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85 बरस बाद आखिर क्यों सुलगाई जा रही है हिंदी बनाम तमिल की आग?

अपने पहले प्यार से लेकर हर तरह की खुशी व दर्द को अपने ही शब्दों में बांटने वाली हमारी हिंदी एक बार फिर से राजनीति का औज़ार बनने जा रही है.दक्षिण भारत के राज्य हिंदीं बोलने या उसे स्कूल में पढ़ाने के सबसे ज्यादा खिलाफ रहे हैं लेकिन इसमें भी तमिलनाडु सबसे पहले नंबर पर है ,जहां देश को आजादी मिलने से पहले ही साल 1937 में इस मुद्दे पर जबरदस्त हिंसक आंदोलन भड़क उठा था. गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चेन्नई में थे,जहां तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने हिंदी-तमिल भाषा का मुद्दा उठाकर उसी 85 बरस पुराने हिंसक  इतिहास की याद दिला दी.

दरअसल, तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि के बेटे स्टालिन राजनीति के इस सफर में अपने पिता से एक कदम आगे रहते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए बेताब हैं. शायद इसीलिए गुरुवार को पीएम की मौजूदगी में उन्होंने वह सब कहने की हिम्मत जुटाई, जिसे उनके पिता मुख्यमंत्री रहते हुए भी सिर्फ इसलिए नहीं बोलते थे कि इससे तमिलनाडु में इस भाषायी लड़ाई को लेकर जबरदस्त आग लग सकती है, जिसे संभालना सरकार के लिए भी उतना आसान नहीं होगा. लेकिन पुरानी कहावत है कि सियासत में रहते हुए पिता जो गलती करने से बचते रहे, अगर बेटा उसे ही दोहराने की जिद पर अड़ जाये, तो उसका अंजाम कभी अच्छा तो हो ही नहीं सकता.

पीएम मोदी  के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने जो कहा है,उसे एक ऐसी चेतावनी के तौर पर देखा जाना चाहिए,जो सफेद मक्खन की टिकिया में लिपटी हुई है. स्टालिन ने कहा कि हम दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे, लेकिन अपने अधिकारों के लिए आवाज भी उठाएंगे. हमारी भाषा तमिल को भी हिंदी की तरह समान अधिकार मिले, औपचारिक भाषा की मान्यता मिले. हम पर हिंदी न थोपी जाए. Neet को खत्म किया जाए. एमके स्टालिन ने ये भी कहा कि हम नीट परीक्षा का विरोध कर रहे हैं और हमने विधानसभा में एक विधेयक भी पारित किया है. हम पीएम से तमिलनाडु को NEET परीक्षा से छूट देने की अपील करते हैं.

सीएम स्टालिन शायद ये सोच रहे थे कि वे सार्वजनिक मंच से इस मुद्दे को उठाकर पीएम को मजबूर कर देंगे कि या तो वे 'हां' कहें या 'नहीं' बोलें. लेकिन शायद स्टालिन को ये अहसास नही होगा कि सियासत की जो बिसात उन्हें विरासत में मिली है,उसके मुकाबले उनके सामने एक ऐसा शख्स है जिसने सक्रिय राजनीति में आने से पहले आरएसएस का प्रचारक रहते हुए देशभर की खाक छानते हुए लोगों की बुनियादी तकलीफों को टटोलने-समझने पर कई बरस खपाये हैं.जाहिर है कि मोदी ने पीएम की कुर्सी संभालने से पहले संघ में रहते हुए भी इस भाषायी विवाद को समझने की पूरी कोशिश की होगी.

शायद इसलिए सीएम स्टालिन को ये उम्मीद नहीं थी कि उन्हें पीएम के मुंह से ये जवाब सुनने को मिलेगा. मोदी ने अपने जवाब में न तो हिंदी को सर्वोच्च सिंहासन पर बैठाया और न ही तमिल भाषा को नीचा दिखाया.उन्होंने स्टालिन की बातों का किसी राजनीतिज्ञ के तौर पर नहीं बल्कि एक स्टेट्समैन के अंदाज में जवाब दिया कि " तमिल भाषा शाश्वत है और तमिल संस्कृति वैश्विक है. चेन्नई से कनाडा तक, मदुरै से मलेशिया तक, नमक्कल से न्यूयॉर्क तक, सलेम से साउथ अफ्रीका तक, पोंगल और पुथांडु के अवसरों को बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है." उनका ये जवाब सुनकर स्टालिन को तो थोड़ा चकराना ही था लेकिन उन्हें बाद में ये समझ आया होगा कि पीएम मोदी अपनी इस बात के जरिये एक बड़ा संदेश दे गए कि हिंदी और तमिल के झगड़े में न तो खुद उलझो और न ही तमिलनाडु की जनता को ही उलझाओ.

मोदी के इस बयान से सियासी गलियारों में बहुतेरे लोगों ने ये माना कि पहली बार लगा कि उन पर दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अनुभव का भी खासा प्रभाव है.वह इसलिए कि पीएम रहते हुए वाजपेयी जब ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर घिर जाते थे, तब वे बेवजह उठाये गए उस मुद्दे को किनारे करते हुए कोई ऐसी बात कह जाते थे, जो अगले दिन के अखबारों की सुर्खियां बन जाती थीं.वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक पीएम मोदी ने बेहद संतुलित बयान देकर भाषा के मुद्दे पर दक्षिण बनाम उत्तर भारत के बीच जिस लड़ाई को छेड़ने की साजिश रची जा रही थी, उसे पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर दिया है.

दरअसल, हिंदी बनाम तमिल भाषा की लड़ाई का मुद्दा तो बेहद पुराना है लेकिन केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद ये फिर से जिंदा हो उठा है. साल 2014 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आदेश दिया था कि " सभी मंत्रालयों, विभागों, निगमों या बैंकों के अधिकारियों, जिन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइटों पर आधिकारिक एकाउंट बनाए हैं, उन्हें हिंदी, या फिर हिंदी और अंग्रेजी दोनों का उपयोग करना चाहिए, लेकिन हिंदी को प्राथमिकता देना चाहिए." लेकिन तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार के इस कदम का तुरंत विरोध किया था.

आधिकारिक भाषा अधिनियम के "पत्र और भावना के खिलाफ" हिंदी के उपयोग पर कदम उठाते हुए तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने चेतावनी दी थी कि यह निर्देश "तमिलनाडु के लोगों को परेशान कर सकता है जो विरासत में मिली अपनी  भाषा को लेकर न सिर्फ बहुत गर्व करते हैं बल्कि वे उतने ही भावुक भी हैं." उन्होंने प्रधानमंत्री से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा था कि वे इस निर्देश में संशोधित करें,ताकि अंग्रेजी सोशल मीडिया पर संचार की मुख्य भाषा बनी रहे. तब मुख्य विपक्षी कांग्रेस की तरफ से भी ये सलाह दी गई थी कि इस तरह के निर्देशों के परिणामस्वरूप गैर-हिंदीभाषी राज्यों, ख़ासकर तमिलनाडु में उल्टी प्रतिक्रिया हो सकती है,लिहाजा,सरकार को सावधानी से आगे बढ़ने की जरुरत है. लिहाज़ा, देखना ये है कि स्टालिन का फैंका ये सियासी दांव कितना कारगर साबित होता है?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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