कारीगर के हाथ: असगर को काम करने की जरूरत और चाहत अरब लेकर आई थी

असगर को काम करने की जरूरत और चाहत अरब लेकर आई थी. लेकिन अपने सपनों की इस तिलिस्मी दुनिया में उसे जो हासिल होने वाला था, क्या उसके बाद वह अपनी कारीगरी के काबिल रह पाता?
कारीगर के हाथ
अली अकबर नातिक

जद्दा एयरपोर्ट पर उतरते ही वह इमिग्रेशन के काउंटर पर जा कर खड़ा हो गया. इमिग्रेशन के पांच काउंटर थे जिनपर कोई कर्मचारी नहीं था. वह पहले काउंटर पर लगी लाइन में दूसरे नंबर पर खड़ा था. सवारियां इतनी ज़्यादा थीं कि हर क़तार में सौ-सौ आदमी इकट्ठा हो गए. कुछ ही देर में एहराम बांधे लोगों (हज यात्रियों) का एक बड़ा ग्रुप भी आ गया जिनके हाथों में तस्बीह (माला) और लंबी दाढ़ियों के साथ सिर मुंडे हुए थे.
इमिग्रेशन हॉल में उनके देर से पहुंचना का कारण शायद ये था कि वे जहाज़ से उतर कर एक दूसरे का इंतज़ार करते रहे. उनसे एक अजीब तरह की पर्फ़्यूम की बू आ रही थी. असग़र ने सोचा, अगर वह ज़्यादा देर उनके साथ खड़ा रहा तो उसे उल्टी आ जाएगी. वह डरते-डरते बोला. “बाबा जी, आप पीछे क़तार में खड़े हों, इसलिए कि हम पहले से खड़े हैं.”
“बेफ़िकर रहो बेटा,” अहराम वाला बोला, “अपनी बारी पर पासपोर्ट चेक करवाएंगा. हम जानते हैं. उमरा (छोटी हज, वह हज जो कुरबानी के महीने के अलावा किसी और वक्त की जाए) करने आए हैं. कभी नाइंसाफी नहीं करते.”
लेकिन जैसे ही कर्मचारी आए, अहराम वालों ने एक दम हल्ला बोल दिया. कतार में खड़े सारे लोगों को एक ओर धकेल कर आगे हो गए. इस खींचातानी में असग़र आख़िर में जा पहुंचा. एक घंटे की दिमागी जद्दोजहद के बाद जैसे ही अगले बूथ पर गया. कुछ शुर्तों (अरब की पुलिस) ने उसे घेर लिया और पासपोर्ट छीन कर अपने क़ब्ज़े में कर लिया. वह हैरान था कि अब क्या मामला है. इतने में शुर्ते ने कहा, “इला हाजी ख़मसून रियाल” (ऐ हाजी पचास रियाल लाओ).
“लेकिन इतने तो मेरे पास नहीं,” उसने टूटी-फूटी अरबी भाषा में जवाब दिया. “तो फिर सीधे मक्का चलो, आपका वीज़ा उमरे का है. पासपोर्ट आपको मक्का में मिलेगा. दूसरे किसी शहर में जाने की इजाज़त नहीं,” शुर्ते ने कहा.
यह सुनकर वह सोच में पड़ गया. एक तो उसके पास अहराम नहीं था. इसके अलावा इतने पैसे भी नहीं थे कि किसी होटल में रुक सके. उसके इरादा उमरा करने का तो था, मगर पहले हाजी अल्ताफ़ के बेटों के पास जद्दा जाना चाहता था. चलते समय उनको फ़ोन करके सूचना दे दी थी. उन्होंने कहा था कि वह एयरपोर्ट पर लेने आ जाएंगे. लेकिन अब यह एक नई मुसीबत खड़ी हो चुकी थी. उसके पास सिर्फ़ सौ रियाल थे. काफ़ी देर तक मामले की गंभीरता पर ग़ौर करने के बाद उसने शुर्ते से कहा, “कुछ कम नहीं हो सकता?”
“पचास रियाल दो वरना सीधे मक्का चलो,” शुर्ते ने कठोरता से कहा. आख़िर उसने बेचारगी की हाल में पचास रियाल शुर्ते के हाथ में दिए और पास्पोर्ट लेकर जिस क़दर जल्द हो सकता था इमिग्रेशन हाल से बाहर निकल आया. बाहर आते ही उसपर टैक्सी वाले टूट पड़े, मगर वह हर के पास से बेपरवाई से गुज़र गया. वह जानता था कि हाजी अल्ताफ़ के बेटे उसे लेने आए हैं. बाहर आकर बड़ी देर इधर-उधर घूमता रहा, लेकिन उसे वे नज़र नहीं आए. आख़िर तंग आकर टेलीफ़ोन बूथ से उन्हें फ़ोन किया तो पता चला कि वे घर से ही नहीं निकले थे. अलबत्ता उन्होंने एक पता लिखवा दिया और कहा, टैक्सी करवा कर ख़ुद आ जाओ.
बैग कंधे से लटकाए फ़ोन बूथ से बाहर आकर वह एक खजूर के पेड़ के साथ लग कर खड़ा हो गया. उसे देखते ही एक टैक्सी वाला फ़ौरन भांप गया और आगे बढ़कर बोला, “जनाब, पाकिस्तान से आए हो?”
“जी,” उसने कहा. “कहां जाओगे?” टैक्सी ड्राइवर ने पूछा. “बनी मालिक,” और काग़ज़ पर लिखा पता उसके हाथ में दे दिया. टैक्सी ड्राइवर ने काग़ज़ देखकर वापस कर दिया और दरवाज़ा खोल कर बैठने को कहा. “पहले बताओ क्या लोगे,” वह झिझकते हुए टैक्सी की ओर बढ़ा.
“भाई तुम पाकिस्तान से आए हो इसलिए चालीस रियाल में पहुंचा दूंगा.”
“चालीस रियाल तो बहुत ज़्यादा हैं.” वह एक दम पीछ हटा. “फिर आप क्या दोगे?”
“बीस रियाल.”
“न मियां बीस रियाल तो बहुत कम हैं,” ड्राइवर ने साफ़ उर्दू में जवाब दिया. “यहां से जद्दा शहर बहुत दूरी पर है और फिर बनी मालिक तो उससे भी आगे हैं.”
बैग दौबारा कांधे से लटकाकर वह टैक्सियों के घेरे से बाहर निकल कर सोचने लगा. क्यों न शहर जाने वाली सड़क के किनारे खड़ा होकर किसी से लिफ़्ट ले ले. इस प्रकार पैसे भी बच जाएंगे.
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(अली अकबर नातिक की कहानी का अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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