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जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने से क्‍यों पीछे हट रही बीजेपी, क्‍या अब उसे होना पड़ेगा मजबूर?

लोकसभा चुनावों में बीजेपी को ओबीसी वोटरों का जिस तरह साथ मिला है, राज्यों में स्थिति उससे थोड़ी अलग है. पिछले विधानसभा चुनाव में देखा गया, ओबीसी वोटरों का ज्योदा वोट क्षेत्रीय दलों को मिला.

बिहार के कास्ट सर्वे का आंकड़ा सामने आने के बाद देश में एक बार फिर जातिगत जनगणना की चर्चा शुरू हो गई है. चुनावी राज्यों में भी विपक्षी दलों ने इसे अपने एजेंडे में शामिल कर लिया है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने जातिगत जनगणना का वादा किया है. वहीं, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इससे दूरी बनाए हुए नजर आ रही है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत पर नजर डालें तो ब्राह्मण, आदिवासी और दलितों के साथ उसका ओबीसी वोटबैंक बढ़ा है. बीजेपी को ओबीसी के यादवों जैसे बड़े तबके के बजाय उन जातियों का वोट ज्यादा मिला, जिनकी संख्या तुलनात्मक रूप से कम है, लेकिन ये छोटे-छोटे समूह मिलकर एक बड़ी आबादी बन जाते हैं. 

साल 1990 में वीपी सिंह की सरकार में मंडल कमीशन की रिपोर्ट जारी हुई, जिसमें ओबीसी के लिए सरकारी नौकरी और संस्थानों में दाखिले के लिए रिजर्वेशन का सुझाव दिया गया था. इसके बाद देश में खासतौर से उत्तर भारत में राजनीति में बदलाव आया और बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ. 

कैसे बीजेपी के लिए बदला ओबीसी वोटबैंक
लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी की कड़ी मेहनत के चलते बीजेपी ने 1998 और 1999 का लोकसभा चुनाव जीता. उस वक्त बीजेपी नीत एनडीए सरकार बनी, लेकिन क्षेत्रीय दलों का प्रभाव तब भी ज्यादा था. 1998 और 1999 में क्षेत्रीय दलों को 35.5 फीसदी और 33.9 फीसदी वोट मिले. वहीं, जब साल 2004 और 2009 में यूपीए की सरकार आई तो क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत 39.3 फीसदी और 37.3 फीसदी रहा. इतना ही नहीं 2014 में भी इन पार्टियों का वोट प्रतिशत 39 फीसदी था, जबकि बीजेपी को 31 फीसदी वोट मिले और एनडीए की सरकार बनी. हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में बड़ा बदलाव देखने को मिला और क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत 26.4 प्रतिशत पर पहुंच गया , जबकि बीजेपी के लिए ओबीसी जातियों का वोट बैंक बढ़ा. सीएसडीएस का आंकड़ा बताता है कि चुनाव दर चुनाव किस तरह ओबीसी वोटरों का मूड बदला है और बीजेपी मजबूत होती चली गई है. 2009 के चुनाव में सिर्फ 22 फीसदी ओबीसी वोटरों ने बीजेपी को वोट किया था, 2014 में इसमें इजाफा हुआ और 34 फीसदी ओबीसी वोटरों ने साथ दिया. इसके बाद 2019 में यह 44 फीसदी पहुंच गया. वहीं, 2009 में क्षेत्रीय दलों को 42 फीसदी वोट मिले और 2019 में यह आंकड़ा 27 प्रतिशत पर आ गया.

विधानसभा चुनाव में क्या रही स्थिति?
बीजेपी को लोकसभा में जिस तरह ओबीसी वोटरों का सपोर्ट मिला, वह विधानसभा चुनावों में देखने को नहीं मिला. 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ 11 फीसदी ओबीसी वोटरों ने बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को वोट किया, लेकिन अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में आरजेडी को 29 प्रतिशत ओबीसी वोटरों ने वोट दिया. वहीं, उत्तर प्रदेश की बात करें तो 2019 में समाजवादी पार्टी को सिर्फ 14 फीसदी ओबीसी वोटरों ने वोट दिया, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को 29 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे. इसी तरह की स्थिति और भी कई राज्यों में देखने को मिली है. उत्तर भारत में यादवों की बड़ी आबादी रहती है इसलिए ओबीसी जाति की रजानीति में इसका बड़ा प्रभाव है और मुख्यरूप से सपा एवं आरजेडी जैसे दल ओबीसी की राजनीति करते हैं. वहीं, ओबीसी के अंतर्गत आने वाली और भी कई जातियां हैं, जिनकी पूरी आबादी को जोड़ा जाए तो यह एक बड़ा हिस्सा बनता है और इसका ही फायदा बीजेपी को पिछले 2 लोकसभा चुनावों में मिला है.

जातिगत जनगणना से क्यों पीछे हट रही बीजेपी?
अब जब देश में जातिगत जनगणना की चर्चा तेज है और विपक्षी दल इसके समर्थन में सामने आ रहे हैं तो बीजेपी इससे दूरी बनाए हुए नजर आ रही है. द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इसकी एक वजह ये हो सकती है कि विभिन्न जातियों मुख्यरूप से ओबीसी जाति का जो आंकड़ा सामने आएगा उससे सरकारी नौकरी और संस्थानों में एडमिशन के लिए ओबीसी कोटे का मुद्दा शुरू हो सकता है और क्षेत्रीय दल इसके लिए सत्ताधारी बीजेपी पर दबाव बनाएंगे. इससे देश में फिर से वही स्थिति पैदा हो सकती है, जो मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद हुई थी और क्षेत्रीय दल जो फिलहाल उतनी मजबूत हालत में नहीं हैं उनकी स्थिति मजबूत हो जाएगी.

आखिरी बार 1931 में जारी हुए थे जातिगत आंकड़े
समय-समय पर जातिगत जनगणना की मांग उठती रही है. साल 1931 में आखिरी बार जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी किए गए थे, लेकिन 1941 में आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए. फिर 1951 की जनगणना के दौरान इसकी मांग उठी और जातिगत आंकड़ों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तक सीमित कर दिया गया. फिर 2011 में यूपीए की सरकार में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना कराई गई, लेकिन उसके भी आंकड़े जारी नहीं किए जा सके. इसके बाद, 2021 में जनगणना होनी थी, लेकिन कोरोना महामारी के कारण यह नहीं हो सकी.

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