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ये सिंदूर ही तो तय करता है कि औरत किसी पुरुष की ‘प्रॉपर्टी’ है

एक दफा किसी ने कहा था- शादी के बाद लड़कियां सिंदूर नहीं लगातीं तो लगता ही नहीं कि वे शादीशुदा हैं. दरअसल सिंदूर या ‘सुहाग की निशानियों’ के जरिए उन पर यह चस्पा किया जाता है कि वे किसी की संपत्ति हैं.

एक चुटकी सिंदूर की असल कीमत पिछले दिनों गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले से समझ आई. कोर्ट ने एक आदमी को अपनी बीवी से इस आधार पर तलाक दिलवा दिया क्योंकि उसकी बीवी ने सिंदूर और शंख की चूड़ियां पहनने से इनकार कर दिया था. शंख की चूड़िया असम, बंगाल में शादीशुदा औरतें पहनती हैं. किसी ने इन्हें पहनने से इनकार कर दिया तो यह परंपरा का अपमान माना गया. यह भी माना गया कि उस औरत का शादी में विश्वास ही नहीं है. भला,औरतें उस सिंदूर और चूड़ियों के मायने क्यों नहीं समझतीं? यह आदर्श भारतीय स्त्री की छवि है. हिंदू विवाह का उल्लंघन है. आदर्श औरत कौन आदर्श भारतीय स्त्री की क्या परिभाषा है? आजकल अदालतें इनका खूब बयान कर रही हैं. कुछ दिन पहले कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस परिभाषा को स्पष्ट किया है- आदर्श भारतीय स्त्री वह है, जो बलात्कार के बाद सोए नहीं- तुरंत इस अपराध की इत्तेला करे. भला आदर्श भारतीय स्त्री बलात्कार के बाद सो कैसे सकती है? एकाध साल पहले वाराणसी के एक स्टार्टअप ने लड़कियों को आदर्श बहू बनने की ट्रेनिंग देने की पेशकश की थी. ऐसी ट्रेनिंग गीता प्रेस वाले कई सालों से दे रहे हैं. उनके अंकों और पुस्तकों के नाम पढ़कर ही सब कुछ पता चल जाता है- जैसे नारी धर्म, स्त्री के लिए कर्तव्य दीक्षा, भक्ति नारी, नारी शिक्षा, दांपत्य जीवन के आदर्श, गृहस्थ में कैसे रहें, वगैरह. ऐसा आदर्श गुवाहाटी कोर्ट ने सेट किया है. स्त्री अगर सिंदूर न लगाए तो वह शादीशुदा जिंदगी से खुश नहीं. ऐसे सवाल अक्सर औरतों पर उछाले जाते हैं. 2018 में पुणे में मानवाधिकार कार्यकर्ता वरवर राव की बेटी से पुलिस ने पूछा था- आपने कोई गहना क्यों नहीं पहना, सिंदूर क्यों नहीं लगाया है? आपने एक पारंपरिक गृहिणी की तरह कपड़े क्यों नहीं पहने हैं? पारंपरिक गृहिणी के लिए कपड़े भी तय हैं. 2018 में ही आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के गांव थोकलापल्ली की औरतों को दिन में नाइटी न पहनने का फरमान सुनाया गया था. आदर्श गृहिणियां दिन में ऐसे कपड़े नहीं पहन सकतीं- उन्हें साड़ी वगैरह पहनने को कहा गया था. सिंदूर या बपौती की रेखा एक दफा किसी ने कहा था- शादी के बाद लड़कियां सिंदूर नहीं लगातीं तो लगता ही नहीं कि वे शादीशुदा हैं. बेशक, लड़कियों के लिए शादीशुदा दिखना जरूरी है. यह दिखना जरूरी है कि उनके शरीर, पहचान और सेक्सुएलिटी पर किसी पुरुष का कब्जा है. सिंदूर या ‘सुहाग की निशानियों’ के जरिए उन पर यह चस्पा किया जाता है कि वे किसी की संपत्ति हैं. चूड़ियां, सिंदूर, मंगलसूत्र, बिछुए इसी का संकेत हैं. खास तौर से इस बात का कि औरत आपके लिए उपलब्ध नहीं- वह किसी खास पुरुष की अमानत है. किसी एक पुरुष की पूर्ति के लिए, उसके सुख के लिए. यूं यह सबको पता है कि हमारे समाज में कई सौ सालों से ऐसी ही मान्यताएं हैं. यह दिलचस्प है कि सरकार तक सिंदूर, चूड़ी जैसी चीजें को अनिवार्य बताकर उन पर जीएसटी नहीं वसूलती. अदालतें इसी धारणा को पुख्ता कर रही हैं. एक बात और है. गुवाहाटी वाले मामले में कोर्ट ने बीवी को अत्याचारी बताया क्योंकि वह अपनी सास की सेवा के लिए तैयार नहीं थी. इसी आधार पर कोर्ट्स पहले भी तलाक दिलवा चुके हैं. बहू अगर सास ससुर की सेवा न करे तो वह खलनायिका कहलाती है. पति के श्रवण कुमार सरीखे दिखने की भावना हमारे भीतर गहरे छिपी हुई है. इस अहसास के दौरान कोई इस बात पर ध्यान नहीं देता कि लड़कियां भी अपने परिवार को छोड़कर ससुराल आती हैं. क्या इससे अपने माता-पिता के प्रति उनके दायित्व प्रभावित नहीं होते. ऐसे फैसलों से एक बात और साफ होती है. औरतों को एक होमोजीनियस श्रेणी माना जाता है- जो हमेशा एक जैसा बर्ताव करेंगी. दूसरा, न्यायिक फैसले अदालतों में लिंग के आधार पर लिए जाते हैं. ऐसे फैसलों का कारण गुवाहाटी हाई कोर्ट के ऐसे फैसले का क्या कारण है? यह मामला प्रतिनिधित्व का भी है. ज्यूडीशियरी खुद पुरुष प्रधान है. जस्टिस आर भानुमति के रिटायर होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में 31 सिंटिंग जजों में सिर्फ दो महिला जज बचेंगी. सीनियर होने के लिहाज से देखा जाए तो निकट भविष्य में किसी महिला के चीफ जस्टिस बनने की उम्मीद भी नहीं. अप्रैल 2018 में जस्टिस इंदु मल्होत्रा के सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त होने के बाद सभी ने खुशी जाहिर की थी कि वह पहली महिला वकील हैं जिन्हें सीधे सुप्रीम कोर्ट की जज बनाया गया है. फिर जून 2018 में जस्टिस पीटी आशा को मद्रास हाई कोर्ट का जज बनाया गया तो सब फिर खुश हुए क्योंकि मद्रास हाई कोर्ट अकेली ऐसी उच्च न्यायालय है जहां 63 जजों में 12 महिला जज हैं. फिर भी कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट और देश के हाई कोर्ट्स के आंकड़े बताते हैं कि 23 हाई कोर्ट्स के 656 सिटिंग जजों में सिर्फ 73 महिलाएं हैं. यह कुल सिटिंग जजों का 11.12 प्रतिशत है. हैरानी की बात तो यह है कि पांच हाई कोर्ट्स में एक भी महिला सिटिंग जज नहीं है. इस समय सिर्फ जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट में महिला चीफ जस्टिस हैं. उनका नाम है गीता मित्तल. केरल हाई कोर्ट में सबसे ज्यादा तीन बार महिला चीफ जस्टिस रही हैं. हाई कोर्ट्स के 592 पूर्व चीफ जस्टिस में सिर्फ 16 महिलाएं हैं. यह कुल संख्या का 2.7 प्रतिशत है. प्रतिनिधित्व के इसी अभाव से औरतों के प्रति परंपरागत सोच को बल मिलता है. जाहिर सी बात है, अगर न्यायिक प्रणाली में औरतें मौजूद होंगी तो अपने जेंडर के प्रति संवेदनशील भी होंगी. औरतों के पक्ष में फैसलों के लिए औरतों को उन जगहों पर बैठने की जरूरत है, जहां उनकी मौजूदगी न के बराबर है. तभी वे तय करेंगी कि सिंदूर जरूरी है या उनकी अपनी पहचान.
(उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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