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I Want To Talk Review: बॉलीवुड की मास्टरपीस है अभिषेक बच्चन की 'आई वॉन्ट टू टॉक', नहीं देखेंगे तो बहुत कुछ मिस कर देंगे

I Want To Talk Review: अगर आप इंतजार में थे कि खराब, कूड़ा और बकवास फिल्मों के दौर में कोई ऐसी फिल्म आए जिसे देखकर सुकून मिले, तो 'आई वॉन्ट टू टॉक' सिर्फ आपके लिए बनी है. यहां जानिए कैसी है फिल्म

I Want To Talk Review: 'सिंघम अगेन' और 'भूल भुलैया 3' जैसी मास मसाला फिल्मों के बीच डायरेक्टर शुजित सरकार ने बिना किसी शोरगुल के ऐसी फिल्म उतार दी है, जिसका इंपैक्ट इस साल रिलीज होने वाली किसी भी सबसे बढ़िया फिल्म से भी अच्छा होने वाला है.

कई सालों में ऐसी फिल्में देखने को मिलती है, जिन्हें देखते हुए आपकी आंखों में हल्की सी छलछलाहट के साथ जिदंगी को और ज्यादा जीने की उमंग जरूर जगेगी. साल 2024 जाने वाला है और अगर आप एक हल्के-फुल्के ढंग से पेश की गई बेहतरीन और गहराई वाली फिल्म देखना चाहते हैं, तो ऐसा भी हो सकता है कि ये इस साल की वो फिल्म बन जाए.

तो अगर आप लाउड बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ सालों से चले आ रहे एक जैसे एक्शन और कहानियां देखकर पक गए हैं और अभिषेक बच्चन की ये फिल्म देखना चाहते हैं, तो इस रिव्यू को पढ़ लीजिए फिल्म देखने का मजा और बढ़ जाएगा.

'आई वॉन्ट टू टॉक' की कहानी
कहानी अर्जुन (अभिषेक बच्चन) की है. जो आईआईटीएन और एमबीए डिग्री होल्डर है. अमेरिका में अपने सपनों का साकार कर रहा है. लाइफ में बहुत कुछ कर अचीव कर चुका है और आगे भी करने की आस लिए अपने हिस्से की मेहनत कर रहा है. लेकिन अचानक से उसकी लाइफ में एक तूफान आता है. डॉक्टर्स उसे बताते हैं कि उसे 'लाइरेंजियल कैंसर' है और उसके पास जीने के 100 दिन से भी कम दिन बचे हैं.

अर्जुन की नौकरी छूटती है. जिंदगी की उथल-पुथल के बीच उसे एक के बाद एक सर्जरी से गुजरना पड़ता है. अर्जुन एक बच्ची का बाप भी है इसी बीच उसकी जिम्मेदारी भी निभानी है. ये कहानी उसी अर्जुन की है जिसके पास 100 से कम दिन बचे हैं लेकिन वो जिंदा रहने के लिए मौत को भी कन्फ्यूज करता है उसे मैनिप्युलेट करता है. 

इस मैनिप्युलेशन और कन्विंसिंग में 20 से ज्यादा सर्जरी करवाता है लेकिन हार नहीं मानता. कहानी सीधी है लेकिन सादी बिल्कुल नहीं है. आपको उस पेंच को समझने के लिए फिल्म देखना होगा.

कैसी है फिल्म 'आई वॉन्ट टू टॉक'?
दो शब्दों में समझ लीजिए 'बहुत कमाल'. अब के कमाल क्यों है इसे पॉइन्ट्स में समझ लेते हैं.

  • फिल्म का हर एक डायलॉग अपने आप में कुछ मतलब समेटे हुए है. फिल्म का एक प्रतिशत हिस्सा भी मीनिंगलेस नहीं है. न ही फिल्म में कोई जबरदस्ती का सीन है. गाने हैं भी तो वो फिल्म की कहानी की जरूरत के हिसाब से उसे पुश देने के लिए बैकग्राउंड में बजते हैं और वो बेहतरीन भी हैं.
  • आप जरा सोचिए हर रोज अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं वो चाहे बीमारी से या दुनिया में चल रहे किसी न किसी युद्ध की वजह से. मीडिया में संख्या बता दी जाती है. लेकिन क्या सच में उनके परिवार का दर्द हम समझ पाते हैं? हम सिर्फ एक संख्या पढ़ते हैं कि इतने लोगों की मौत हो गई, बिल्कुल किसी 'स्टैटिस्टिक्स' की तरह.
  • ये जो डरावना और सहानुभूति विहीन 'स्टैटिस्टिक्स' है इस पर फिल्म ने बेहद गहराई से बात की है. किसी डॉक्टर के लिए कोई कैंसर पीड़ित या बहुत बीमार आदमी सिर्फ सब्जेक्ट हो सकता है, लेकिन उस सब्जेक्ट के मन में क्या गुजरती है. यही बताती है फिल्म.
  • पूरी फिल्म मौत के डर से भरी होने के बावजूद जाते-जाते जीने की आशा दे जाती है. फिल्म में एक सर्वाइवर की कहानी को दिखाया गया है जिसका 90 प्रतिशत से ज्यादा पेट ऑपरेट करके निकाल दिया गया है. गले की नली सिकुड़ गई है. पूरा चेहरा बिगड़ गया है, लेकिन उसके जीने की इच्छा मौत के डर पर भारी पड़ती है और दर्शकों को अच्छा फील कराती है.
  • सुसाइड जैसे संवेदनशील मामलों को बेहद संवेदनशीलता से दिखाया गया है. ऐसे सेंसिटिव मुद्दे को उठाते समय उस दर्द, बोझ और कभी न भूलने वाली टीस सब कुछ इस तरह से पेश किया गया है कि कोई भी उस स्थिति को गहराई से समझ पाए.

'आई वॉन्ट टू टॉक' का डायरेक्शन और राइटिंग
फिल्म का डायरेक्शन शुजित सरकार ने किया है. उन्होंने इसके पहले 'अक्टूबर' और 'पीकू' जैसी फिल्में बनाई हैं. ये फिल्में भी फुल ऑफ लाइफ थीं. इस फिल्म में भी शुजित अपनी पुरानी फिल्मों की हल्की सी सुगंध रखी है, जो फिल्म का स्वाद बढ़ाती है. फिल्म में रितेश शाह की कमाल की राइटिंग है.

एक्टिंग
जब आप फिल्म देखेंगे तो आपको एहसास होगा कि अभिषेक बच्चन को आखिर अब भी हर रोज अपने आपको क्यों साबित करना पड़ता है. खैर साबित करना पड़ता है तो उन्होंने फिर से कर दिया है. गुरु, सरकार, युवा जैसी फिल्मों में उनकी एक्टिंग के अगर आप कायल हो चुके हैं. तो एक बार फिर से कमर कस ली जिये उनके दीवाने होने के लिए.

उनकी एक्टिंग में इस बार कुछ नया सा दिखा है, जो उन्हें पहले से और बेहतर बनाता है. उनका एक्टिंग करने का तरीका पापा अमिताभ के पीकू और पा के बीमार बच्चे वाले कैरेक्टर के आसपास से गुजरता है. वो कॉपी नहीं करते,लेकिन एक्टिंग के महारथी के तौर पर उनके अंदर पापा की झलक दिखती है.

उनकी बेटी के रूप में अहिल्या बमरू ने अच्छा काम किया है. उन्हें देखकर लगेगा कि बहुत दिनों बाद कोई रिफ्रेशिंग और फ्रेश टैलेंट देखने को मिला है. एक बार और अभिषेक बच्चन के लिए बात करनी चाहिए क्योंकि उन्होंने 10 से ज्यादा अलग-अलग लुक्स अपनाएं हैं जो उनकी एक्टिंग को और निखारती नजर आती है.

आखिर में अगर आप ये फिल्म नहीं देखते तो शायद साल की सबसे बेहतरीन फिल्म देखने से चूक जाएंगे.

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