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2021 में बिहार की राजनीति में बदलाव की आहट, पढ़ें पूरी खबर

बिहार की राजनीति में साल 2021 काफी कुछ बदलाव सकता है. 27 दिसंबर को नीतीश कुमार ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. आरसीपी सिंह जो कि उनके सेक्रेटरी रहे थे उन्हें अध्यक्ष बनाया गया.

पटना: बिहार की राजनीति में नया साल काफी कुछ उलटफेर करवा सकता है. 27 दिसंबर को अचानक ही सब को चौंकाते हुए नीतीश कुमार ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. आरसीपी सिंह जो कि उनके सेक्रेटरी रहे थे उन्हें अध्यक्ष बनाया. लेकिन आरसीपी सिंह पार्टी चला लेंगे इसमें संदेह है. वो इसलिए कि वो जमीनी नेता नहीं बल्कि ब्यूरोक्रेट रहे हैं.

जनता दल यू जो पहले समता पार्टी हुआ करती थी वो संघर्ष से खड़ी हुई पार्टी है. ये अलग बात है कि जिन लोगों ने पार्टी को खड़ा करने के लिए सालों संघर्ष किया वो बाद में पार्टी से दूर चले गये. लेकिन कैडर अब भी संघर्ष वाला है. ऐसे में माना ये जा रहा है कि नीतीश कुमार ने आरसीपी को अध्यक्ष बनाकर पार्टी के अंदर विरोध की आवाज को उठने का मौका दे दिया है. एक बड़ी वजह है नीतीश कुमार का दूसरा हाथ. एक हाथ आरसीपी हैं तो दूसरे ललन सिंह. मुंगेर के सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह तब से नीतीश के राजनीतिक साथी हैं जब से नीतीश भारतीय राजनीति में उभरे हैं.

ललन सिंह के लिए नीतीश कुमार को कोई जगह बनानी पड़ेगी

बीच में कुछ सालों के लिए मनमुटाव हुआ तो ललन सिंह अलग चले गये थे. मौजूदा वक्त में ललन सिंह नीतीश के प्रमुख रणनीतिकार और सलाहकार हैं. अब ललन सिंह आरसीपी के नेतृत्व में काम करेंगे इसको पचा पाना आसान नहीं है. ललन सिंह के लिए नीतीश कुमार को कोई जगह बनानी पड़ेगी. आरसीपी को उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष बना दिया है तो एक बार में ये माना जा सकता है कि मोदी मंत्रिमंडल में अगर पार्टी शामिल होने का फैसला करती है और पहले की तरह सिर्फ एक कैबिनेट का ऑफर मिलता है तो ललन सिंह को नीतीश मौका दे सकते हैं. 2019 में जब मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने का मौका था तब सिर्फ एक का ऑफर आया था. नीतीश आरसीपी और ललन सिंह में किसी को कम या ज्यादा नहीं करना चाह रहे थे. तब उन्होंने सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था.

अब परिस्थितियां बदली हुई है. नीतीश कुमार का हाथ नीचे हो चुका है. पार्टी ढलान पर है, पार्टी में दूसरी पंक्ति का कोई नेता नहीं है. ऐसे में नीतीश कुमार काफी फूंक-फूंक कर आगे बढ़ रहे हैं. ललन सिंह नीतीश कुमार की जरूरत इसलिए भी हैं क्योंकि वो जिस भूमिहार जाति से आते हैं वो बीजेपी का कोर वोटर है. ललन सिंह कुछ करते या कहते हैं तो बीजेपी ललन सिंह के खिलाफ कुछ करने बोलने कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी. अब सवाल ये है कि ललन सिंह क्या चाहेंगे? अगर मोदी कैबिनेट में जगह नहीं मिली तो फिर ललन सिंह क्या करेंगे? क्या आरसीपी के अंडर काम करेंगे या फिर नीतीश कुमार से कहेंगे कि वो बिहार की पॉलिटिक्स से आरसीपी को दूर रखें? पार्टी बचानी है सरकार बचानी है तो नीतीश कुमार को बैलेंस बनाना होगा. और इसी बैलेंस के चक्कर में अब खेल होगा.

नये नेता की प्रदेश में जरूरत

आरसीपी और ललन सिंह नीतीश कुमार के दो हाथ हैं तो अशोक चौधरी और संजय झा के रूप में दो आंखें भी हैं. अशोक चौधरी अभी प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष और मंत्री हैं. अशोक चौधरी कांग्रेस से आए हैं इसलिए यहां के पुराने लोगों को उनका कद खटकता है न आरसीपी और ना ही ललन सिंह का कैंप चाहेगा कि अशोक चौधरी को पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिली. ऐसे में ललन सिंह चाहेंगे कि उनके स्वजातीय प्रदेश प्रवक्ता और पूर्व मंत्री नीरज कुमार सिंह को ये जिम्मेदारी मिले. आरसीपी को भी दिक्कत नहीं होगी. नीरज कुमार सिंह पटना स्नातक से एमएलसी हैं और नीतीश कुमार के भी भरोसेमंद हैं. नीरज कुमार को अध्यक्ष बनाकर नीतीश कुमार ललन सिंह को भरोसे में तो रखेंगे ही सवर्ण वाला प्रदेश कोटा भी सुरक्षित रह जाएगा.

मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह की उम्र हो चुकी है अब वो पूरी तरह से सक्रिय नहीं हैं. इसलिए वहां एक ऐसे नेता की खोज है जो लंबी पारी खेल सकें. नीरज कुमार सिंह के अलावा चर्चा के लिए कुछ और नाम भी हैं लेकिन सबसे भारी भरकम नाम नीरज कुमार सिंह का ही हैं. समता पार्टी और बाद में जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर नीतीश कुमार, रघुनाथ झा, विजेंद्र यादव, ललन सिंह, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह अपनी सेवा दे चुके हैं.

नीतीश कुमार की मजबूरी बिहार में नये बदलाव का रूप ले सकती है

मौजूदा वक्त में पार्टी को बिहार में नए सिरे से खड़ा करने की चुनौती है. क्योंकि 2020 के विधानसभा चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. अंकगणित ऐसा है कि थोड़ा भी ऊंच नीच हुआ तो सरकार बदल जाएगी. कुल 243 सीटें हैं, बहुमत के लिए 122 चाहिए. एनडीए में बीजेपी ने 74, जेडीयू ने 43, हम और वीआईपी ने 4-4 सीटें जीती. इनका कुल जोड़ होता है 125 का. मतलब बहुमत से तीन ज्यादा.

हम या वीआईपी अगर खिसक गई तो सरकार गिर जाएगी. नीतीश कुमार ने इसके लिए अपनी ओर से कोशिश शुरू की और निर्दलीय सुमित कुमार सिंह, बीएसपी और एलजेपी के 1-1 विधायकों को अपने पाले में करने की कोशिश की. इन तीनों को सरकार के साथ मान लें तो संख्या 128 का होता है. वैसे अभी किसी वोटिंग में एनडीए के साथ 128 का आंकड़ा दिखा नहीं है. महागठबंधन में आरजेडी के 75, कांग्रेस के 19 लेफ्ट की तीन पार्टियों के 16 विधायक हैं. इनका कुल जोड़ 110 होता है. 5 विधायक एमआईएम के हैं. यानी विपक्ष का नंबर 115 है. यही वजह है कि जोड़ तोड़ की बातें बिहार की राजनीतिक हवा में तैर रही है. इन आंकड़ों के जरिये नीतीश कुमार की मजबूरी समझी जा सकती है. यही मजबूरी बिहार में नए बदलाव का रूप ले सकती है.

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