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मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और तेजी से बदलता हुआ हमारा चुनावी परिदृश्य

वह वर्ष 1997 था. तत्कालीन संसदीय मामलों के मंत्री सीएम मोहम्मद, जो पूर्व प्रधान मंत्री एचडी देवेगौड़ा के करीबी सहयोगी थे, ने एक बातचीत में  चुटकी लेते हुए कहा, "हम मुसलमान राम के निर्माण का विरोध करके भाजपा के उदय के लिए जिम्मेदार हैं. राम मंदिर भारत के अलावा और कहां बनाया जा सकता है?” उन्होंने जो कहा वह मुस्लिम मानसिकता पर एक टिप्पणी थी जिसने स्वतंत्र भारत में राजनीतिक परिदृश्य को भारी प्रभावित किया है. पुरानी शाही मानसिकता से चिपके हुए मुस्लिम नेता एक लोकतांत्रिक समाज में बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं की सराहना नहीं कर सके और यही कारण है कि हमें अयोध्या, मथुरा और काशी जैसे हिंदू धार्मिक स्थानों में समस्याएं हैं.

मुस्लिम नेताओं की जिद्दी मानसिकता

मुस्लिम नेताओं की अपनी मानसिकता को बदलने में असमर्थता ने एक राजनीतिक परिदृश्य को जन्म दिया है जिसमें भगवान राम खुद को सभी निहित स्वार्थों - राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वित्तीय - से जुड़ी एक नई लड़ाई में उलझा हुआ पाते हैं. निःसंदेह, इस लड़ाई में बड़े व्यवसाय को सबसे अधिक लाभ हुआ है क्योंकि वह अपने राजनीतिक और धार्मिक प्रतिनिधियों द्वारा अपनाई जाने वाली दिशा में हेरफेर और निर्णय लेता है. वास्तव में, भगवान राम 1991 के बाद से हर चुनाव में एक निर्णायक कारक रहे हैं. भगवान राम का कारक भ्रष्टाचार से लेकर उच्च कराधान, बढ़ती मुद्रास्फीति, ईडी, सीबीआई छापे या ईवीएम हेरफेर के आरोपों तक हर दूसरे मुद्दे पर हावी रहा. प्रेस प्रासंगिक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर संवाद बनाने में विफल रहा और उसने भी ऐसा ही किया. भगवान राम की इस शक्ति को कोई कैसे चुनौती दे सकता है?

मुस्लिम कार्ड ने बनायी यह हालत

अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियाँ मुस्लिम कार्ड खेलती हैं और चुनाव जीतने के लिए भगवान राम का नाम लेकर नरम या कट्टर हिंदुत्व के बीच झूलती हैं. हालांकि, हिंदुत्व मुसलमानों के प्रति अपने जुनून के बिना नहीं है, जिसके द्वारा कभी-कभी समुदाय के खिलाफ सभी प्रकार के अपशब्दों का इस्तेमाल किया जाता है और उन सभी लोगों को राष्ट्र-विरोधी कहा जाता है. . यहां तक कि किसानों या ट्रक ड्राइवरों के आंदोलन को भी इन गैर-मुस्लिम नफरत करने वाले "धर्मनिरपेक्षतावादियों" का कृत्य माना जाता है और उनके खिलाफ भी अपशब्दों का इस्तेमाल किया जाता है. लिंग-संवेदनशील अपशब्दों में माहिर उत्तर भारत ने अब खुद को "धर्मनिरपेक्षतावादी" अपशब्दों के साथ आधुनिक बना लिया है. भारतीय राजनीति की तर्कसंगतता और विशिष्टता को किसी भी तरह से नफरत की उग्र अभिव्यक्ति ने बदल दिया है. हिंदुत्व ब्रिगेड, एक वैचारिक धागे या कट्टर भावनाओं से एकजुट होकर, अपनी इन्फोटेक शक्ति के मामले में अधिक "आधुनिक" है. उनके पास अन्य सभी संप्रदायों या पार्टियों या उनसे मतभेद रखने वाले व्यक्तियों को घेरने के लिए एक मंजी हुई प्रणाली है. वे विरोधियों को ट्रोल  कर असुरक्षा की भावना पैदा कर एक नई कथानक बना कर परस्तुत कर लेते हैं. वे डोनाल्ड ट्रंप जैसा उत्तर-सत्य का प्रयोग करते है. विरोधी भी कम पक्षपाती या राम-केन्द्रित नहीं हैं.

विपक्ष की कमजोरी नहीं दृश्यमान

146 विपक्षी नेताओं के अभूतपूर्व निष्कासन और संसद या समाज में चर्चा के बिना महत्वपूर्ण आपराधिक कानून विधेयकों को पारित करने से यह कथानक  और तेज हो रहा है. विधेयकों पर खुली सामाजिक चर्चा नहीं हो पाती है. पुलिस और कार्यपालिका के सभी सुझावों को बिना चर्चा के अपना लिया जाता है. यह अचानक नहीं है. महत्वपूर्ण राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी बिना किसी खुली सामाजिक चर्चा के तैयार, पारित और कार्यान्वित हो जाती है. इस हाल में बच्चों और युवाओं की भलाई के बुनियादी मुद्दे को नजरअंदाज हो जाते हैं. इसने कई ऐसी प्रणालियां थोप दीं जो अनावश्यक थीं, जैसे चार साल का डिग्री कोर्स, तीन साल की नर्सरी शिक्षा और बहु-वर्षीय तथाकथित पीएचडी शोध जिसमें शायद ही शोध होता है. विपक्षी दल प्रतिक्रिया देने में कमज़ोर रहे हैं, चाहे वे वामपंथी हों, कांग्रेस हों या क्षेत्रीय दल हों. अल्पसंख्यक सिंड्रोम ने चर्चा को बाधित कर दिया है. एक फोबिया दिशा तय करता है. समावेशी राजनीति की जगह एक दुश्मनी के माहौल ने ले ली है. ऐसे माहौल में याद आता है कि एक समय ऐसा था, जब तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक युवा जनसंघी अटल बिहारी वाजपेयी की उनके फैसले की तीखी आलोचना के बाद "अच्छा बोले" के साथ प्रशंसा की थी.

विरोधियों का प्रयास असफल

विरोधी प्रयास करते हैं लेकिन असफल रहते हैं. बढ़ती कीमतें या बेरोजगारी कोई मुद्दा नहीं है. सीएए या एनआरसी के हमले के विरोध में प्रदर्शन विफल हो गए. किसानों की रैलियों को अपशब्दों की बौछार से दबा दिया गया. महंगाई या बेरोजगारी के मुद्दे उनके राष्ट्रविरोधी होने के शोर में गुम हो जाते हैं. विपक्ष को शासन और उसके नेता नरेंद्र मोदी बेहद नापसंद है, लेकिन उन्हें कोई विरोध के दांव नहीं आते है. किसी हलचल या विरोध का कोई स्थान नहीं है. दिल्ली मेट्रो की घोर सुरक्षा खामियों को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी की यात्राओं को प्रतिक्रिया तो मिली, लेकिन यह बड़े पैमाने पर प्रशासनिक विफलताओं, मणिपुर में तबाही, बढ़ती कीमतें, भारी कर्ज, अप्रासंगिक बुनियादी निवेश पर सवाल, और सड़क निर्माण की सनक को उठाने में विफल रही. भले ही कोई उन पर एकाधिकार का दावा कर सकता है, लेकिन भगवान राम किसी विशेष पार्टी, समूह या समुदाय के नहीं हैं. वे सबके हैं और किसी को भी उनका विरोध का तो कोई मतलब ही नहीं है . भगवान राम हर जगह हैं. कोई राजनीतिक दल किसी मंदिर पर दावा शायद ही दावा कर सकता है.

भगवान राम की कृपा तो सभी के लिए इस भारत भूमि पर है. राम कभी एक स्थान पर नहीं रुके - शिक्षा के लिए गुरु के आश्रम गए, नदियों को पार किया, जंगल में यात्रा की और समुद्र को वश में किया और वह आज अपने अरबों अनुयायियों और प्रशंसकों के दिल और दिमाग में हैं. जिस दिन हमारे देश में अल्पसंख्यक, विपक्षी दल, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, शासक वर्ग और अन्य लोग इसे समझेंगे, उस दिन देश में एक नई सामाजिक तानाबाना और नई राजनीति की शायद शुरुआत होगी. यह उन सभी को समझने की जरूरत है जो 2024 की गंभीर चुनावी लड़ाई में खड़े हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]         

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