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क्या चुनावी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में होगा जाति सर्वे का असर, जानें

5 States Assembly Elections: 150 साल पहले साल 1872 में अंग्रेजों ने पहली बार जातीय जनगणना करवाई और आखिरी बार ये 1931 में हुई. आंकड़े जुटाए गए, लेकिन कभी जारी नहीं किए गए.

Opposition Masterstroke: पटना में अफसर जुटे, नीली फाइल वाला फोल्डर निकाला, कैमरे पर दिखाया और इसी के साथ देश की सियासत में नया ट्विस्ट आ गया. बिहार में किस जाति के कितने लोग पूरा ब्योरा दे दिया. मगर रिपोर्ट जारी करने की टाइमिंग अहम है. अब सवाल ये है कि क्या ये रिपोर्ट 5 राज्यों के विधानसभा और 2024 के चुनाव के मद्देनजर जारी की गई? जातिगत सर्वे से सियासी दलों की नीति पर क्या असर होगा? क्या कास्ट सर्वे बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का मास्टर स्ट्रोक है?

मामले पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि सबके हित में काम किया जाएगा, बीजेपी ने क्या काम किया एससी औऱ एसटी के लिए? बात बिहार से निकली है लेकिन देश के दूसरे राज्यों पर भी इसका असर पड़ेगा. पहले जातिगत सर्वे को जान लेते हैं.

1872 में हुई थी पहली जातीय जनगणना

हमारा समाज जातियों के जाल में उलझा हुआ है. राजनीति इस जाल को और पेचीदा बना देती है. देश के किसी भी कोने में चले जाइए तमाम जातियां और हर जाति की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी मिल जाएगी. जाति का मुद्दा नया नहीं है. डेढ़ सौ साल पहले इसकी शुरुआत हुई थी. 1872 में अंग्रेजों ने पहली बार जातीय जनगणना करवाई और आखिरी बार ये 1931 में हुई. आंकड़े जुटाए गए, लेकिन कभी जारी नहीं किए गए. 1951 में आजादी के बाद पहली बार देश में जनगणना कराई गई.

लेकिन सरकार ने जाति के आधार पर गिनती नहीं करवाई. सिर्फ एससी और एसटी को जाति के तौर पर वर्गीकृत किया गया. इसके बाद 2010-2011 में यूपीए 2 में सरकार ने जातियों की जानकारी ली लेकिन जातीय जनगणना के आंकड़े जारी नहीं हुए. 2015 में कर्नाटक में ऐसा ही सर्वे हुआ था. तब भी आंकड़े सामने नहीं लाए गए. सरकार ने रिपोर्ट पर पर्दा डाले रखा.

बिहार का गणित क्या कहता है?

बिहार का गणित समझ लेते हैं. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. 2019 के चुनाव नतीजों की बात करें तो इसमें नीतीश की जेडीयू के पास 16 सीट जबकि बीजेपी के 17 सांसद बने. लोक जनशक्ति पार्टी के भी 6 सांसद और एक सीट अन्य के पास गई.

क्या इस बार बदलेगा सिस्टम?

बिहार का पैटर्न बताता है कि चुनावी पार्टियां उस इलाके के जातीय समीकरण और विरोधियों के कैंडिडेट को ध्यान में रखकर टिकट बांटती हैं. मगर क्या इस बार ये सिस्टम बदलेगा. क्या अब जातिगत सर्वे के आधार पर पार्टी कैंडिडेट्स को टिकट देंगी. आरजेडी और जेडीयू को इसका क्या फायदा होगा? होगा भी या नहीं.  नीतीश और लालू जातीय सर्वे की रिपोर्ट पेश कर रहे हैं जबकि उन्हें 30 साल का रिपोर्ट कार्ड पेश करना चाहिए और जनता को जवाब देना चाहिए कि आखिर बिहार में उनकी ओर से किस तरह का विकास किया गया है.

उत्तर प्रदेश का हाल

बिहार से निकलकर यूपी का रुख करते हैं. बीजेपी की सत्ता से पहले क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व रहा. कभी बीएसपी तो कभी समाजवादी पार्टी के सांसद यूपी की सियासत में अहम भूमिका अदा करते रहे हैं. यूपी में लोकसभा की 80 सीट हैं. 2019 में बीजेपी और सहयोगियों के 64 सांसद बने. बहुजन समाज पार्टी को 10 जबकि समाजवादी पार्टी को 5 सीट पर जीत हासिल हुई थी और कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली.

अब अगर बिहार वाली टेंपलेंट यूपी में फॉलो होती है तो क्या क्षेत्रीय दल बीजेपी के खिलाफ ओबीसी और अनुसूचित जातियों वाले फैक्टर को आधार बनाकर लोकसभा के चुनावी मैदान में उतरेंगे. ऐसा इसलिए भी क्योंकि यूपी में ओबीसी 43 फीसदी हैं. जिसमें यादवों की संख्या 10 प्रतिशत है. अनूसचित जाति का 21 फीसदी बेस है. जबकि सवर्णों की संख्या करीब 18 फीसदी.

पांच राज्यों के चुनाव में पलट सकता है पासा

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में गिनती के दिन बचे हैं. यहां कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधी फाइट है. सवाल ये भी है कि बिहार में जातिगत जनगणना को आधार बनाकर क्या कांग्रेस अब ओबीसी वाला दांव इन विधानसभा चुनाव में भी आजमाएगी. राहुल की बातों से तो यही इशारा मिलता है.

अगर यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की लोकसभा सीटों की बात करें तो पांच राज्यों में 185 सीटें हैं. बीते लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यहां शानदार परफॉर्मेंस किया था. 185 में से 165 सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन तब से सियासत में काफी पानी बह गया. नए समीकरण और गठबंधन बन गए. इसलिए सवाल है अब बीजेपी क्या करेगी. क्या 80-20 वाला फॉर्मूला चलेगा. विकास और मंदिर के नाम पर वोट मांगे जाएंगे. या फिर बिहार की ही तरह 85-15 वाले समीकरण को साधने की कोशिश होगी.

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