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क्या पटना में लिखी गई I.N.D.I.A. तोड़ने की स्क्रिप्ट, 'विलेन' खुद लालू हैं!

अभी दिल्ली में आप और कांग्रेस का झगड़ा तो था ही, लेकिन अब सपा मुखिया अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, ममता बनर्जी की टीएमसी सब एक सुर में अरविंद केजरीवाल का ही समर्थन कर रहे हैं.

इस बात को कहने में अब कोई गुरेज नहीं है कि बीजेपी के खिलाफ बना इंडिया या इंडी गठबंधन अब पूरी तरह से टूट गया है. खुद तेजस्वी यादव ने ही इस बात की तस्दीक की है कि पूरा गठबंधन महज लोकसभा चुनाव के लिए ही था. इस गठबंधन के टूटने की पूरी कहानी को दिल्ली के चुनाव से जोड़ा जा रहा है, क्योंकि यहां पर कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ उतनी तल्ख नहीं दिख रही है, जितनी तल्खी आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को लेकर है. क्या सच महज इतना भर है कि दिल्ली के चुनाव की वजह से आप-कांग्रेस अलग हो गए और ये इंडी गठबंधन या इंडिया टूट गया या फिर इस गठबंधन के टूटने की स्क्रिप्ट उसी पटना में लिखी गई, जहां इस गठबंधन को बनाने की स्क्रिप्ट लिखी गई थी और इस गठबंधन को तोड़ने वाले भी वही लालू यादव हैं, जिन्होंने इस गठबंधन को बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. आखिर क्या है कांग्रेस का हाथ छोड़कर पूरे विपक्ष के आप के साथ जाने की असली कहानी, आज बताएंगे विस्तार से.

लोकसभा चुनाव के लिए जो इंडिया बना था, उसकी नींव रखी थी नीतीश कुमार ने और अपने सियासी अनुभव के जरिए उसे मजबूत किया था लालू यादव ने. हुआ ये था कि जब 2022 में बीजेपी से अलग होकर नीतीश कुमार महागठबंधन के मुख्यमंत्री बने और लालू यादव से उनकी पहली मुलाकात हुई तो एक लाइन की बात हुई. तब लालू ने कहा था- 'अब कहीं मत जइह. अब कुल तोहरे के देखे के बा.'

यानी कि अब आप कहीं मत जाइएगा, अब सब आपको ही देखना है. तब नीतीश मान गए. विपक्षी एकता की कोशिश शुरू की और लालू यादव चले गए सिंगापुर किडनी ट्रांस्प्लांट के लिए. लालू की गैरमौजूदगी में नीतीश कुमार खुद एक-एक करके सभी बड़े नेताओं से मिले. सीताराम येचुरी से, एचडी कुमारस्वामी से. ममता बनर्जी से, अखिलेश यादव से, उद्धव ठाकरे से, नवीन पटनायक से, केसीआर से, चंद्रबाबू नायडू से...हर उस नेता से जो बीजेपी के खिलाफ था. कुछ लोग राजी हुए. कुछ साफ इनकार कर गए, लेकिन इस पूरी कोशिश में जिस सबसे बड़े नेता से मुलाकात नहीं हो पाई वो थीं सोनिया गांधी. नीतीश कुमार से जब बात नहीं बन पाई तो वो पहुंचे लालू यादव के पास. लालू यादव तब तक किडनी ट्रांस्प्लांट करवाके वापस लौट चुके थे. जब नीतीश कुमार की लालू यादव से मुलाकात हुई और नीतीश ने पूरी बात बताई तो लालू यादव ने फिर अपने चिर परिचित अंदाज में कहा- घबड़ाए के जरूरत नइखे. कुल ठीक हो जाइ.

मतलब कि घबराने की जरूरत नहीं है, सब ठीक हो जाएगा. और वाकई ऐसा ही हुआ. लालू यादव की एंट्री के साथ ही सारे समीकरण बदल गए. लालू यादव नीतीश को साथ लेकर सोनिया गांधी से मिल लिए. ममता बनर्जी की टीएमसी और कांग्रेस के बीच भी समझौता हो गया. जो अखिलेश यादव कांग्रेस से कन्नी काट रहे थे, उन्हें तेजस्वी ने ये कहकर बुला लिया कि पापा बुला रहे हैं. अखिलेश लालू से मिलने दिल्ली पहुंचे और बात बन गई. जो कांग्रेस अरविंद केजरीवाल को किसी भी कीमत पर समर्थन देने को तैयार नहीं हो रही थी, वो भी राजी हो गई और सबने मिलकर 23 जुलाई को पटना में महागठबंधन की बैठक कर ली. उस बैठक में विपक्ष के कुल 26 दल एक साथ आ गए. नानुकुर करते हुए भी कांग्रेस ने केजरीवाल का साथ दिया. और इस तरह से इंडिया का एक ऐसा मजबूत स्वरूप बना, जिसपर नीतीश कुमार के अलग होने का भी कोई फर्क नहीं पड़ा और इस गठबंधन ने साल 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 240 सीटों पर समेट दिया. हालांकि, इंडिया की सरकार नहीं बन पाई, क्योंकि नीतीश ने बीच मंझधार साथ छोड़ दिया और चंद्रबाबू नायडू भी एनडीए के हो गए.

इसके बावजूद विपक्ष और खास तौर से कांग्रेस को वो मनोवैज्ञानिक बढ़त मिल गई, जिसकी उसे जरूरत थी, लेकिन जैसे ही राज्यों के चुनाव आए... एक-एक करके सभी दल कांग्रेस को किनारे करने में लग गए, क्योंकि पूरा गठबंधन ही क्षेत्रीय क्षत्रपों का था जिनकी अपने-अपने राज्यों में मजबूत पकड़ थी. हालांकि, तब भी आम आदमी पार्टी के अलावा और किसी दल ने सीधे तौर पर हाथ नहीं झटका. हरियाणा चुनाव के लिए आप ने साथ छोड़ दिया लेकिन जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला साथ रहे, महाराष्ट्र में उद्धव, शरद साथ रहे. झारखंड में हेमंत सोरेन साथ रहे. और जब इनके नतीजे आए तो साफ दिख गया कि लोकसभा में कांग्रेस का जो प्रदर्शन रहा है, वो राज्यों में कांग्रेस दोहरा नहीं पाई है. ऐसे में क्षेत्रीय क्षत्रपों ने नए सिरे से रणनीति बनाई और एक-एक करके कांग्रेस से किनारा करते चले गए.

अभी दिल्ली में आप और कांग्रेस का झगड़ा तो था ही, लेकिन अब सपा मुखिया अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे की शिवसेना, ममता बनर्जी की टीएमसी सब एक सुर में अरविंद केजरीवाल का ही समर्थन कर रहे हैं और कह रहे हैं दिल्ली में तो आप ही जीतेगी. मतलब साफ है कि केंद्र के लिए तो सभी क्षेत्रीय दल कांग्रेस का साथ देने को तैयार हैं, लेकिन जैसे ही बात राज्य की आती है, वो अपनी एक भी सीट कांग्रेस के साथ शेयर करना नहीं चाहते हैं. इसी सीट शेयरिंग से बचने के लिए ही तमाम क्षेत्रीय दलों ने दिल्ली में कांग्रेस को छोड़कर आप का साथ ले लिया है. आप का साथ देने वाले जितने भी दल हैं चाहे वो अखिलेश यादव हों, उद्धव ठाकरे हों या ममता बनर्जी हों, इनको अपने-अपने राज्य यूपी, महाराष्ट्र और बंगाल में सीट शेयरिंग करनी नहीं है, तो इनके लिए आप का साथ सेफ है.

दिल्ली के बाद दो और बड़े चुनाव हैं, जिनमें कांग्रेस अपने सहयोगियों से सीटों की डिमांड कर सकती है. कांग्रेस की यही डिमांड INDIA गठबंधन के टूटने की असली वजह है. दरअसल अभी दिल्ली विधानसभा के बाद महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में बीएमसी के चुनाव हैं. महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी विपक्ष में है, जिसमें कांग्रेस के अलावा उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की एनसीपी है. विधानसभा में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है. मुंबई में उसे तीन सीटों पर ही जीत मिली है, इसके बावजूद वो बीएमसी में अपने लिए सीट मांगेगी ही मांगेगी. कांग्रेस सीट तब मांगेगी जब गठबंधन होगा. ऐसे में दिल्ली में ही आप को समर्थन देकर उद्धव कांग्रेस को ये बताना चाहते हैं कि बीएमसी में उनकी डिमांड पूरी होने वाली नहीं हैं.

इसकी असली कहानी वहां लिखी जा रही है, जहां से ये पूरी कहानी शुरू हुई थी. वो जगह है बिहार की राजधानी पटना, जहां इस साल के आखिर में विधानसभा के चुनाव हैं. विधानसभा की 243 सीटों में से कांग्रेस कम से कम 70 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है, लेकिन लालू यादव किसी भी कीमत पर कांग्रेस को 70 सीटें देने को राजी नहीं हैं क्योंकि लोकसभा में भी 9 सीटें देकर लालू ने देख लिया है कि कांग्रेस का जनाधार क्या है. ऐसे में पिछले चुनाव में कुछ हजार वोटों की वजह से सत्ता से दूर होने वाले लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाहते. लिहाजा लालू ने जो गठबंधन बनाया था, वो शायद अब उनके ही इशारे पर इसलिए तोड़ा जा रहा है ताकि बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस किसी डील की स्थिति में न रह जाए और कहने के लिए लालू कहते रहें कि वो कांग्रेस के साथ हैं.

बाकी इस पूरी पटकथा का एक किरदार पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में भी है. वो हैं खुद ममता बनर्जी, जो चाहती हैं कि गठबंधन न रहे क्योंकि अगर रहा तो फिर उन्हें भी अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग करनी पड़ेगी और ये ममता बनर्जी कभी नहीं होने देना चाहेंगी. लिहाजा कहानी भले ही दिल्ली विधानसभा के ईर्द-गिर्द घूम रही हो कि इंडिया ब्लॉक के दलों ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर आप का साथ ले लिया है, लेकिन असली कहानी पटना, मुंबई और कोलकाता की है, जिसमें क्षेत्रीय क्षत्रपों की मजबूती के लिए कांग्रेस का कमजोर होना जरूरी है. ये पूरी कवायद सिर्फ इसी की है और कुछ नहीं.

 

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