीच क्लिक तो कर ही रहा है. बेशक देश के बहुसंख्य लोग उनके इस तर्क से सहमत ना भी हो लेकिन उन्होंने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए एक बड़े मुद्दे की बिसात तो बिछा ही दी है. राहुल ने अटल जी की समाधि पर नतमस्तक होकर एक संदेश ये भी दिया है कि आप देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर तो बैठ सकते हैं लेकिन अटल जी जैसा विशाल हृदय व विपक्ष की आवाज़ को समुचित सम्मान देने का हौंसला नहीं जुटा सकते.

ये तो देश के राजनीतिक इतिहास का तथ्य है कि वाजपेयी ने अपने सियासी जिंदगी में सबसे बड़ी पारी विपक्ष में रहते हुए ही खेली है लेकिन जब वे छह साल के लिए पीएम बने तो उन्होंने विपक्ष के किसी भी बड़े नेता के खिलाफ कोई व्यक्तिगत हमला नहीं किया. उल्टे, उनके हर जायज़ काम को तुरंत पूरा करने का न सिर्फ निर्देश दिया बल्कि उसके तामील होने तक अपनी नजरें भी लगाई रहीं. इसलिये उन्हें भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा उदारवादी नेता माना जाता है और समूचा विपक्ष भी ये मानता है कि उनके कद को छू पाना, किसी भी नेता के लिए कोई बच्चों का खेल नहीं है.

ये अटल-अडवाणी का बनाया स्व घोषित नियम था कि चुनाव के दौरान विपक्ष के किसी बड़े नेता के खिलाफ अपनी पार्टी की तरफ से कोई उम्मीदवार नहीं उतारेंगे. इसे कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने माना और अपनाया भी. इसीलिए साल 2014 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी ने अमेठी और रायबरेली से राहुल और सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार उतारने का फैसला किया तो पार्टी के भीतर से ही इसके खिलाफ आवाज़ें उठी थीं और इसमें सबसे मुखर थीं, दिवंगत सुषमा स्वराज.

जनसंघ से लेकर बीजेपी बनने तक के सफ़र में अटल जी ही ऐसे एकलौते नेता रहे, जो कांग्रेस की विचारधारा से पूरा मुकाबला तो करते थे लेकिन सत्ता के शीर्ष पद बैठे कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की खूबियों का बखान संसद में करने से कोई कंजूसी नहीं बरतते थे. फिर चाहे पंडित नेहरू हों, इंदिरा गांधी हों या फिर उनके सामने सियासत में उभरे राजीव गांधी ही क्यों न रहे हों लेकिन अटल जी ने उनकी सरकारों के किए अच्छे कामों की खुलकर तारीफ़ करने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती.

राहुल गांधी के अटल जी की समाधि पर पहुंचने के कई सियासी मायने निकाले जा रहे हैं और निकाले भी जाने चाहिये जिससे किसी को हर्ज होना भी नहीं चाहिए. लेकिन राहुल ने अपने इस कदम से एक ही पार्टी की दो सरकारों के बीच जो लकीर खींचने की कोशिश की है उसमें सियासत के साथ एक इमोशनल रिश्ता भी है. मई 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जघन्य हत्या होने के बाद जब मीडिया ने अटल जी से उनकी पहली प्रतिक्रिया पूछी थी तो उन्होंने बेहद भावुक अंदाज में कहा था जी कि "अगर आज मैं जीवित हूं, तो ये राजीव जी की ही कृपा है." उस एक वाक्य के पीछे हमारे देश की राजनीति का एक बड़ा रहस्य ये भी छुपा हुआ था कि नफ़रत के सहारे सत्ता की राजनीति नहीं चलती और सरकार को अपने हर अहम फैसले में विपक्ष को भी साथ लेना जरूरी होता है.

दरअसल, साल 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ये पता लगा कि अटल जी को उनकी किडनी के इलाज की जरूरत है, जो भारत में मुमकिन नहीं है. लिहाजा, राजीव गांधी ने तय किया कि अमेरिका जाने वाले सरकार के प्रतिनिधिमंडल का नेता अटल जी को बनाकर भेजा जाए ताकि इस बहाने वे सरकारी खर्च पर ही वहां अपनी बीमारी का समुचित इलाज भी करवा सके. बताते हैं कि अटल जी को जब इस फैसले की जानकारी मिली तो वे हैरान होने के साथ ही इसके लिये अनुग्रहित भी थे कि एक प्रधानमंत्री किसी विपक्षी नेता के लिए इतना उदार हृदय भी रखता है.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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