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पूर्वोत्तर में जीत से उत्साहित बीजेपी का स्नेह संवाद से केरल में बनेगी बात?

पूर्वोत्तर में चुनावी प्रदर्शन के बाद भाजपा की नजर अब केरल में आगामी विधानसभा चुनाव पर है...वो वहां भी कुछ इसी तरह का प्रदर्शन करना चाहती है. इसके लिए भाजपा ने प्रयास तेज करते हुए स्नेह संवाद कार्यक्रम चला रही है...तो ऐसे में सवाल ये है कि क्या केरल के वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए भाजपा का प्रयास कितना सफल होगा.  पूर्वोत्तर की राजनीति से केरल की राजनीति को जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है. पूर्वोत्तर में भाजपा का जो प्रदर्शन रहा है उसमें से पहले के मुकाबले नागालैंड में बेहतर सीटें आई हैं. बाकी अगर हम त्रिपुरा और मेघालय को देखते हैं तो त्रिपुरा उसे काफी जद्दोजहद के बाद जितनी सीटों की वहां जरूरत थी वो मिल गई हैं. पिछले मुकाबले को अगर देखें तो वहां पर उनकी सीटों में भी और सहयोगी आईपीएफ की भी सीटें कम हुई हैं. इसलिए ये कहना कि पूर्वोत्तर में जो भाजपा का पैठ है वो ज्यादा बड़ा ऐसा नहीं है. 

नागालैंड में नेफ्यू रियो जोकि मुख्यमंत्री हैं उनका और उनकी पार्टी का अपना एक दबदबा है और उनके साथ अगर कोई रहता है तो सामान्य रूप से उनके वोट ट्रांसफर हो जाते हैं भाजपा को ये एडवांटेज वहां शायद बीजेपी के साथ रहा होगा. एक चीज और हमें समझने की जरूरत है वो ये कि भाजपा को पूर्वोत्तर के लोग अभी भी वहां की पार्टी की तरह नहीं मानते हैं. चूंकि लोग उसे एक उत्तर भारत की पार्टी की तरह देखते हैं जो वहां पर पहुंचती है और कोशिश करती है. जहां तक बात त्रिपुरा की है तो वहां पर भाजपा का इंटरेस्ट रहा है चूंकि वहां से पूरा बांग्लादेश से होकर जो रास्ता पूरा दक्षिण-पूर्व की देशों की ओर जाता है उसको खोलने के लिए जो हर तरफ से कोशिश हो रही है उसकी वजह से त्रिपुरा भाजपा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है और इसलिये उन्होंने अपना पूरा जोर त्रिपुरा में झोंका था इसलिए वहां सरकार बन जाती है. वहीं, अगर टिपरा मोथा के साथ लेफ्ट और कांग्रेस का एलायंस होता तो कुछ प्रभावित हो सकता था लेकिन वो गठबंधन इस तरीके से नहीं हो सका और तीनों पार्टियों को इससे नुकसान हुआ है. 

भाजपा की पॉलिटिकल मैच्योरिटी वहां दिखती है. लेकिन मेघालय में पहले भी दो ही सीटें थीं अब भी वही स्थिति है. भाजपा जिस तरह से वहां करना चाहती थी वो नहीं हो सका. वहां कोनराड संगमा जो दोबारा मुख्यमंत्री भी बने हैं उनकी पार्टी जो वहां है और मुकुल संगमा जो हैं कांग्रेस से निकलकर टीएमसी में गए हैं उसकी वजह से टीएमसी को वहां फायदा हुआ है. भाजपा के साथ एक एडवांटेज ये है कि नॉर्थ ईस्ट की जितनी भी पार्टियां या जो सरकारें हैं उनके साथ ये हमेशा रहा है कि केंद्र में जो सरकार रहती है वे उसके साथ जाते हैं. चूंकि केंद्र के साथ जाने से उनको जो वित्तीय मदद हो जाता है. इस वजह से जब कांग्रेस की हुकूमत थी तो वे उसके साथ थे और अब भाजपा की है तो वो उसके साथ खड़े हैं. इसलिए हम नॉर्थ ईस्ट में भाजपा के प्रदर्शन को सही नहीं मानते हैं और वहां पर जिस तरह का प्रदर्शन रहा इससे हम ये भी नहीं कह सकते है कि दूसरे जगहों पर भी इसी तरह का असर हो सकता है.

केरल में हमें पूर्वोत्तर के प्रदर्शन को एक कॉन्टिन्यूटी के हिसाब से देख सकते हैं. चूंकि केरल जो है वहां की राजनीति बिल्कुल अलग तरीके रही है. वहां की राजनीति अभी तक दो ध्रुवीय ही है. एक तो जो कांग्रेस के साथ बाकी पार्टियां है वो एक ध्रुव है और दूसरा जो है वो लेफ्ट का गठबंधन है. लेकिन पिछले कई चुनावों से वहां भाजपा की कोशिश रही है. बीच में उसे एकाध सीटें भी मिली है लेकिन जिस तरीके से भाजपा ने वहां प्रयास किया है, उस तरह की पैठ अभी उसकी नहीं बन पाई है. हालांकि ये कहना सही होगा कि जिस तरह से आरएसएस ने वहां काम किया है, उससे भाजपा का एक बहुत बड़ा बेस जरूर बन गया है. वहां पर जो है धार्मिक ध्रुवीकरण की जो कोशिश रही है वो कहीं न कहीं सफल रहा है. 

इसमें लोगों का भी रूझान है और ये कई वजहों से है. क्योंकि वहां पर जिस प्रकार से मुस्लिम लीग और बाकी ईसाई से संबंधित जो पार्टियां हैं उनका जो एक दबदबा है और इसके खिलाफ लोगों की आवाज जो है वो उठ रही है. इसके बावजूद जब वोटिंग होती है तब हमने देखा है कि जो लोग साथ भी होते हैं वो सारे लोग जाकर भाजपा को वोट करें. इसके पीछे कई तरह के वजह हो सकते हैं. चूंकि जो लोकल मतदाता वोट करने जाते हैं वो ये देखते हैं कि हम कौन सी पार्टी के साथ जा रहे हैं वो जीत रही है या नहीं जीत रही है. दूसरी चीज जो उन्हें प्रभावित करती है वो उनके व्यक्तिगत संबंध होते हैं यानी कि वो ये सोचते हैं कि जो पुराने लोग हैं वो तो ठीक है लेकिन नए लोगों के साथ हमारे संबंध बन पाएंगे या नहीं इस पर भी वोटर का एक साइकोलॉजिकल कम्फर्ट लेवल होता है. इसमें यह जरूरी नहीं है कि जिसके साथ जुड़े हों वोट भी उसी को करें. 

मुझे लगता है कि जिस तरह से भाजपा और संघ ने वहां मेहनत किया है और उसका जो एक सामान्य नतीजा जो दिखना चाहिए वो केरल में नहीं दिख रहा है और अगर हम वहां पर वोट प्रतिशत को भी देखते हैं तो वहां पिछले चुनावों में भाजपा को मानइर प्रतिशत ही मिला है. तो इन सभी कारकों को देखते हुए पूर्वोत्तर के प्रदर्शन को केरल से जोड़ कर देखना सही नहीं होगा. क्योंकि केरला आज भी रीजनल पॉलिटिक्स की जो डायनेमिक है वो बिल्कुल अलग है और लेफ्ट भी इस बात को समझती है कि भाजपा जो है वो बहुत तेजी से उभर कर आ रही है इस वजह से लेफ्ट की तरफ से भाजपा के कार्यकर्ताओं पर बहुत तरह के हमले भी हुए हैं.

कई हमले तो हिंसक भी रहे हैं और इन सारी चीजों के बाद आने वाले चुनाव में इसका असर दिखेगा और सबसे अच्छी बात जो संघ की है वो ये कि वे संवाद बहुत ही अच्छे से स्थापित करते हैं लोगों के साथ और आज जब ये स्नेह संवाद हो रहा है तो इसका भी कितना असर होगा ये भी आने वाले समय ही दिखेगा और केंद्र में भाजपा की सरकार होने के कारण वहां कितना लाभ होगा इसका भी आकलन हमें देखना होगा. लेकिन दक्षिण की क्षेत्रीय राजनीति को अगर आप देखें तो कर्नाटक को छोड़कर भाजपा अभी भी न तो तेलंगाना में न ही तमिलनाडु में उसकी पैठ बन पाई है. मेरे ख्याल में इसका भी असर कहीं न कही दिखता है लेकिन मेरे ख्याल से आज भाजपा जिस स्थिति में है वो बहुत ही सक्रिय रूप से काम करती है और लोगों के पास पहुंचने के बाद वह उनके लिए हर तरह से काम करना चाहती है. इन हालातों में आने वाले समय में बीजेपी केरल की राजनीति में कुछ पैठ बना सके या हो सकता है कि वह कुछ सीटें जीत भी जाए. लेकिन अभी जो मोमेंटम है वो पूरा-पूरा बदल जाएगा ऐसा नहीं है. 

केरल में अगर बीजेपी सफल हो जाती है तो फिर उसमें सिर्फ लेफ्ट को ही नुकसान नहीं होगा उसमें जो यूडीएफ है और कांग्रेस हो उनको भी भारी राजनीतिक क्षति होगी. अगर इन दोनों के बीच में भाजपा अपनी पैठ बना लेती है तभी वह केरल में सफल हो पाएगी. पिछले चुनाव में एक चीज जो सामने देखने को मिली थी वो ये कि जिस सीट पर भाजपा को वोट मिलना चाहिए था वहां के मतदाता भी लेफ्ट के खाते में वोट कर दिये थे तो वो जो एक तबका है उसके मनोविज्ञान में कितना परिवर्तन हो रहा है वो देखना जरूरी होगा और अगर वहां के लोगों के मनोस्थिति में परिवर्तन देखने को मिलता है तब तो केरल की राजनीति में भूचाल आ जाएगा. इसमें तो लेफ्ट का भी सफाया हो जाएगा और उनके साथ जो पीडीएफ है वो भी बर्बाद हो जाएगा.

इसलिए ये देखना दिलचस्प होगा कि इसमें भाजपा कितना कामयाब होती है. ये सबसे महत्वपूर्ण डायनेमिक है कि भाजपा की अगर बढ़त होगी तो लेफ्ट और यूडीएफ दोनों के कीमत पर ही होगी. अब हमें यही देखना है कि क्या भाजपा इस ओर आगे बढ़ पा रही है या नहीं. देखिये, बाढ़ के समय में तो भाजपा के सदस्यों और संघ के लोगों ने जिस तरीके से केरल में लोगों को राहत पहुंचाई है उससे लोगों के बीच संपर्क तो अच्छा बना है लेकिन क्या वो वोट में कन्वर्ट हो पाएगा या नहीं यही तो आगे आने वाले विधानसभा चुनाव में ही पता चलेगा. चूंकि लोग रिलीफ तो ले लेते हैं लेकिन ये जरूरी नहीं है कि वो भाजपा और संघ के जो ग्रुप हैं उसको राजनीतिक तौर पर मजबूत बनाने के लिए वे वोटिंग करने जाएं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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