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IN DEPTH: हर सरकार इन चार मुद्दों पर क्यों हो जाती है 'मौन'!

नई दिल्ली: राहुल गांधी ने एक रैली में पीएम नरेंद्र मोदी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. राहुल गांधी का आरोप है कि सहारा पर छापे के दौरान ऐसे दस्तावेज मिले थे जिसमें इस बात का जिक्र था कि नरेंद्र मोदी को छह महीने में नौ बार पैसे दिए गए. बीजेपी ने भी इस पलटवार किया. राहुल के आरोपों पर बीजेपी ने सफाई देते हुए कहा है कि वो अपनी पार्टी का इतिहास पता करें. खैर जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था तो जो सबूत राहुल गांधी पेश कर रहे हैं उनको सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना था. 16 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पर्याप्त सबूत नहीं है. याचिका प्रशांत भूषण की ओर से दायर की गई थी. चलिए अब आपको आज भ्रष्टाचार पर सभी दल या सरकार कितनी जागरूक है इसको बताते हैं. नोटबंदी से भ्रष्टाचार खत्म होगा और काला धन बाहर आएगा. मोदी सरकार का यही दावा है. लेकिन संसद में आज भी ऐसे बिल अटके पड़े हैं जिनका पहला और आखिरी मकसद ही भ्रष्टाचार दूर करना है. हैरानी की बात है कि कुछ बिल तो पहले से भी ज्यादा कमजोर बन चुके हैं. अब ऐसे में कैसे दूर होगा भ्रष्टाचार? सड़क से लेकर संसद तक लोकपाल आंदोलन की गूंज रही. तब विपक्ष में बैठी बीजेपी ने मनमोहन सिंह सरकार को लोकपाल बनाने के मुद्दे पर घेरा था. सरकार ने जनता और विपक्ष खासतौर से बीजेपी के भारी दबाव तले झुकते हुए दिसंबर 2013 में लोकपाल बिल पारित किया था . लेकिन यूपीए के कार्यकाल में लोकपाल नियुक्त नहीं किया जा सका . 2014 में लोकसभा चुनाव हुए और नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली जिन्होंने अप्रैल 2011 में अन्ना हजारे को खत लिखकर लोकपाल का समर्थन किया था . लोकपाल मोदी सरकार को सत्ता में आए ढाई साल हो चुके हैं लेकिन एक छोटे से संशोधन के चक्कर में देश को लोकपाल नहीं मिल पा रहा है. दरअसल लोकपाल की चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के आलावा लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का होना जरुरी है. इस समय नेता प्रतिपक्ष कोई नहीं है लिहाजा नेता प्रतिपक्ष की जगह लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति का सदस्य बनाने का संशोधन किया जाना जरुरी है. मोदी सरकार ने ऐसा संशोधन रखा था. मामला राज्यसभा की प्रवर समिति के पास गया जिसने अपनी रिपोर्ट छह महीने पहले ही दे दी थी लेकिन मोदी सरकार छह महीनों से इस पर फैसला नहीं ले सकी है. लोकपाल नियुक्ति के मामले में देरी से सुप्रीम कोर्ट भी नाराज है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी से कहा कि आप कहते हैं कि आपकी सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के लिए प्रतिबद्ध है तो लोकपाल इस दिशा में सही कदम है. फिर ऐसा क्यों लग रहा है कि आपकी सरकार लोकपाल से पीछे हट रही है. ढाई सालों से विपक्ष के नेता पर राय नहीं बन सकी है. अगले ढाई साल भी क्या ऐसा ही रहने वाला है ? उधर सरकार का कहना है कि पिछली सरकार ने जल्दबाजी में लोकपाल बिल पास करवाया जिसे ठीक करने में मोदी सरकार लगी हुई है. लोकपाल की नियुक्ति होने पर संस्थागत भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में बड़ी सफलता हासिल होगी . प्रधानमंत्री तक इसके दायरे में होंगे. भ्रष्टाचार के मामलों की जांच लोकपाल की देख रेख में होगी. तय समय में जांच और सजा हो सकेगी. इससे मंत्रियों से लेकर नीचे के सरकारी सेवकों में डर बैठेगा . सीबीआई का बेजा इस्तेमाल भी नहीं हो सकेगा. लेकिन बड़ा सवाल यही कि क्या मोदी सरकार के बचे हुए ढाई सालों में देश को लोकपाल मिल सकेगा. व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन संशोधन बिल सरकारी कामों में भ्रष्टाचार खत्म करने और सूचना के अधिकार के लिए लड़ रहे सूचना सिपाहियों की सुरक्षा के लिए यूपीए सरकार ने विसल ब्लोअर प्रोटेक्शन बिल 2014 में पारित किया था . उसके बाद मोदी सरकार इसमें कुछ संशोधनों के साथ बिल फिर से लेकर आई. मोदी सरकार के कार्यकाल में व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन संशोधित बिल मई 2015 में लोकसभा में पास हो गया लेकिन राज्यसभा में अटक गया . इसमें व्यवस्था की गयी थी कि पोल खोलने वालों की पहचान गुप्त रखी जाएगी और उन्हे हर तरह का संरक्षण मिलेगा ताकि बिना जान माल के डर से लोग सामने आएं और संस्थागत प्रतिष्ठानों में भ्रष्टों को बेनकाब करें. लेकिन स्वयंसेवी संस्थानों का आरोप है कि इस बिल के कठोर प्रावधानों को कमजोर कर दिया गया है. दस ऐसी श्रेणी बना दी गयी हैं जिनके तहत सरकारी संस्थागत भ्रष्टाचार को सार्वजनिक करने से सरकार रोक सकती है. इसके साथ ही ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट भी विसल ब्लोअर्स पर लागू कर दिया गया है . यानि ऐसे लोगों पर उन सरकारी दस्तावेज रखने के आरोप में मुकदमा चलाया जा सकता है जिनके आधार पर वो भ्रष्टाचार की शिकायत करेंगे. उधर सरकार का कहना है कि विपक्ष इस पर चर्चा ही नहीं कराना चाहता इसलिए बिल को कमजोर करने की बहानेबाजी कर रहा है. व्हिसल ब्लोअर एक्ट में देरी से एक निजी कंपनी में उंचे पद पर काम कर रहे सुधीर श्रीवास्तव निराश हैं. उन्हे सरकारी प्रतिष्ठानों के भ्रष्टाचार से अकसर दोचार होना पड़ता है. ऐसे में उन्हे उम्मीद थी कि सरकार से संरक्षण मिलने पर उन जैसे बहुत से लोग घोटालों को बेनकाब करने के लिए सामने आते लेकिन अब उम्मीद धूमिल हो रही है. मोदी सरकार का इरादा संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में इस बिल को राज्यसभा से पारित करवाने का था. लेकिन नोटबंदी पर हंगाने के चलते पूरे सत्र कोई काम नहीं हो सका. वैसे भी इतने कमजोर कानून के सहारे भ्रष्टाचार रोकने की उन्मीद कैसे की जा सकती है. इसका जवाब किसी के पास नहीं है. सिटीजन चार्टर बिल यूपीए सरकार ने 2013 में लोकसभा में बिल पेश किया था लेकिन उनकी सरकार जाने और नई लोकसभा का गठन होने के साथ ही ये बिल खत्म हो गया . मोदी सरकार ने ढाई साल में इस बिल को नये सिरे से पेश करने में कोई गंभीर रुचि नहीं दिखाई है . इस बीच कई राज्य जरुर अपने अपने यहां सिटीजन चार्टर बिल पारित कर कानून बना चुके हैं . इस कानून के लागू होने से आम लोगों के जन्म मृत्यु प्रमाण पत्र से लेकर अन्य काम तय समय में बिना किसी संस्थागत भ्रष्टाचार के पूरे हो सकेंगे . तय समय पर काम नहीं करने वाले सरकारी कर्मचारियों के लिए जुर्माने की सजा का प्रावधान है . केन्द्रीय स्तर पर तो सिटीजन चार्टर बिल अटका पड़ा है लेकिन कई राज्य अपनी तरफ से पहल कर ऐसा ही कानून अपने अपने राज्य में लागू कर चुके हैं . भ्रष्टाचार निरोधक ( संशोधन ) बिल, 2013  यूपीए सरकार ने 2013 में ये बिल राज्यसभा में रखा था . राज्यसभा की प्रवर समिति ने फरवरी 2014 में इस पर अपनी रिपोर्ट सौंपी .लेकिन यूपीए सरकार इसे राज्यसभा से पारित करवाने का समय नहीं निकाल सकी. मोदी सरकार ने नवंबर 2015 में इसमें संशोधन कर फिर से राज्यसभा की प्रवर समिति को सौंपा जिसकी रिपोर्ट अगस्त 2016 में सरकार को मिली. इस बिल को हाल ही में संपन्न हुए शीतकालीन सत्र में भी रखा जाना था लेकिन नोटबंदी की भेंट चढ़ गया पूरा सत्र. इस बिल में घूस देने को अलग से अपराध की श्रेणी में रखा जाएगा, सेक्सुयल फेवर को भी घूस माना जाएगा. यदि कोई कर्मचारी घूस देने के आरोप में पकड़ा जाएगा तो उसकी कंपनी के निदेशक को भी आरोपी माना जाएगा. लेकिन इस बिल में भी सरकार की अनुमति के बाद ही आरोपी अधिकारी के खिलाफ जांच शुरु की जा सकेगी. सभी दल भ्रष्टाचार रोकने की बात तो करते हैं लेकिन जब खुद पर आती है तो सारी नैतिकता हवा हो जाती है . सवाल उठता है कि आखिर सूचना के अधिकार के तहत क्यों नहीं आती राजनीतिक पार्टियां . बीस हजार के नीचे का चंदा बिना पर्ची के क्यों लेते हैं राजनीतिक दल.
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