BLOG: 'चौकीदार नहीं भागीदार' जैसे नारों के सहारे 2019 का बेड़ा पार कर पाएंगे राहुल?
सियासी झमेलों से निपटने के लिए, बोफोर्स मुद्दे को गांव गांव पहुंचा कर नायक की तरह उभरी अपनी छवि को बकरार रखने के लिए वीपी सिंह ने मंडल आरक्षण का दांव चल दिया.

काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती...यह ब्रैंड इमेज बनाने वालों से लेकर सियासी पटकथा के लेखक तक बखूबी जानते हैं. दूधिया क़ुमक़ुमों की महताबी रोशनी से नहाए हुए शहर, फटी जींस पहनी और नेटफ्लिक्स के वीडियो में डूबी नई चकाचौंध, रेशमी साड़ी में लिपटी महिलाओं और मीठे पकवान से कैलोरी बढ़ने की चिंता करने वालों के चुनावी मुद्दे अलग होते हैं. बेरोजगारी से त्रस्त युवा, हालातों से पस्त मजदूर, गले में फंदा डालकर झुलने वाले किसानों के मुद्दे, मुंहबाए खड़े सरकारी विज्ञापन और 200 रुपये के खरीद पर 10 परसेंट कैश बैक देने वाले पोस्टर से नहाए हुए शहरों के मुद्दे 'वास्तविक भारत' से बिल्कुल अलग होते हैं. विपक्ष इन दो वर्गों के सियासी अंतर को समझने में चूक कर रहा है या वह समझना ही नहीं चाह रहा है.
अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राफेल डील में जहाज की कीमत को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार पर जमकर हमला बोला. राफेल डील पर राहुल गांधी के बयान पर विवाद भी हुआ. राहुल गांधी ने सदन में आरोप लगाया कि अपने करीबी करोबारी समूह को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार ने जहाज की कीमत बढ़ाई. पिछले कई महीनों से राहुल गांधी हर मंच पर राफेल डील का मुद्दा उठा रहे हैं. ऐसा लगता है कि उनके सियासी सलाहकारों ने उन्हें बोफोर्स मुद्दे के आइने में सियासी माइलेज दिखाया है.
वक्त का पहिया पीछे ले चलिए. बोफोर्स रिश्वत कांड का खुलासा 16 अप्रैल 1987 को स्वीडिश रेडियो ने किया था. रेडियो ने दावा किया था कि कंपनी ने बोफोर्स तोप के सौदे के लिए भारतीय नेताओं और रक्षा अधिकारियों को रिश्वत दी है. यह ऐसा मुद्दा था, जिस पर 1989 में राजीव गांधी की सरकार चली गयी थी. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान जब राहुल गांधी समेत कांग्रेस नेता 'चौकीदार नहीं भागीदार है'.. के नारे लगा रहे थे तब 1987 का वो दौर याद आ गया जब विपक्ष संसद से सड़क तक ऐसे ही राजीव गांधी के खिलाफ नारे लगा रहा था.
'राजीव भाई, राजीव भाई तोप की दलाली किसने खाई'... मंगल भवन अमंगल हारी, तोप का पैसा गयो ससुरारी... ऐसे नारे गांव गांव तक पहुंचाए गये. विश्वनाथ प्रताप सिंह हीरो की तरह उभरे थे. हालांकि वीपी सिंह सरकार भी बोफोर्स दलाली का सच सामने लाने में सफल नहीं हुई थी. जनता से किये गये वादे हर बार की तरह वादे हैं वादों का क्या! सियासी झमेलों से निपटने के लिए, बोफोर्स मुद्दे को गांव गांव पहुंचा कर नायक की तरह उभरी अपनी छवि को बकरार रखने के लिए वीपी सिंह ने मंडल आरक्षण का दांव चल दिया. इसकी काट बीजेपी ने रथयात्रा के जरिए निकाला तो कांग्रेस कन्फ्यूज हो गई.
इसका असर हुआ कि बीजेपी सत्ता के करीब होती जा रही थी और कांग्रेस धीरे धीरे सिमटने लगी. वीपी सिंह के उस एक फैसले का ऐसा सियासी असर हुआ कि उसके बाद कभी कांग्रेस को लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका. राहुल गांधी बोफोर्स के आइने में राफेल सौदे के सहारे सियासी सफलता देख रहे हैं. यह कितना सफल होगा यह भविष्य के गर्भ में छिपा है. आप गौर करिए तो 1989 में राजीव गांधी की सरकार जाते ही बीजेपी बोफोर्स मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालकर मंदिर मुद्दे को हवा देने लगी. यानी वह जनता के सामने अगले चुनाव में अलग मुद्दा रखी जिसमें उसे सफलता भी मिली.
अब आगे बढ़िए 2004 में जब अटल सरकार 'इंडिया शाइनिंग' के चमकते विज्ञापन के सहारे चुनावी मैदान में थी तो कांग्रेस ने 'वास्तविक इंडिया' (गरीब मजदूर के बच्चों को मंच पर बैठाकर) सामने रखकर चुनावी सफलता हासिल की. चुनाव परिणाम के बाद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद त्यागकर ऐसी छवि गढी कि बीजेपी विदेशी मूल का मुद्दा ही भूल गयी. 2009 में मनरेगा और किसानों की कर्जमाफी ने एक बार फिर कांग्रेस को सत्ता सौंप दी.
उदारवाद के बाद निम्न और उच्च मध्यवर्ग की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई. उसे रोज की जिंदगी से लेकर सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार से कोफ्त होने लगी, जिसे अन्ना आंदोलन ने हवा दिया. अब इस दौर में मुद्दा भ्रष्टाचार था उस वक्त कांग्रेसी इसकी काट के रूप में सिलिंडरों की संख्या और राइट टू फूड जैसे चुनावी मुद्दे चले. जबकि मध्यवर्ग के सामने कांग्रेस को अगले पांच साल के लिए रोजगार और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून का प्लान रखना था. सोशल मीडिया पर आए नौजवानों की फौज को कांग्रेस के बुजुर्गों ने तवज्जो नहीं दी. इन्हीं नौजवानों के गुस्से को अन्ना आंदोलन ने हवा दी जिसे बीजेपी ने 2014 में भुनाया.
इसी भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर दिसंबर 2013 में दिल्ली से कांग्रेस को सत्ता से दूर कर अरविंद केजरीवाल चमके. लेकिन सरकार फरवरी में गिर गई. फिर चुनाव हुए. ध्यान दीजिए यहां केजरीवाल दो महीने पहले वाले भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़े. इन्होंने जनता के सामने नये मुद्दे लाये वह था बिजली और पानी. दिल्ली के सभी सियासी पंडित उस वक्त कहते थे कि इस दौर में कोई बिजली और पानी जैसे मुद्दे पर चुनाव नहीं जीत सकता. केजरीवाल ने जनता की नब्ज को पहचाना, बिजली और पानी के सहारे रिकॉर्ड मतों से जीतकर पूरे देश को बड़ा संदेश दे दिया. यहां भी ध्यान देने वाली बात है कि जनता के सामने दो महीने में ही नये मुद्दे के साथ केजरीवाल उतरे और जीत हासिल की.
अब फिर गौर करिए अविश्वास प्रस्ताव के दिन दोपहर में राहुल राफेल पर फोकस बना रहे थे, वहीं शाम को प्राइम टाइम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रोजगार के अवसर गिना रहे थे. छोटी छोटी बातों के सहारे प्रधानमंत्री मोदी अपने शासनकाल के दौरान कहां और कितने रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं उसे बताने की पूरी कोशिश कर रहे थे. प्रधानमंत्री अपनी सरकार की योजनाओं से ज्यादा यह बताने में जुटे रहे कि कैसे पिछले चार साल में रोजगार के अवसर बढ़े हैं. अब सवाल यह उठ रहा है कि सरकार बेरोजगारी के मुद्दे पर उपज रहे गुस्से को एहसास कर रही है कहीं राहुल गांधी एक बार फिर जनता के नब्ज को पकड़ने में चूक तो नहीं कर रहे हैं. चौकीदार नहीं भागीदार है..जैसे नारे क्या जन लोकप्रियता के पैमाने पर सफल हैं?
चलिए जाते जाते आप कुछ आंकड़ें पढ़ लीजिए
सिर्फ 2017 की बात करें तो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी यानी सीएमआईई का दावा है कि 14 लाख 30 हजार नए रोजगार पैदा हुए. देश में हर बरस 1 करोड़ 20 लाख नए युवा नौकरी पाने के लिए बाजार मे उतर पड़ते हैं. साढ़े चार करोड़ युवा पहले से रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं. संसदीय समीति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 6 फरवरी 2018 तक डीआईपीपी ने कुल 6981 नए स्टार्टअप चयनित किए. इनमें से सिर्फ 99 स्टार्टअप को फंड दिया गया. जबकि सिर्फ 82 को टैक्स छूट का सर्टिफिकेट जारी हुआ. जबकि मार्च 2019 तक 1000 नए स्टार्टअप की मदद का लक्ष्य तय किया गया है. इतना ही नहीं 2017-18 में स्टार्टअप इंडिया के प्रचार के लिए आवंटित 10 करोड़ की रकम में से डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन यानी डीआईपीपी सिर्फ चार करोड़ रुपए ही खर्च कर सका. सरकार का दावा है कि मुद्रा योजना ने 11 करोड़ लोगों की जिंदगी बदल दी. लेकिन सच यह है कि स्टेट बैंक के दिए 75 फीसदी और ग्रामीण बैंकों के दिए 99 फीसदी मुद्रा लोन डूबने की स्थिति में आ गए हैं. मुद्रा योजना का दूसरा सच यह है कि युवाओं को कर्ज मिल नहीं पा रहा. 2016-17 के आंकड़े कहते हैं कि 90 फिसदी को औसत 23 हजार का कर्ज मिला. जो 50 हजार रुपये से 10 लाख रुपये तक चाहते थे, उन अप्लाई करने वालो में से 95 फीसदी आवेदन खारिज हो गये.
युवा मतदाता और सियासत की नजर
दरअसल, 2019 में जनता के बीच बेरोजगारी ही मुद्दा होगा. ऐसे में उम्मीद है कि सत्ता की नजर उन 8 करोड़ युवा वोटरों पर है, जो पहली बार वोट डालेंगे. अब सवाल यह है कि क्या दूसरी तरफ विपक्ष की नजर उन 11 करोड़ 72 लाख युवा मतदाताओं पर है, जो बेरोजगार हैं और दूसरी बार वोट डालेंगे?
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