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क्या कांग्रेस के अंदर ही कोई 'फिरकी' ले रहा है, इतनी बार फजीहतों के पीछे आखिर कौन है जिम्मेदार?

Rajasthan Crisis: साल 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव से लेकर मध्य प्रदेश, पंजाब और अब राजस्थान तक अपनी सरकार और संगठन को कांंग्रेस के नेता कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

राजस्थान कांग्रेस में इस समय जो सत्ता को लेकर संघर्ष चल रहा है, ये पार्टी के रणनीतिकारों की एक और असफलता का नतीजा है. गांधी परिवार के बेहद करीबी रहे अशोक गहलोत की कमान से निकले तीर ने आलाकमान ही नहीं पार्टी के तानेबाने को ही लहूलुहान कर दिया है.  लेकिन राजस्थान में जो हो रहा है वह कांग्रेस के लिए हाल ही के कुछ वर्षों में नई घटना नहीं है. 

पंजाब में पार्टी की फजीहत और फिर हार
बीजेपी से कांग्रेस में गए नवजोत सिंह सिद्धू में कांग्रेस आलाकमान को इतनी योग्यता दिखाई पड़ गई कि उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह में खामी ही खामी नजर आने लगी. दरअसल सिद्धू की महत्वाकांक्षा पंजाब का सीएम बनने की थी और कैप्टन अमरिंदर के पंजाब में रहते ये संभव नहीं था. 

कैप्टन अमरिंद सिंह कांग्रेस के वो नेता रहे हैं जो साल 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का बखूबी सामना किया था. इतना ही नहीं अमृतसर सीट से उन्होंने पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली को लोकसभा चुनाव 2014 में हराया था.

लेकिन पंजाब विधानसभा चुनाव आते-आते नवजोत सिंह सिद्धू की वजह से ऐसे हालात बन गए कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. कैप्टन के इस्तीफा देते ही नवजोत सिंह सिद्धू ने फिर सीएम बनने के लिए लॉबिंग शुरू कर दी.

लेकिन ये समझ में नहीं आ रहा था कि पंजाब में सबसे बड़े नेता की कीमत पर कांग्रेस आलाकमान या रणनीतिकार सिद्धू को इतना तवज्जो क्यों दे रहे थे. हालांकि बाद में सिद्धू को भी सीएम नहीं बनाया गया. उनकी जगह पार्टी ने चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बना दिया.

अब सिद्धू ने चन्नी के लिए भी मुश्किलें खड़ी करना शुरू कर दीं. और प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्ति के मसले पर बवाल खड़ा कर दिया और अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई. नवजोत सिंह सिद्धू हत्या के एक मामले में जेल की सजा काट रहे हैं. चरणजीत सिंह चन्नी चुनाव के बाद से गायब हैं. पंजाब कांग्रेस को प्रमुख नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ अब बीजेपी में हैं. पंजाब में कांग्रेस का किला ढह चुका है.

आलाकमान की वजह से नहीं बन पाई गोवा में सरकार?
साल 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 13 सीटें मिली थीं और कांग्रेस के खाते में 17 सीटें आई थीं. बहुमत के लिए कांग्रेस को सिर्फ 4 सीटें चाहिए थीं. जबकि बीजेपी को आठ.

दिल्ली से शह और मात का खेल चल रहा था. कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को गोवा में सब कु मैनेज की जिम्मेदारी सौंपी और बीजेपी ने नितिन गडकरी को तैनात किया. दिग्विजय सिंह गोवा जाने के बाद समर्थन जुटाने के बजाए होटल के एक कमरे तक ही सीमित रह गए और कहा तो ये भी जाता है जब दिग्विजय सिंह रात में सो रहे थे तो नितिन गडकरी ने उसी समय खेल कर दिया.

पीटीआई से बातचीत में नितिन गडकरी ने बताया था कि रात करीब डेढ़ बजे महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी यानी एमजीपी के नेता सुधिन धाविलकर ने मुलाकात की और उन्होंने समर्थन देने का वादा किया. थोड़ी ही देर बाद गोवा फॉरवर्ड पार्टी के विजय सरदेसाई भी मिलने आ गए. 

गडकरी ने आगे बताया कि सुबह 5 बजे दोनों ही पार्टी के नेताओं ने शर्त रखी कि अगर मनोहर पर्रिकर को सीएम बनाया जाएगा तो वो समर्थन दे देंगे. 5 बजकर 15 मिनट पर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को इन शर्तों की जानकारी दी. इसके बाद सुबह 7 बजे के करीब अमित शाह ने पीएम मोदी को सारी बातें बताईं. मनोहर पर्रिकर उस समय रक्षा मंत्री थे. 

इसके बाद की कहानी सबको पता है कि 17 सीटें सीटें आने के बाद भी कांग्रेस सरकार नहीं बना पाई थी. गांधी परिवार के बेहद करीबी दिग्विजय सिंह क्यों बात नहीं कर पाए या आलाकमान से संवादहीनता के चलते वो कोई फैसला नहीं ले पाए, ये सारी किसकी गलती है क्यों चूक हुई, खुद ही समझा जा सकता है.

मणिपुर में चार सीटें नहीं जुटा पाई कांग्रेस
साल 2017 के मणिपुर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 28 सीटें मिली थी. बहुमत के लिए पार्टी को सिर्फ 4 सीटें चाहिए थीं. बीजेपी के पास 21 सीटें थीं. दिल्ली से लेकर मणिपुर तक कांग्रेस को कोई भी नेता चार सीटें नहीं जुटा सका. बीजेपी ने छोटे-छोटे दलों के साथ मिलकर सरकार बना ली और साल 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई है.

मध्य प्रदेश में न सरकार बची और पार्टी भी टूटी
साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकार बनाई थी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी के बाद मिली यह जीत 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के लिए संजीवनी लेकर आई थी. लेकिन जिस तरह राजस्थान में युवा सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के बड़े दावेदार हैं. उसी तरह मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया भी सीएम पद के दावेदार थे.

लेकिन दोनों ही राज्यों में गांधी परिवार के बेहद करीबी अशोक गहलोत और कमलनाथ को सीएम बना दिया गया. सचिन पायलट और सिंधिया यूपीए के शासनकाल में कांग्रेस के युवा चेहरा और टीम राहुल के अहम हिस्सा थे.

मध्य प्रदेश में कमलनाथ ज्योतिरादित्य सिंधिया को कोई खास तवज्जो नहीं दे रहे थे और पार्टी के अंदर मतभेद बढ़ते जा रहे थे. इसके बाद कैबिनेट में भी सिंधिया के करीबी विधायकों को कोई खास जगह नहीं दी गई. 

सिंधिया चाहते थे कि मध्य प्रदेश कांग्रेस की कमान उनको सौंपी जाए लेकिन कमलनाथ दोनों ही पद अपने पास रखना चाहते थे. टकराव शुरू हुआ और सिंधिया अपने विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल में हो गए. कांग्रेस की सरकार गिर गई. मध्य प्रदेश में अब बीजेपी का शासन है. अब सवाल इस बात का है पार्टी आलाकमान को कमलनाथ से सीएम या प्रदेश अध्यक्ष में से कोई एक पद वापस लेने से किसने रोका था. 


राजस्थान में सचिन पायलट स्वीकार नहीं
राजस्थान में दो साल पहले भी सचिन पायलट 28 विधायकों को साथ लेकर विद्रोह कर चुके हैं. मामला कोर्ट तक भी पहुंच गया था लेकिन उस समय प्रियंका गांधी वाड्रा के समझाने पर सचिन पायलट को मना लिया गया था. लेकिन अनुशासनहीनता के चलते हुई कार्रवाई में उनसे राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष और डिप्टी सीएम की कुर्सी छीन ली गई थी. विधानसभा चुनाव 2018 के समय यहां सचिन पायलट ही सीएम पद के दावेदार बताए जा रहे थे क्योंकि ऐसी खबरें आ रही थीं कि पार्टी अब युवा चेहरों को आगे बढ़ाएगी. 

पायलट गुर्जर समुदाय से आते हैं और इसका फायदा भी पार्टी को मिला. गुर्जरों का वोट बड़ी संख्या में कांग्रेस को मिला जो बीजेपी के पाले में थे. लेकिन चुनाव के बाद कांग्रेस आलाकमान ने अशोक गहलोत को सीएम बना दिया था.

किसकी सलाह पर लिए गए ये फैसले
इन फैसलों के पीछे और प्रबंधन में कांग्रेस आलाकमान को कौन सलाह दे रहा था? साथ ही कैलकुलेशन, नफा-नुकसान और युवा चेहरों को तवज्जो न देने की क्या वजह हो सकती है. ये समझ से परे है. लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस के अंदर को कोई लॉबी या लोग हैं जो समय-समय पर पार्टी की फजीहत करा रहे हैं. या अगर फिल्म पीके के एक डॉयलाग की तरह बोल जाए तो क्या कांग्रेस के अंदर ही कोई 'फिरकी' ले रहा है.

 

About the author मानस मिश्र

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