BLOG: ‘सोशल मीडिया कम्यूनिकेशन हब’ और कुछ नहीं, लोगों की जुबान कतरने का एक बहाना है

फैंटेसी उपन्यासों के ब्रिटिश लेखक टेरी प्रैचेट ने अपनी 41 पुस्तकों वाली ‘डिस्कवर्ड’ श्रृंखला की एक पुस्तक में लिखा था कि सत्य के कदम रखने से पहले ही एक झूठ दुनिया का चक्कर लगा सकता है. भारत के सोशल मीडिया पर आज उनकी यह उक्ति सौ फीसदी खरी उतरती है. सोशल वेबसाइट्स, वॉट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग्स आदि पर अफवाह, फेक न्यूज और दुष्प्रचार की शक्ल में किसी बगूले की तरह चक्कर काटता यह झूठ अनगिनत मासूम लोगों का हत्यारा बन चुका है. व्हाट्सऐप समूहों में बच्चा चुराने वाले गिरोह के बारे में हाल ही में उड़ाई गई अफवाहों के चलते गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा आदि प्रदेशों में हुई मॉब लिंचिग यह भी साबित करती है कि इस झूठ के लिए भाषा कोई बाधा नहीं है. सस्ते स्मार्टफोन और लगभग मुफ्त डेटा वाले इस दौर में सत्य के कदम रखने से पहले ही अफवाहें जितनी तेजी से घातक परिणाम दे रही हैं और देंगी, वह भयावह है.
ऐसा भी नहीं है कि सोशल मीडिया पर चौबीसों घंटे सिर्फ आपसी वैमनस्य फैलाने का कारखाना चलता है. वहां देश, समाज, व्यक्ति से संबंधित सभी आंतरिक-बाह्य पहलुओं पर भी विचार-विमर्श और चिंतन चलता रहता है. लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि संगठित और पेड नफरतकर्ता सज्जन व्यक्तियों की वॉल या समूह में टिड्डियों की तरह हमला बोलते हैं, टेक्स्ट व विजुअल तकनीक का इस्तेमाल करके झूठ, कुतर्क और घृणा की सामग्री से उनकी पोस्ट को लथेड़ डालते हैं. ये ट्रॉल धर्म और जातिसूचक गालियां देते हुए उनकी सात पुश्तों को बदनाम करते हैं, आपत्तिजनक सामग्री के सहारे भोले-भाले लोगों का मन-मस्तिष्क दूषित करने में इन्हें सफलता भी मिल जाती है. इसका कारण यह है कि सोशल मीडिया की भ्रामक और उत्तेजक सामग्री लोगों के मन में छिपी व्यग्रता को और उभार देती है तथा अपने ही जैसे लाखों असुरक्षित लोगों के भय के साथ एकांत में सीधे और निःशुल्क जोड़ देती है. हमारा राजनीतिक झुकाव, हमारी विचारधारा, वर्तमान सरकारों के बारे में हमारी सोच सोशल मीडिया पर उपलब्ध कराए जा रहे डेली के डोज से निर्धारित होने लगी है और हम हर दम इस भय में मुब्तिला रहते हैं कि आस-पास कोई है, जो हमारे लिए खतरा है.
फाइल
शायद इसीलिए केंद्र सरकार ने यह तय किया कि सोशल मीडिया और डिजिटल मंचों पर निगरानी रखी जाए तथा ऑनलाइन डेटा की मॉनिटरिंग की जाए. सोशल मीडिया पर प्रोपेगेंडा फैलाने वालों पर कानूनी शिकंजा कैसे कसा जा सकता है, इस नुक्ते को लेकर पिछले वर्ष 22 जून को गृह मंत्रालय में एक बड़ी बैठक हुई थी, जिसमें गृह मंत्रालय और केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों के शीर्ष अधिकारियों ने काफी सर खपाया था. उसके बाद जनवरी 2018 में खबर आई कि केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक ऐसा ‘सोशल मीडिया कम्यूनिकेशन हब’ स्थापित करने की योजना बनाई है, जो देश के हर जिले में ट्रेंड कर रही खबरों पर नजर रखेगा और केंद्र सरकार की प्रमुख योजनाओं के बारे में प्रतिक्रिया एकत्र करेगा. इस परियोजना के तहत अनुबंध के आधार पर हर जिले में मीडियाकर्मियों की भर्ती की जाएगी. ये लोग सरकार के ‘आंख-कान’ होंगे तथा जमीनी स्थिति के बारे में हब को ‘रियल टाइम’ अवगत कराते रहेंगे. यह भी कि ये मीडियाकर्मी सरकार की नीतियों को लेकर लोगों की प्रतिक्रिया लेंगे और प्राप्त प्रतिक्रिया का विश्लेषण करने के लिए केंद्रीय स्तर पर विशेषज्ञों को रखा जाएगा.
बस यहीं से इस सरकारी सोशल मीडिया हब की नीयत पर शंका उठने लगती है. कहां तो बात हो रही थी, सोशल मीडिया का दुरुपयोग करके गड़बड़ी फैलाने वालों पर अंकुश लगाने की और बात पहुंच गई डेटा विश्लेषण तक. लोग भूले नहीं हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव प्रचार अभियान संभालने वाली कैम्ब्रिज डेटा एनालिटिका नामक कंपनी को फेसबुक का डेटा खंगालने के आरोप में अपनी दुकान बंद करनी पड़ी थी. भाजपा ने इसी कंपनी पर कांग्रेस का साथ देने का आरोप लगाया था. ऐसे में केंद्र सरकार का यह कथित सोशल मीडिया हब नागरिकों की निजी जानकारी और व्यवहार का पैटर्न एकत्रित करके इस तरह का डेटा विश्लेषण कैसे कर सकता है?
मंत्रालय के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ‘ब्रॉडकॉस्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स इंडिया लिमिटेड’ (बेसिल) द्वारा हाल ही में जारी निविदा की भाषा पर गौर कीजिए. इस परियोजना के लिए सॉफ्टवेयर की आपूर्ति के मकसद से 20 अगस्त को खुलने जा रहे निविदा दस्तावेज में कहा गया है कि सभी सोशल मीडिया एवं डिजिटल मंचों से डिजिटल सूचना एकत्र करने के लिए इस प्रौद्योगिकी मंच की जरूरत है. इससे जुड़े टूल को हिंदी, उर्दू, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, बंगाली, पंजाबी, तमिल और अंग्रेजी सहित विभिन्न भाषाओं के अनुकूल होना चाहिए. मतलब यह कि इस टूल के जरिए लोगों के ट्विटर, फेसबुक, वॉट्सऐप के साथ-साथ उनके ईमेल, न्यूज साइट्स, डिजिटल चैनल्स, ब्लॉग्स और अन्य खातों पर भी नजर रखी जा सकती है!

सरकार के इस प्रयास को पीएम नरेंद्र मोदी के उस बयान की रोशनी में भी देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि अगला आम चुनाव सोशल मीडिया पर लड़ा जाएगा. उन्होंने अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को अपने-अपने क्षेत्र में घर-घर जाकर केंद्रीय योजनाओं का प्रचार-प्रसार करने की नसीहत भी दी थी. इस परियोजना के तहत जिलों में भर्ती होने वाले मीडियाकर्मी आखिरकार इन्हीं सत्तारूढ़ जन-प्रतिनिधियों के पिछलग्गू ही तो बनेंगे और एक अदम्य सरकारी सूचना-तंत्र विकसित होगा?
स्पष्ट है कि यह जनता के ही पैसे से जनता पर निगरानी रखने की एक कवायद है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी भांप लिया है. सोशल मीडिया हब बनाने के खिलाफ दायर तृणमूल कांग्रेस की विधायक महुआ मोइत्रा की याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की महत्वपूर्ण बेंच ने स्पष्ट कहा है कि सरकार लोगों के वॉट्सऐप मैसेज पर नजर रखना चाहती है, जो एक ‘निगरानी राज’ की तरह होगा. मामले की गंभीरता देखते हुए सर्वोच्च अदालत ने तत्परता दिखा कर टेंडर खुलने के काफी पहले ही सुनवाई की 3 अगस्त की तारीख निश्चित कर दी है और भारत के एटॉर्नी जनरल से मशविरा मांगा है.
आज सोशल मीडिया ही ऐसा मंच है जिस पर किसी सरकार का नियंत्रण नहीं है. सोशल मीडिया हब कुछ और नहीं बल्कि इस आजाद पंछी के पर कतरने और डेटा इकत्रित व विश्लेषित करके विरोधियों की जुबान बंद करने की साजिश है. अगर सरकार की नीयत साफ है तो वह केंद्र, राज्य और पुलिस मशीनरी को अधिक भरोसेमंद और जिम्मेदार बनाने का प्रयास क्यों नहीं करती, ताकि झूठ के पर कतरे जा सकें और अपने-पराए का भेद न करते हुए सोशल मीडिया के नटवरलालों को समय पर कड़ा न्यायिक दंड दिलाया जा सके?
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