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जंग में सबसे खतरनाक हथियार कैसे बन रहे हैं ड्रोन, जानिए पहली बार कब और कहां हुआ था इनका इस्तेमाल 

समय के साथ बदलती 'बैटलफील्ड' में ड्रोन का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है. इन्होंने जंग की अवधारणा को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. ड्रोन न केवल टोही बल्कि सामरिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण हो गए हैं.

भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष में सबसे ज्यादा चर्चा ड्रोन हमलों की रही. ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान ने भारत पर कई ड्रोन हमले किए, जिन्हें S-400 ने नाकाम कर दिया. जवाबी कार्रवाई करते हुए भारत ने भी पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए ड्रोन हमले किए गए, जिन्होंने काफी तबाही मचाई, यहां तक कि पाकिस्तान के एयर डिफेंस सिस्टम HQ-9 को तबाह कर दिया. 

ऐसा पहली बार नहीं है जब बदलती बैटलफील्ड में ड्रोन का इस्तेमाल किया गया हो. रूस और यूक्रेन के बीच बीते तीन साल से छिड़ी जंग में भी ड्रोन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और इन्होंने दोनों देशों को भारी नुकसान पहुंचाया है. मिडिल ईस्ट में भी इजराइल पर हमास के हमले के बाद जब तनाव बढ़ा तब, इजराइल ने ड्रोन हमले से हमास को और उसके समर्थक देशों को पस्त कर दिया. जंग के बदलते तौर-तरीकों में सभी देशों का फोकस ड्रोन टेक्नोलॅजी पर ही है, जिनसे जंग के मैदान में जाए बिना दुश्मन को घुटने पर लाने के लिए मजबूर किया जा सकता है. 

कुछ ऐसा है ड्रोन का इतिहास

अनमैन्ड एरियल व्हीकल (UAVs) का इस्तेमाल प्रथम विश्व युद्ध (First World War) से जुड़ा है. इस दौरान अमेरिका और ब्रिटेन दोनों देशों ने पहली बार पायलट रहित एयरक्राफ्टों का इस्तेमाल किया था. ब्रिटेन ने 1917 में रेडियो कंट्रोल्ड 'एरियल टारगेट' का परीक्षण किया था. इसके बाद 1918 में अमेरिका ने केटरिंग 'बग' एरियल टारपीडो विकसित किया था. हालांकि, दोनों देशों ने इनका इस्तेमाल युद्ध में नहीं किया था, लेकिन दुनिया पहली बार रिमोट कंट्रोल्ड फ्लाइट की अवधारणा से परिचित हुई थी. इसके बाद 1935 में, यूनाइटेड किंगडम ने DH.82B क्वीन बी रेडियो कंट्रोल्ड टारगेट ड्रोन बनाया. द्वितीय विश्व युद्ध के समय इस तकनीक का इस्तेमाल और भी बढ़ता गया. 

पहली बार जासूसी के लिए इस्तेमाल हुए थे ड्रोन

जासूसी के लिए पहली बार ड्रोन का इस्तेमाल कोल्ड वार के दौरान हुआ और यही समय था जब UAV तकनीक के विकास में सबसे ज्यादा तेजी आई. 1950 से 1960 में अमेरिका ने छोटे रिमोट कंट्रोल टोही ड्रोन का उपयोग किया, जिससे पायलटों को बिना खतरे मे डाले हुए दुश्मन के इलाके की निगरानी की जा सके. वियतनाम युद्ध के दौरान भी बड़ी संख्या में टोही ड्रोनों की तैनाती की गई थी. इसके बाद ड्रोन टेक्नोलॉजी में कई बदलाव हुए. 

पहली बार दुनिया ने देखे हमला करने वाले ड्रोन

ड्रोन, जिन्हें अब तक जासूसी के काम में लाया जाता था, इन्हें पहली बार हमलों के लिए इस्तेमाल लायक अमेरिका ने बनाया. 2000 के आसपास अमेरिका ने दुनिया को पहली बार हेलफायर मिसाइलों के साथ प्रीपेडट ड्रोन से रूबरू कराया, ये ड्रोन दुशमन के इलाके में सटीक हमला करने में सक्षम थे. इसके बाद अमेरिका ने कई आतंक विरोधी अभियानों में ड्रोन का इस्तेमाल किया. ड्रोन का वास्तविक बाजार 2020 के बाद शुरू हुआ और दुनिया के कई देशो ने इन्हें अपनी सेना में शामिल करना शुरू कर दिया. 

ड्रोन कैसे बदल रहे 'बैटलफील्ड'

ड्रोन से पहले जंग मैदान में आमने-सामने लड़ी जाती थी, जिसमें बड़ी संख्या में सैनिकों की जान जाती थी. वहीं वायुसेना के इस्तेमाल से पायलटों की जान का भी खतरा रहता था. हालांकि, ड्रोन टेक्नोलॉजी आने से न केवल दुश्मन पर नजर रखना आसान हुआ, बल्कि पायलट व सैनिकों की जान को बिना जोखिम में डाले दुश्मन के सैन्य ठिकानों पर सटीक हमले करना भी आसान हो गया. किसी भी जंग में मिसाइल या एयरक्राफ्ट से किए हमले की अपेक्षा ड्रोन का इस्तेमाल काफी सस्ता और तबाही भरा है. 

यह भी पढ़ें: S-400 से भी खतरनाक है रूस का S-500 मिसाइल सिस्टम, जान लीजिए कीमत

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