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(Source:  ECI | ABP NEWS)

महुआ मोइत्रा के खिलाफ एक्शन का न बने गलत परसेप्शन, सरकार और संसद की जिम्मेदारी कि जनता तक पहुंचे सही बात

सवाल के बदले पैसे लेने यानी कैश फॉर क्वेरी के आरोप के मामले में एथिक्स कमेटी ने गुरुवार यानी 9 नवंबर को तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा की सदस्यता खत्म करने की सिफारिशा की. कमेटी ने सिफारिश लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को भेजी है. समिति ने 500 पेज की रिपोर्ट दी है और उसमें इस मामले की जांच सीबीआई से करवाने की भी बात कही जा रही है. हालांकि, महुआ ने एथिक्स कमेटी की बैठक का बहिष्कार किया था और उनके साथ विपक्षी सांसद भी थे. इसके साथ ही विपक्ष का यह भी कहना है कि सरकार ने उन तमाम विपक्षी नेताओं की आवाज दबाने को ये सब काम किया है, जो सरकार के खिलाफ लगातार मुखर रहे हैं. इस मामले से सरकार और विपक्ष के बीच विभाजन औऱ तीखा हो गया है. 

महुआ पर एक्शन कानून के तहत

महुआ मोइत्रा के मामले पर पहली प्रतिक्रिया तो यही होगी कि संसद की आचार समिति जो कर रही है या महुआ मोइत्रा के खिलाफ जो एक्शन ले रही है, उसमें एक चीज ये साबित हो रही है कि महुआ पर बेशक उनकी पार्टी चुप है, लेकिन विपक्ष एक धारणा बनाने में कामयाब रहा है कि महुआ चूंकि विपक्ष की एक मुखर सांसद हैं, इसलिए उनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है. यह सिर्फ परसेप्शन यानी धारणा की बात है, लेकिन राजनीति तो इसी पर चलती है. सरकार की और आचार-समिति की यह असफलता कही जाएगी कि ऐसी धारणा बन रही है. वह इस धारणा को बनने से रोक नहीं पा रहे हैं, यह उनका फेल्योर है. हालांकि, मामला ऐसा ही नहीं है. अतीत में भी ऐसे मामले हुए हैं और पहले भी कार्रवाई हुई थी.

याद किया जाए कि एक टीवी चैनल ने 'ऑपरेशन दुर्योधन' नाम का एक स्टिंग ऑपरेशन किया था. उसमें सवाल पूछने के लिए सचमुच पैसे नहीं दिए गए थे, बल्कि ऐसा सिर्फ मुंहजबानी हुआ था कि सवाल पूछने के बदले पैसों के लेनदेन की बात हुई थी. उसमें 11 सांसद फंसे थे और उसमें छह भाजपा के थे, बाकी कांग्रेस और अन्य दलों के थे. आचार-समिति ने उनको हटा दिया था. उस समय नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी, जिनकी पार्टी आज पिछले एक दशक से सत्ता चला रही है, ने बायकॉट किया था. उन्होंने कहा था कि यह गलत परंपरा बनेगी. तो, जो आचार-समिति ने जो फैसला लिया है, उसमें दो बातें होनी चाहिए कि महुआ मोइत्रा की अमुक गलती की वजह से उनको निकाला गया है. अगर फैसला पारदर्शी है, सही है, तो वह दिखनी भी चाहिए. पब्लिक में यह परसेप्शन नहीं जाना चाहिए कि महुआ के खिलाफ यह कार्रवाई इसलिए हो रही है कि वह विपक्ष की हैं. 

मामला सुरक्षा से बढ़कर

यह सिर्फ सुरक्षा का मामला नहीं है. भारतीय संसद ही भारत की संप्रभुता की, भारत की आजादी की, भारत के क्रेडेन्शियल की गारंटी है. उसका कोई सदस्य अगर अपना पासवर्ड और लॉग इन आइडी दे दे, तो यह केवल सुरक्षा का मामला नहीं है, यह तो भारतीय संप्रभुता की बात है. कोई दुबई में बैठा आदमी अगर भारतीय संसद के अंदरखाने की बातें जान और इस्तेमाल कर रहा है, तो यह बेहद चिंताजनक है. महुआ मोइत्रा कोई आम सांसद नहीं हैं. वह विदेशों में पढ़ी-लिखी, कई कॉरपोर्ट हाउस में काम कर चुकी हैं. उनको यह बातें अच्छे से पता होंगी. अगर यह बात स्थापित हो चुकी है कि उन्होंने विदेश में किसी को लॉग इन देकर काम करवाया, तो निश्चित तौर पर यह गंभीर मामला है.

कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन फिर वही धारणा की बात है. धारणा यह न बने कि विपक्षी नेत्री पर कार्रवाई हो रही है, बल्कि यह धारणा बने कि भारतीय संप्रभुता से खिलवाड़ करने के कारण उनको सजा हुई है. ये जो परसेप्शन अगर बन रहा है कि विपक्ष के जो भी मुखर नेता हैं, जैसे संजय सिंह या महुआ मोइत्रा, उन पर कार्रवाई सरकार कर रही है, तो इसे रोकना तो सरकार का ही काम है न. जनता के बीच यह परसेप्शन तो बनने ही नहीं देना चाहिए कि विपक्ष का होने के नाते उन पर कार्रवाई हो रही है. सरकार और संसद का दायित्व है कि वह जनता के बीच यह संदेश दे कि जिन्होंने गलत किया है, उन पर कार्रवाई हो रही है. लोकतंत्र में न तो प्रधानमंत्री बड़े हैं, न सरकार बड़े हैं, जनता सबसे बड़ी है. आधुनिक राज व्यवस्था के लिए सबसे जरूरी चीज संप्रभुता और जनता है तो उनके बीच गलत धारणा नहीं बननी चाहिए. अगर दोषी होने पर कार्रवाई हो रही है, तो जनता के बीच भी यही मैसेज जाना चाहिए. 

सरकार बनाए सही परसेप्शन

सरकार का विरोध तो हरेक स्तर पर होता ही है. भारत ने तो आपातकाल का काला दौर भी देखा है. हमारी पीढ़ी ने आसपास के लोगों की गिरफ्तारी और उन पर अत्याचार भी देखा है. अभी वैसा तो माहौल नहीं है, फिर भी अगर ऐसा परसेप्शन जा रहा है, तो उसके लिए सरकार और संसद की भी जवाबदेही है. सरकार तो अपना काम करेगी ही और विपक्ष भी अपना काम करेगा.

हां, अतीत में सरकार और विपक्ष के बीच इतना तीखा विभाजन, इतनी साफ लकीर नहीं दिखी थी. आपातकाल चूंकि अपवाद रहा है, तो उसकी बात रहने देते हैं. तो, यह भारतीय लोकतंत्र और भारतीय परंपरा के लिए खतरनाक तो है ही. भारतीय समाज के लिए भी यह गड़बड़ है. राजनीतिक विभाजन तो समाज को भी बांटता है. पहले की तुलना में हमारा समाज अब अधिक सूचना केंद्रित है, पक्ष और विपक्ष में बंटा हुआ है. यह दोनो की जिम्मेवारी है कि वह इस विभाजन को और तीखा होने से रोकें. विपक्ष तो अपना काम करेगा ही. सरकार अपना काम कर रही है, लेकिन उसको यह दिखाना भी जरूरी है कि कार्रवाई इसलिए हो रही है कि उन्होंने गलत किया है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]

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